राजस्थान में बसपा ने कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत से रोका, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी अड़चन बनी। आडवाणी को पीएम बनाने के लिए भाजपा को राजस्थान संभालना होगा, मौजूदा सीटों में पच्चीस-तीस का इजाफा करना होगा और तमिलनाडु, आंध्र, यूपी में नए सहयोगी ढूंढने होंगे।
हाल ही में हुए पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों से एक संकेत तो साफ है कि मिजोरम की लोकसभा सीट कांग्रेस को आएगी। चौदहवीं लोकसभा में यह सीट मिजो नेशनल फ्रंट के पास थी, जो विधानसभा चुनावों में बुरी तरह लुढ़क गई है। मिजोरम की अगर मध्यप्रदेश की तरह 29 सीटें होती, या राजस्थान की तरह 25 सीटें होती तो पंद्रहवीं लोकसभा पर गहरा प्रभाव पड़ता। इसलिए कांग्रेस भी मिजोरम के चुनाव नतीजों से लोकसभा चुनाव नतीजों पर असर पड़ने की कोई संभावना नहीं देखती होगी। वैसे तो दिल्ली की सात लोकसभा सीटें भी भारतीय राजनीति की दिशा तय नहीं करती। दिल्ली में विजय कुमार मल्होत्रा से लोकसभा चुनाव हारकर मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्रीं बनना इसका सबूत है।
लेकिन कांग्रेस के लिए दिल्ली का चुनाव जीतना मिजोरम से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। दिल्ली देश का दिल है और दिल्ली की धड़कन देश की दिशा तय करती है। वैसे भी दिल्ली में मिजोरम की तरह एक नहीं, अलबत्ता सात लोकसभा सीटें हैं और भारतीय जनता पार्टी सात का दर्द अच्छी तरह जानती है। चौदहवीं लोकसभा में कांग्रेस की भाजपा से सात सीटें ही ज्यादा थी और केंद्र में उसकी सरकार बन गई।
दिल्ली और राजस्थान के चुनाव नतीजे देश की नब्ज हो सकते हैं। राजस्थान भाजपा के लिए अति महत्वपूर्ण राज्य है। लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनना राजस्थान के 21 भाजपाई सांसदों के दुबारा लौटने पर निर्भर करेगा। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ विधानसभा का चुनाव नहीं हारी, अलबत्ता विधानसभा का चुनाव लड़ रहे भाजपा के चार सांसद भी हार गए। भारतीय जनता पार्टी के वोटों में चार फीसदी से ज्यादा की गिरावट हुई है। लोकसभा चुनावों से ठीक पहले 2003 में हुए पिछली विधानसभा के चुनावों में भाजपा को 39.7 फीसदी वोट मिले थे, जबकि इस बार घटकर 35.5 फीसदी रह गए। लोकसभा चुनावों में यह अंतर और बढ़ गया था, भाजपा को 49.01 फीसदी वोट मिले थे, जिस कारण उसे 21 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को 41.42 फीसदी वोटों से सिर्फ चार सीटें मिली थी। भाजपा के लिए संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि कांग्रेस के वोटों में कोई बहुत ज्यादा इजाफा नहीं हुआ। पिछले विधानसभा चुनावों में उसे 35.2 फीसदी वोट मिले थे, जो अब बढ़कर 36.7 फीसदी ही हुए हैं। यानी सिर्फ डेढ़ फीसदी ही इजाफा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनाने की संभावना तभी बन सकती है, जब राजस्थान में हुए नुकसान की भरपाई के लिए अपने वोटों में कम से कम आठ-नौ फीसदी का इजाफा करे। पिछली विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के वोट साढे चार फीसदी ज्यादा थे, जिसे लोकसभा चुनाव में बढ़ाकर साढ़े सात फीसदी किया गया था, तब जाकर 25 में से 21 सीटें मिली थी। मौजूदा डेढ़ फीसदी के अंतर पर कांग्रेस आधी से ज्यादा सीटों की हकदार हो गई है, अपनी सत्ता के बूते अगर कांग्रेस डेढ़ फीसदी वोट और बढ़ा लेती है, तो वह 25 में से 17-18 सीटों पर काबिज होकर लालकृष्ण आडवाणी के सपनों पर पानी फेर देगी।
आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए भाजपा को आंध्र, तमिलनाडु, और उत्तर प्रदेश में नए सहयोगियों के अलावा अपनी मौजूदा सीटों में से भी 25-30 का इजाफा करना होगा। चौदहवीं लोकसभा के 138 सांसदों में से 57 तो इन्हीं चार हिंदी भाषी राज्यों में से जीतकर आए थे। इसलिए पंद्रहवीं लोकसभा में अपनी सरकार बनाने के लिए अपने शासन वाले तीनों राज्यों में अपना दबदबा बनाए रखने के साथ दिल्ली जीतना भारतीय जनता पार्टी के लिए अति महत्वपूर्ण था। राजस्थान में हार के बाद भारतीय जनता पार्टी का मौजूदा आंकड़ा 138 सीटों से काफी नीचे चला गया है। दिल्ली में हार का अंतर घटकर डेढ़ फीसदी रहने के बाद भारतीय जनता पार्टी मौजूदा एक लोकसभा सीट को बढ़ाकर दो या तीन करने का दावा ही कर सकती है, इससे ज्यादा नहीं। इसके मुकाबले राजस्थान में कम से कम दस सीटों से पिछड़ गई है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बावजूद नतीजे उसके लिए उत्साहवर्ध्दक नहीं हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 42.50 फीसदी वोट पाकर 173 सीटें जीती थी जो अब 37.70 फीसदी वोटों के साथ 143 सीटों पर आ गई है। विधानसभा चुनावों से ठीक छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 48.13 वोट हासिल करके 29 में से 25 लोकसभा सीटें जीती थी। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनावों में 31.61 फीसदी वोट हासिल किए थे, जबकि लोकसभा चुनावों में ढाई फीसदी का इजाफा करके 34.07 फीसदी वोटों के साथ चार सीटें जीती थी। भाजपा के लिए संतोष की बात यह हो सकती है कि पिछली विधानसभा के मुकाबले करीब पांच फीसदी वोटों की गिरावट के बावजूद कांग्रेस के वोटों में सिर्फ पौने फीसदी का इजाफा हुआ है, जिसे भाजपा आने वाले छह महीनों में आसानी से पाट सकती है। छत्तीसगढ़ में यथास्थिति ही कायम है, जहां भाजपा की 11 में से 9 लोकसभा सीटें हैं।
लोकसभा चुनावों से ठीक पहले होने वाले इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को सेमीफाइनल बताया जा रहा था। पिछले लोकसभा चुनावों से पहले भी इन्हीं पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए थे, मिजोरम समेत चार राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और सिर्फ दिल्ली में कांग्रेस की सरकार बनी थी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को हवा का पैमाना समझकर भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा के मध्यावधि चुनाव करवा दिए थे, जिस कारण उसे छह महीने पहले ही सत्ता से बाहर होना पड़ा। वैसे भी विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों के मुद्दे और लोगों की सोच अलग-अलग होती है। विधानसभा चुनावों में अगर आतंकवाद मुद्दा नहीं बना, तो यह सोचना कि लोकसभा चुनावों में भी मुद्दा नहीं बनेगा, गलती होगा। इसलिए लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले विधानसभा चुनावों को सेमीफाइनल कहा जाना बेतुका सा है। चुनावों में सेमीफाइनल शब्द का इजाद 1991 में हुआ था, जब अयोध्या आंदोलन के बाद भाजपा को अपना आधार बढ़ता दिखाई दे रहा था। भाजपा के नेता मानते थे कि इस बार तो नहीं, लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी जीत होगी। इसलिए उन्होंने 1991 के लोकसभा चुनाव को सेमीफाइनल की संज्ञा दी थी। हालांकि 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद वाजपेयी सिर्फ 13 दिन ही प्रधानमंत्री रह पाए थे, लेकिन दो साल बाद 1998 का चुनाव भाजपा के लिए सचमुच फाइनल था। विधानसभा चुनावों के दौरान मुंबई में आतंकवादी हमला हो जाने के कारण भाजपा अति उत्साहित हो गई थी, इसलिए भाजपा के कुछ नेता शुरूआती नानुकर के बाद चुनावों को सेमीफाइनल मानने लगे थे। चुनाव नतीजों के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इसे सेमीफाइनल मानने को तैयार नहीं हैं। भाजपा सिर्फ दस सीटों से पिछड़ती हुई दिखाई दे रही है, तो कांग्रेस को इससे भी ज्यादा खतरा आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में सता रहा है, कांग्रेस अपनी 145 सीटों में से 52 सीटें तो इन्हीं तीन राज्यों में जीती थी, जहां इस बार लोकसभा चुनाव में उसकी सीटें घटकर आधी रहने का खतरा है। गुजरात और हरियाणा में भी कांग्रेस को अपनी सीटें घटने की आशंका है। पिछले लोकसभा चुनाव में गुजरात की 26 में से 12 सीटें जीतकर कांग्रेस करीब-करीब नरेंद्र मोदी की बराबरी पर पहुंच गई थी, जिसे बरकरार रख पाना कांग्रेस के बूते में नहीं। हरियाणा में चौटाला विरोधी हवा होने के कारण कांग्रेस दस में से नौ लोकसभा सीटें जीत गई थी। अब दिन-प्रतिदिन हवा कांग्रेस के खिलाफ हो रही है और चौटाला की पार्टी के एनडीए में लौटने के बाद स्थिति उल्टी हो गई है। इसलिए राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम जीतकर कांग्रेस मुख्यालय में कोई जश्न नहीं मनाया गया। कांग्रेस के लिए जश्न का मौका तब होता, अगर वह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतती। विधानसभा चुनाव नतीजों को अगर पैमाना माना जाए, तो बसपा के वोट बैंक में हुआ इजाफा कांग्रेस के लिए खतरे की नई घंटी है। मध्यप्रदेश में 11 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 6.5 फीसदी वोट हासिल करके बसपा ने कांग्रेस के भावी मंसूबों को नुकसान पहुंचाया है। बसपा ने राजस्थान में भी 8 फीसदी वोट हासिल करके कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत पाने से रोक दिया है। बसपा कांग्रेस के रास्ते का चुभने वाला कांटा बनकर उभरी है।
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