नवाज शरीफ ने कसाब को पाकिस्तानी बताया तो वहां के प्रिंट मीडिया ने इसे ब्लैक आउट किया। अंतुले ने मालेगांव की अपुष्ट जांच को एटीएस चीफ करकरे की हत्या से जोड़ दिया, तो भारतीय मीडिया ने इसे जमकर तूल दिया। मुंबई के बाद अपने खिलाफ उपजा गुस्सा राजनीतिज्ञ चार दिन में भूल गए। वोट बैंक की राजनीति से कोई राजनेता नहीं बन सकता।
निरंकुश स्वतंत्र प्रेस का नुकसान मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के समय सभी को दिखाई दिया। इससे पहले दिसम्बर 1999 में जब भारतीय विमान का अपहरण हुआ था, तब भी भारतीय प्रेस की भूमिका संदिग्ध हो गई थी। मीडिया का एक वर्ग विमान में सवार परिवारों को सामने करके सरकार पर आतंकवादियों से बातचीत करने का दबाव बना रहा था। अब जब सामाजिक दबाव में विजुअल मीडिया ने कुछ पाबंदियों पर सहमति जाहिर कर दी है तो पुरानी भूलों को भी कबूल किया जाना चाहिए। विमान अपहरण के समय विजुअल मीडिया हवाई अड्डे पर मौजूद यात्रियों के परिजनों का इंटरव्यू प्रसारित कर रहा था। एक चैनल ने उन परिजनों को प्रधानमंत्री के आवास तक पहुंचाने की व्यवस्था की थी, ताकि प्रधानमंत्री के घर पर प्रदर्शन का सीधा प्रसारण कर सकें। मीडिया ने सारे देश को दो हिस्सों में बांटने में भूमिका अदा की थी।
नतीजतन सभी राजनीतिक दल खामोश होकर रह गए थे, प्रधानमंत्री ने जब राय लेने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई तो उसमें सभी ने यात्रियों को सुरक्षित बचाने के लिए कोई भी कदम उठाने की सलाह और समर्थन दिया। मीडिया के दबाव में आई वह नकली एकजुटता थी, क्योंकि बाद में विपक्षी दल कांग्रेस ने यात्रियों को मुक्त कराने के बदले आतंकवादियों की रिहाई को गलत कदम बताकर राजनीतिक मुद्दा बनाया। वैसे उस गलत कदम के लिए वाजपेयी सरकार को माफ नहीं किया जा सकता लेकिन उस गलत कदम में मीडिया की अहम भूमिका थी और उस समय का विपक्षी दल भी उसमें शामिल था। कंधार में मसूद अजहर, उमर शेख और मुस्ताक अहमद जरगर को मुक्त करके एनडीए सरकार के विदेशमंत्री जसवंत सिंह जब 166 यात्रियों से भरा हवाई जहाज दिल्ली हवाई अड्डे पर लाए थे तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। राजनीति तो इतनी गंदी है कि अब वही लोग 166 लोगों को मुक्त कराने पर जसवंत सिंह को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन मीडिया को भी अपनी भूमिका पर पछतावा होना चाहिए।
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने वहां के निजी चैनल जीईओ को दिए इंटरव्यू में यह खुलासा करके पूरे देश को हैरत में डाल दिया कि मंबई में पकड़ा गया आतंकवादी पाकिस्तानी ही है। भारत के लिए यह बड़ी ही सुखद घटना हुई, क्योंकि वहां की हुकूमत इस बात से इनकार कर रही थी। हालांकि पहले बीबीसी उर्दू के संवाददाता अली सलमान ने खुद उस गांव में जाकर पुष्टि की थी कि कसाब ओकाड़ा जिले के फरीदकोट गांव का ही रहने वाला है। फिर जीईओ चैनल ने गांव वालों का इंटरव्यू करके बीबीसी की पुष्टि की, लेकिन हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तान के प्रिंट मीडिया ने नवाज शरीफ के बयान को पूरी तरह ब्लैक आउट कर दिया। जिस तरह नवाज शरीफ का बयान पाकिस्तान के लिए आत्मघाती था, उसी तरह भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले का बयान हमारे लिए घातक है। भारतीय मीडिया ने अब्दुल रहमान अंतुले के बयान को तूल देकर मुंबई धमाके के बाद आतंकवाद के खिलाफ बनी राष्ट्रीय सहमति को तार-तार कर दिया। पाकिस्तान की सरकार फौरन हरकत में आकर नवाज शरीफ के बयान से होने वाले नुकसान को रोकने में जुट गई। जबकि हमारी सरकार राष्ट्रीय एकता को तोड़ने वाले अंतुले के बयान से होने वाले राजनीतिक नफे-नुकसान को तोलने में जुट गई। नतीजा यह निकला कि मुंबई में हुए आतंकी हमले के खिलाफ एकजुट हुआ हिंदू-मुस्लिम समाज फिर से विभाजित हो गया। कांग्रेस के मुस्लिम नेता तो अब्दुल रहमान अंतुले के पक्ष में खड़े हुए ही, बाटला हाऊस मुठभेड़ की जांच के पैरवीकार दिग्विजय सिंह भी अपने पुराने राजनीतिक तौर-तरीके पर उतर आए। शायद भारतीय राजनीतिज्ञों ने मुंबई की आतंकी वारदात के बाद देशभर में अपने खिलाफ उठे माहौल से सबक नहीं सीखा है।
मुंबई की अदालत में एटीएस के वकील ने लेफ्टिनेंट जनरल पुरोहित का रिमांड लेने के दबाव में अदालत को प्रभावित करने के लिए समझौता एक्सप्रेस से भी उनका नाता जोड़ा था। बचाव पक्ष के वकील ने तभी कहा था कि सरकारी वकील हल्फिया बयान से बाहर जाकर बोल रहे हैं। अगले दिन एटीएस चीफ हेमंत करकरे ने अपने वकील के दावे का खंडन कर दिया, लेकिन पहले भारत के मीडिया ने जरा संयम नहीं बरता। नतीजा यह निकला कि पाकिस्तान को हमारे खिलाफ बेबात का हथियार मिला हुआ है, वह बार-बार उसे इस्तेमाल कर रहा है। बीस दिसंबर को पाकिस्तानी अखबार 'दि न्यूज' ने अपने संपादकीय में मनघढ़ंत हल्फिया बयान का जिक्र करते हुए लिखा है कि लेफ्टिनेंट जनरल पुरोहित ने समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट करना कबूल कर लिया है। इसलिए क्या पता कल को मुंबई की आतंकी वारदात में भी लोकल लोगों का हाथ निकले, जैसा कि भारत का मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले शक जाहिर कर रहा है। जाहिर है अब हमारे बुजुर्ग कांग्रेसी नेता अब्दुल रहमान अंतुले ने पाक को नया हथियार दे दिया है। 'दि न्यूज' आगे लिखता है- 'अब्दुल रहमान अंतुले के बयान ने मुंबई के आतंकवादी हमले के दूसरे पहलू की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जहां भारत की ओर से कहा जा रहा है कि आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे वहां अब्दुल रहमान अंतुले का कहना है कि इस आतंकवादी वारदात में दूसरे लोग शामिल हो सकते हैं, जिनका निशाना हेमंत करकरे था, जो मालेगांव धमाकों की जांच कर रहा था। सच्चाई यह है कि मंत्री खुद मुसलमान है, मालेगांव में 137 मुसलमान मारे गए थे।' हालांकि अखबार ने मालेगांव की जांच को सितम्बर 2008 के बजाए 2006 की घटना से जोड़ दिया है।
एनडीए सरकार के समय पहले फेडरल एजेंसी का विरोध करके और बाद में अपनी सरकार बनने पर आतंकवाद विरोधी कानून पोटा रद्द करके कांग्रेस ने दो बड़ी गलतियां की थी। सरकार गिरने के डर से सर्दियों में चल रहे मानसून सत्र में कांग्रेस ने अपनी इन दोनों गलतियों को काफी हद तक सुधार लिया है। हालांकि आतंकवाद विरोधी कानून अभी उतना कड़ा नहीं बनाया गया। कांग्रेसी नेताओं के मन में धारणा है कि आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून से मुसलमान नाराज हो जाएंगे। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार को नसीहत दी कि वह मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़ना बंद करे, तो यह बात कांग्रेस को भीतर तक चुभ गई। कपिल सिब्बल उल्टे आडवाणी को सेक्युलरिज्म का पाठ पढ़ाने लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीतिज्ञों की वजह से भारत 60 साल बाद भी वास्तविक सेक्युलर नहीं बन पाया। वोट बैंक राजनीतिज्ञों की बड़ी कमजोरी बन गया है। इसीलिए पोटा रद्द किया गया था, इसीलिए संसद पर हमले की साजिश रचने वाले अफजल गुरु पर न्यायिक फैसले के बावूजद राजनीतिक फैसला लटका हुआ है, इसीलिए अब्दुल रहमान अंतुले पर फैसला लेने में देरी हो गई। वोट बैंक की राजनीति भारत के राजनीतिक नेताओं को राजनेता नहीं बनने दे रही। इतिहास से सबक नहीं लेने वालों को इतिहास कभी माफ नहीं करता। पाकिस्तान का मौजूदा सांप्रदायिक वातावरण भले ही नवाज शरीफ को भोहें चढ़ाकर देख रहा है। लेकिन वह लंबे अर्से से भारत को दुश्मन की बजाए पड़ोसी की नजर से देख रहे हैं। अमृतसर-लाहौर बस सेवा का आगाज उन्होंने ही अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर किया था। अब उन्होंने ही मुंबई में गिरफ्तार किए गए आतंकवादी के पाकिस्तानी होने का खुलासा करके अपने देश के विफल होते जाने की ओर पाक की जनता का ध्यान आकर्षित किया है। भले ही उसमें राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ स्थानीय राजनीति भी शामिल हो, लेकिन उन्होंने पाकिस्तान को फौज और आईएसआई के चंगुल से निकालकर लोकतांत्रिक पटरी पर लाने के लिए आत्ममंथन का आगाह किया है। उनका यह कदम राजनेता की हैसियत दिलाने वाला साबित हो सकता है। फौजी शासकों से भयभीत पाकिस्तानी मीडिया नवाज शरीफ के इस कदम को पूरी तरह ब्लैक आऊट कर रहा है। जिन्होंने भारत विरोधी मानसिकता के दायरे से बाहर निकलकर धारा के खिलाफ चलने की हिम्मत दिखाई है। मीडिया उसे अपने भाई की पंजाब सरकार बचाने की राजनीतिक गोटी भी मान रहा है, लेकिन उन्होंने जिस बात की ओर इशारा किया है, उसकी पुष्टि पाकिस्तान का आवाम भी कर रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पाक के 58 फीसदी लोग यह कबूल करते हैं कि उनका देश गलत दिशा में चल रहा है और आने वाला साल उनके लिए और घातक होगा।
आपकी प्रतिक्रिया