बुश की ताकत का इम्तिहान पाक में

Publsihed: 15.Nov.2007, 06:10

बत्तीस साल पहले भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी खतरे में देखते हुए देश में आपातकाल लगा दिया था। भारत में आपातकाल के बत्तीस साल बाद अब बिल्कुल उन्हीं परिस्थितियों में परवेज मुशर्रफ ने आपातकाल लगाया है। इस संदर्भ से यह नतीजा निकलना गलत नही होगा कि भारत में लोकतंत्र की जो मजबूती आज दिखाई दे रही है वैसी ही मजबूती के लिए पाकिस्तान को बत्तीस साल का इंतजार करना होगा।

भारत और पाकिस्तान को आजादी एक साथ मिली थी, भले ही पाकिस्तान का निर्माण मजहब के आधार पर हुआ लेकिन आजादी के फौरन बाद मोहम्मद अली जिन्ना सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते थे। पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना का पहला भाषण इस बात का गवाह है। लेकिन सेक्युलर देश बनना तो दूर की बात, पाकिस्तान लोकतांत्रिक देश भी नहीं बन पाया। मुशर्रफ चौथे फौजी हुकमरान हैं जिन्होंने चुनी हुई सरकारों का तख्ता पलटकर सत्ता हथियाई।

पहले की मार्शल लॉ सरकारों और परवेज मुशर्रफ की हुकूमत में एक बड़ा बदलाव अंतरराष्ट्रीय संदर्भों के कारण जरूर देखा जा सकता है। परवेज मुशर्रफ ने खुद को राष्ट्रपति चुनवाने में सफलता हासिल कर ली, जबकि वह सेनाध्यक्ष भी बने रहे। इसलिए पिछले आठ सालों में पाकिस्तान एक तरह से लोकतांत्रिक देश भी बना रहा और फौजी शासन भी बरकरार रहा। नवाज शरीफ का तख्ता पलटने से लेकर परवेज मुशर्रफ के राष्ट्रपति चुने जाने तक कुछ समय के लिए कॉमन वेल्थ से पाकिस्तान की सदस्यता निलंबित जरूर की गई थी। परवेज मुशर्रफ को इसलिए याद किया जाएगा कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद के लिए जितना समर्थन हासिल किया, इससे पहले कोई भी पाकिस्तानी फौजी शासक ऐसा समर्थन हासिल नहीं कर पाया था। इसे मुशर्रफ के लिए संयोग ही कहा जाएगा कि अफगानिस्तान ऐसे समय में आतंकवाद का अंतरराष्ट्रीय अड्डा बन गया जब वह पाकिस्तान की सत्ता संभाल रहे थे। अमेरिका को अफगानिस्तान पर हमला करने के लिए पड़ोसी देश पाकिस्तान की जरूरत थी और अमेरिका ने मदद के बदले परवेज मुशर्रफ के फौजी शासन को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाई।

अमेरिका की शह मिलने के बाद परवेज मुशर्रफ पहले से भी ज्यादा निरंकुश हो गए और उन्होंने आतंकवाद के नाम पर लोकतंत्र बहाली की मांग करने वालों को दबाना शुरू कर दिया। एक तरफ लोकतंत्र समर्थक राजनीतिक दल परवेज मुशर्रफ के खिलाफ लामबंद हो रहे थे तो दूसरी तरफ अमेरिका विरोधी मुस्लिम जहनियत भी उनके खिलाफ खड़ी हो गई। परवेज मुशर्रफ पिछले छह साल से आतंकवाद को दबाने के नाम पर लोकतंत्र पर भी कुठाराघात जारी रखे हुए थे, लेकिन उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के अमेरिका विरोधी कट्टरपंथियों ने पेशावर से इस्लामाबाद की तरफ कूच कर दिया तो मुशर्रफ की मुसीबतें बढ़नी शुरू हुई। अफगानिस्तान से लगते उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में अलकायदा और तालिबान की गतिविधियां इसी साल इस्लामाबाद की लाल मस्जिद तक पहुंच गई थी। लोकतंत्र को कुचलकर सत्ता पर काबिज रहने की परवेज मुशर्रफ की लालसा पर अदालती अंकुश से  हालात ने ऐसा मोड़ ले लिया कि अमेरिका को पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ के विकल्प की तलाश शुरू करनी पड़ी, जो उसे जल्दी से बेनजीर भुट्टो के तौर पर मिल भी गई।

तीन घटनाएं एक साथ हुई। इस्लामाबाद की लाल मस्जिद से खदेड़े जाने के बाद अलकायदा और तालिबान ने अफगानिस्तान से लगते उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत की स्वात घाटी में अपने पांव जमाने शुरू कर दिए। सुप्रीम कोर्ट ने पहले मौजूदा नेशनल एसेंबली और चारों प्रांतों की एसेंबलियों से परवेज मुशर्रफ के दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने पर अंकुश लगाने की कोशिश की और बाद में बिना वर्दी उतारे फिर से राष्ट्रपति चुने जाने पर सुनवाई शुरू कर दी। उधर अमेरिका के दखल से बेनजीर भुट्टो का पाकिस्तान में प्रवेश हुआ। परवेज मुशर्रफ को लगा कि वह चारों तरफ से घिर रहे हैं तो उन्होंने अमेरिका की परवाह किए बिना देश में इमरजेंसी लगाकर सुप्रीम कोर्ट और लोकतंत्र दोनों पर सवालिया निशान लगा दिया। अब अमेरिका के लिए परवेज मुशर्रफ का ज्यादा दिन तक बचाव करना बहुत मुश्किल हो गया है। जो बेनजीर भुट्टो संकट में घिरे मुशर्रफ का बचाव करने के लिए आठ साल का वनवास छोड़कर पाकिस्तान पहुंची थी, उसने परवेज मुशर्रफ के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है और न्याय पालिका से जुड़ी बिरादरी पूरे देश में इमरजेंसी के खिलाफ सड़कों पर उतर चुकी है और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के इलाकों पर मौलाना फजलुल्ला की रहनुमाई में तालिबान का काफिला कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहा है। कम से कम दो जिलों स्वात और सांगला में स्थानीय प्रशासन को खदेड़कर तालिबान कब्जा कर चुका है और पाकिस्तानी फौजें हेलीकाप्टरों से गोलीबारी कर रही हैं। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में तालिबानों के बढ़ते दबाव के नाम पर परवेज मुशर्रफ अभी भी अमेरिका का समर्थन हासिल करने की कोशिश में जुटे हुए हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने लोकतंत्र बहाली, वर्दी उतारना और इमरजेंसी हटाने की तीन शतर्ें रख दी हैं। अमेरिकी दबाव के चलते संकेत मिल रहे थे कि परवेज मुशर्रफ इन तीनों शर्तों को मान लेंगे लेकिन ताजा संकेत इसके विपरीत हैं। संभवत: इसीलिए अमेरिकी दखल से पाकिस्तान पहुंची बेनजीर भुट्टो ने मुशर्रफ को उखाड़ फेंकने का आंदोलन छेड़ दिया है। अपना तख्ता उलटते देख परवेज मुशर्रफ ने बेनजीर भुट्टो के साथ काम करने से इंकार कर दिया है। इतना ही नहीं इमरजेंसी हटाने, वर्दी उतारने और लोकतंत्र बहाली का अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के साथ किया गया वादा निभाने में भी आनाकानी करना शुरू कर दिया है। राष्ट्रपति बुश को पिछले छह साल में ऐसी असुविधाजनक स्थिति का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा होगा। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या परवेज मुशर्रफ का हश्र ओसामा बिन लादेन जैसा होगा। अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के कब्जे के समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया था। बाद में जब लादेन ने अमेरिका को आतंकवाद का निशाना बनाया तो अमेरिका को उसी के खिलाफ जंग छेड़नी पड़ी।

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