सिर्फ पाटिल नहीं, नीतियां भी पलटिए

Publsihed: 30.Nov.2008, 12:15

यूपीए सरकार ने चार सालों में अपनी नीतियों से राष्ट्रीय सुरक्षा का ढांचा तहस-नहस कर दिया, आतंकवाद के विभत्स रूप की जान-बूझकर अनदेखी करती रही यूपीए सरकार। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में खुफिया रिपोर्टों की अनदेखी आदत में शुमार हो गई।

पन्द्रह साल पहले जब मैं पहली बार शिवराज पाटिल से मिला था तो वह लोकसभा के स्पीकर थे। नरसिंह राव ने उनकी अध्यापकीय पृष्ठभूमि को देखते हुए उनके लिए सही पद चुना था। वह अध्यापक से ज्यादा हेडमास्टर ही हो सकते थे। पिछला लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद भी सोनिया गांधी ने उन्हें देश का गृहमंत्री बनाने का फैसला किया, तो पाटिल को जानने वालों को हैरानी हुई थी। कुछ को तो सदमा भी लगा था। मुझे लगता है कि वित्त मंत्री के तौर पर पी. चिदम्बरम को छोड़ शायद ही कोई और मंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी मर्जी से बनाया होगा। पिछले तीन-चार सालों से हो रही हर आतंकवादी वारदात के बाद पाटिल की काबिलियत पर सवाल उठाए जाते रहे थे।

मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए बम धमाकों में दो सौ लोगों की जान जाने के बाद पाटिल के एक सहपाठी ने कहा था कि उन्हें तो उनके गृहमंत्री बनने पर ही आश्चर्य हुआ था। उनकी नजर में पाटिल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यटन या खाद्य प्रसंस्करण जैसे मंत्रालयों के लिए ही उपयुक्त होते। देश में लगातार बम धमाके बढ़ते रहे, पिछले एक साल में ही जयपुर, अहमदाबाद, गुवाहाटी के बाजारों-गलियों में हुए बम धमाकों ने राह चलते आम इंसानों को निशाना बनाया। सितंबर के दूसरे हफ्ते में दिल्ली में हुए बम धमाकों से सरकार में थोड़ी हरकत दिखाई दी, क्योंकि ये बम धमाके विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हुए थे। शिवराज पाटिल से जब पूछा गया कि क्या वह हटाए जा रहे हैं? या इस्तीफा दे रहे हैं? तो उन्होंने कहा था कि जब तक सोनिया गांधी का उन पर भरोसा कायम है, वह पद पर बने रहेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तब शिवराज पाटिल की कार्यशैली से गुस्से में थे। इस बार की तरह तब भी उन्होंने सुरक्षा बंदोबस्तों की समीक्षा बैठक में पाटिल को नहीं बुलाया था। सहयोगी दलों के मंत्रियों ने केबिनेट की बैठक में शिवराज पाटिल को कटघरे में खड़ा किया था। प्रधानमंत्री और केबिनेट का विश्वास अपने सहयोगी शिवराज पाटिल पर नहीं रहा था, इसे जानते-समझते हुए भी उन्होंने इस्तीफे की पेशकश नहीं की। अब जब मुंबई के फाइव स्टार होटलों पर हुए फिदायिन हमले में बीस विदेशी नागरिक और करीब दो सौ बड़ी पहुंच वाले नागरिकों की हत्या हो गई, तो सोनिया गांधी ने शिवराज पाटिल के सिर पर रखा हुआ हाथ वापस खींच लिया। इस भनक के बाद ही कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में शिवराज पाटिल को हटाने का फैसला किया गया।

मुंबई पर हुए ताजा फिदायिन हमले ने आतंकवाद की अब तक की सभी वारदातों को पीछे छोड़ दिया है। आतंकी हमले की तैयारी कम से कम तीन महीने से पहले की जा रही होगी। दस आतंकियों को कितनी कड़ी टे्रनिंग दी गई होगी, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि एनएसजी को भी उन पर काबू पाने के लिए छत्तीस घंटे लग गए जबकि एनएसजी के मोर्चा संभालने से पहले ही चार आतंकवादी मारे जा चुके थे। वारदात के बाद जब गृहमंत्रालय और खुफिया एजेंसियों पर लोगों का गुस्सा फूटकर बाहर आने लगा, तो खुफिया एजेंसियों ने यह खबरें लीक करनी शुरू की कि मंबई पर आतंकवादी हमले की जानकारी तीन महीने से दी जा रही थी। खुफिया एजेंसियों की ओर से सितंबर-अक्टूबर में ही गृहमंत्रालय को मुंबई पर आतंकवादी हमले की सूचना दी गई थी। खुफिया एजेंसी आईबी के एक प्रमुख अधिकारी ने मुझे बताया कि नवम्बर के दूसरे हफ्ते में खुद उनके हाथों से एक फाइल गृहमंत्रालय पहुंची थी, जिसमें मुंबई में समुद्र के रास्ते हमला होने की आशंका जाहिर की गई थी। लेकिन खुफिया तंत्र की इन रिपोर्टों को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए, तो मुंबई के मछुआरों का 28 अगस्त 2008 को दिया गया वह ज्ञापन तो झुठलाया नहीं जा सकता, जिसमें कई बांग्लादेशियों की ओर से बोट चलाए जाने और उसमें आरडीएक्स लाए जाने की जानकारी दी गई थी। सवाल पैदा होता है कि महाराष्ट्र की सरकार और केंद्रीय गृहमंत्रालय के अधिकारी इतने लापरवाह क्यों हो गए थे? गृहमंत्रालय के अधिकारी बताते हैं कि शिवराज पाटिल आधिकारिक बैठकों में बताई गई सूचनाओ को गंभीरता से नहीं लेते थे। शिवराज पाटिल की राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्र के प्रति गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने संसद पर हमला करने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु के मुद्दे को राजनीतिक रंग दे दिया। अफजल गुरु की क्षमा याचना राष्ट्रपति के पास लंबित होने के बाद शिवराज पाटिल को यह बयान देने का क्या हक था कि सरबजीत की रिहाई हो तो अफजल गुरु को फांसी कैसे हो सकती है। शिवराज पाटिल के इस बयान ने गृहमंत्री की प्रतिष्ठा को ही नुकसान नहीं पहुंचाया, अलबत्ता राष्ट्रपति के सर्वोच्च अधिकार को भी चुनौती दी।

लुंज-पुंज नेतृत्व आतंकवाद से मुकाबला नहीं कर सकता। जब पूरी दुनिया धर्म आधारित आतंकवाद के खिलाफ सख्ती अपना रही थी,  उस समय यूपीए ने सत्ता में आते ही आतंकवाद के प्रति नरम रवैया अपनाना शुरू  कर दिया। संयुक्त राष्ट्र ने पूरी दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने का आह्वान किया था। भारत सरकार ने भी आतंकवाद के खिलाफ कड़ा कानून 'पोटा' बनाया, लेकिन यूपीए ने सत्ता में आते ही आतंकवाद के खिलाफ कानून को एक धर्म विशेष के खिलाफ बताकर रद्द कर दिया। कानून में अगर कोई कमियां थीं, तो उन्हें दूर किया जा सकता था, कानून का दुरुपयोग करने वालों को कड़ी सजा का प्रावधान किया जा सकता था। 'पोटा' हटाए जाने से सरकार के आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं होने का संदेश गया, जिससे आतंकवादियों के हौंसले बढ़े। गृहमंत्री शिवराज पाटिल बार-बार यह दलील देते रहे कि आतंकवाद का मुकाबला सख्त कानून से नहीं किया जा सकता। ऐसे बयान देकर वह संयुक्त राष्ट्र में कड़े कानून का प्रस्ताव करने वाले दुनियाभर के नेतृत्व की योग्यता पर सवाल उठा रहे थे। राजनीतिक नेतृत्व का इशारा ब्यूरोक्रेसी और खुफियातंत्र ने भी बाखूबी समझा, जिस कारण आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाला सारा ढांचा तहस-नहस हो गया है। अब जबकि सुरक्षा ढांचे में भयंकर बिगड़ाव हो चुका है और सरकार के चंद महीने बाकी पड़े हैं, तो पूरे ढांचे में बदलाव की कसरत हो रही है। अब नया गृहमंत्री, नया गृह सचिव, नया राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जब तक सुरक्षा का नया ढांचा तैयार करेगा तब तक सरकार का समय बीत जाएगा। यह सारा बदलाव बीस विदेशियों की मौत और भारतीय वोटरों के गुस्से को देखकर किया जा रहा है, नीतियों में बदलाव का संकेत अभी भी नहीं है।

पिछले चार साल में कांग्रेस के नेतृत्व में देश को 1947 से पहले की परिस्थितियों पर लाकर दुबारा खड़ा कर दिया है। देश पर सीमापार से आतंकवाद का सायां तो मंडरा ही रहा है, देश के भीतर भी हिंदुओं और मुसलमानों में गहरी दरार पैदा कर दी गई है। यह श्रेय भी यूपीए सरकार को ही जाएगा कि नव गठित इंडियन मुजाहिदीन ने आतंकवादियों का आयात बंद कर दिया है। यूपीए सरकार आतंकवाद का चेहरा पहचानने में पूरी तरह नाकाम रही। भारत में आतंकवाद अब सिर्फ पाकिस्तान के कट्टरपंथियों की कश्मीर हासिल करने की मंजिल तक सीमित नहीं रहा। बांग्लादेश बनाकर पाकिस्तान का बंटवारा करने का बदला लेने की खुन्नस तक भी सीमित नहीं रहा। दस साल पहले तक पाकिस्तान से आ रहे आतंकवाद के उपरोक्त दोनों कारण थे, लेकिन न्यूयार्क पर हुए आतंकवादी हमले के बाद परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अब भारत, इराक, अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपीन्स, ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, रूस और चीन में आतंकवादी वारदातें करने वाले आतंकी संगठन अपनी कार्रवाई को इस्लामिक जेहाद का नाम दे रहे हैं। इन आतंकी संगठनों के निशाने पर सिर्फ गैर मुस्लिम नहीं, अलबत्ता मुसलमान भी हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण पाकिस्तान में बड़े आतंकवादी हमले हैं, जहां 99 फीसदी आबादी मुस्लिम है। ये आतंकवादी संगठन दावा कर रहे हैं कि अब उनका लक्ष्य दुनियाभर की मुस्लिम आबादी वाले इलाकों को आजाद करवाना और वहां इस्लाम के मुताबिक सरकार गठित करना है। हालांकि पाकिस्तान में इस्लामिक सरकार है, इसके बावजूद वहां आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं, क्योंकि आतंकवादी संगठन मानते हैं कि पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान की इस्लामिक सरकार को नुकसान पहुंचाया। पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई भी इसी एजेंडे पर काम कर रही है। मौजूदा पाक सरकार बड़ी दुविधा में है, एक तरफ उसे जेहादियों से लड़ना पड़ रहा है तो दूसरी तरफ खुद की एजेंसी आईएसआई से भी जूझना पड़ता है। यही वजह है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को आतंकवादियों के कराची से मुंबई पहुंचने का सबूत देखने के लिए आईएसआई चीफ को भेजने के वादे से मुकरना पड़ा। मनमोहन सिंह का अपने नकारा गृहमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और महाराष्ट्र सरकार के साथ-साथ पाकिस्तान पर गुस्सा जायज है, लेकिन यह सब यूपीए सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है।

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