बहुसंख्यक विद्रोह की ओर तो नहीं?

Publsihed: 16.Nov.2008, 20:39

भारत के संविधान में विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग कानून और सेक्युलरिज्म परस्पर विरोधी हैं। सरकारें विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग मापदंड अपनाकर सेक्युलरिज्म की भावना के अनुरूप काम नहीं कर रहीं।

परिदृश्य-एक
सत्रह सितंबर 1787 को तैयार अमेरिकी संविधान को लागू करने के लिए तेरह में से नौ राज्यों की पुष्टि होना जरूरी था, जो जून 1788 आते-आते हो गई थी, लेकिन दो बड़े राज्यों न्यूयार्क और वर्जिनिया ने पुष्टि नहीं की।

हालांकि चार मार्च 1789 को अमेरिकी संविधान मंजूर कर लिया गया, लेकिन न्यूयार्क और वर्जिनिया की पुष्टि के बिना संविधान लागू करना आसान नहीं होता, इसलिए लंबी बातचीत के बाद संविधान में अधिकारों के कानून जोड़ने का फैसला हुआ। सितंबर 1789 को संविधान में संशोधन के लिए न्यूयार्क में बुलाई गई पहली कांग्रेस में एक साथ बारह संविधान संशोधन हुए जिन्हें अधिकारों के कानून कहा जाता है। दिसंबर 1791 तक दस संशोधनों को सभी राज्यों ने मंजूरी दे दी थी। अधिकारों के कानून संबंधी पहले संशोधन में कहा गया है- 'अमेरिकी कांग्रेस किसी खास धर्म के पक्ष में कानून नहीं बनाएगी, किसी भी धर्म को मानने की आजादी पर प्रतिबंध नहीं लगाएगी, अभिव्यक्ति (बोलने और प्रेस) की आजादी बरकरार रहेगी, लोगों को शांतिपूर्वक कहीं भी इकट्ठा होने और अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करने का अधिकार होगा।' यूरोप में उस समय विभिन्न धर्मों में संघर्ष चल रहा था, लोग अमेरिका की ओर पलायन कर रहे थे। भविष्य में अमेरिका के टूटने का खतरा न हो, इसलिए इन संशोधनों का बहुत महत्व था। हालांकि कई राज्यों ने बाद में चर्च की स्थापना की, इतना ही नहीं अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने मोरमून्स समुदाय की बहुविवाह जैसी धार्मिक प्रथाओं के खिलाफ फैसले भी सुनाए। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिकी संविधान में सेक्युलरिज्म शब्द का जिक्र नहीं है।

परिदृश्य-दो
सेक्युलर शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले 1851 में लैसिस्टर शायर में सेक्युलर सोसायटी की स्थापना के साथ हुआ। इस सोसायटी की पहली मीटिंग में कहा था- 'हम खुले दिमाग के लोग हैं, इसलिए हम सेक्युलरिज्म की परिभाषा को लेकर जिद्दी रवैया नहीं अपनाएंगे। सेक्युलरिज्म के बारे में कुछ इस तरह के सुझाव सामने आए हैं- पहला- वास्तविक मानवता में विश्वास रखना (एक-दूसरे की मदद करने की भावना), दूसरा- विचार रखने की आजादी और धर्म व राज्य को अलग रखना, तीसरा- वास्तविकता आधारित तर्कों से बहस करना और समान विचारधारा के लोगों से संपर्क बनाना, चौथा- मानवाधिकारों पर आधारित खुले समाज की वकालत करना।' उन्नीसवीं शताब्दी में जीजे होलीओक ने सेक्युलरिज्म को जीवन का दर्शन कहा। जिसमें इधर-उधर से सुनी गई बातों या अच्छी लगने वाली बातों के आधार पर कोई मान्यता नहीं बनाई जाती बल्कि तर्कों के आधार पर किसी बात पर राय बनाई जाती है। सेक्युलरिज्म में भरोसा रखने वाले मानते हैं कि धर्म अभिलाषाओं पर आधारित बीते जमाने के विचार हैं। अमेरिका और यूरोप में धर्म को मानने वाले लोगों का मत है कि सेक्युलर लोग अनास्तिक होते हैं।

परिदृश्य-तीन
भारत का संविधान बनाते समय अमेरिकी संविधान की तरह ही सेक्युलर शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया। जिस तरह अमेरिका में धर्म को मानने की आजादी दी गई, उसी तरह भारतीय संविधान में भी धर्म को मानने की आजादी दी गई। जो खतरा अमेरिका के सामने था, वही भारत के सामने भी था, इसलिए भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की गई। अमेरिकी संविधान में धर्म और राज्य को अलग-अलग माना गया है, लेकिन भारतीय संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा गया। भारतीय संविधान निर्माताओं को अमेरिका की तरह धर्म और राज्य को अलग करने की फिक्र नहीं थी, क्योंकि भारत में धर्म हर व्यक्ति के जिंदगी का हिस्सा है। धर्म भारतीय सामाजिक जिंदगी में इतना महत्वपूर्ण है कि उसे राज्य से अलग करने की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय संविधान ने हिंदू समाज को सुधारवादी बनाने के लिए बाकायदा धार्मिक मामलों में दखल देकर अनुच्छेद 17 में हिंदुओं की रूढ़ियां खत्म करने का प्रावधान किया है, जिसके तहत सभी हिंदुओं को बिना जातीय भेदभाव के मंदिरों में जाने का हक दिया गया।  बाद में 1955 में हिंदू विवाह कानून बनाया गया, जिसमें दहेज प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह पर प्रतिबंध लगाए गए। भारतीय संविधान में धर्म से जुड़े हुए इतने प्रावधान है कि धर्म और राज्य को अलग किया ही नहीं जा सकता। जवाहर लाल नेहरू धर्म और राज्य को अलग करना चाहते थे, लेकिन उनकी इच्छा के खिलाफ मंत्रिमंडल ने सरकारी खर्चे पर सोमनाथ मंदिर के पुनर्रोध्दार का प्रस्ताव पास किया।

परिदृश्य-चार
इंदिरा गांधी ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान संविधान में संशोधन करके उसकी प्रस्तावना में समाजवादी और सेक्युलर शब्द जोड़ दिए। इन दो शब्दों के जोड़े जाने के बाद भारतीय संविधान के कई हिस्से परस्पर विरोधी हो गए हैं। एक तरफ संविधान हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाईयों के लिए अलग-अलग कानूनों का प्रावधान करता है, दूसरी तरफ राज्य के सेक्युलर होने के नाते उसका किसी धर्म से कोई लेना-देना भी नहीं है। सेक्युलरिज्म अपनाने के बावजूद भारत की संसद तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ते संबंधी कानून बनाती है। सेक्युलर सरकार होने के बावजूद विभिन्न धार्मिक यात्राओं के लिए बंदोबस्त करती है और आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाती है। सेक्युलरिज्म के तहत जब धर्म और राज्य का संबंध नहीं होना चाहिए, तो सरकारी धन धार्मिक कार्यों पर खर्च भी क्यों होना चाहिए। अमेरिकी संविधान में धार्मिक आजादी होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक सुधार करते हुए मोरमून्स समुदाय की बहु विवाह प्रथा पर रोक लगा दी थी। लेकिन भारत में अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज में इक्कीसवीं सदी में भी बहु विवाह प्रथा को कानूनी अधिकार भी मिला हुआ है, भारतीय अदालत को प्रतिबंध लगाने का कोई हक नहीं है, क्योंकि भारत में समान नागरिक संहिता नहीं है।

परिदृश्य-पांच
भारत में सेक्युलरिज्म को अनोखे ढंग से परिभाषित किया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद-15 में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के साथ धर्म, जाति, जन्मस्थान और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इसके बावजूद हिंदुओं, ईसाईयों और मुसलमानों के साथ राज्य अलग-अलग तरह का व्यवहार करता है। अमेरिका ने यूरोप से सबक लेकर राज्य और धर्म को अलग-अलग करने का प्रावधान संविधान में जोड़ा था। इसमें मूल भावना यह थी कि समाज के सभी वर्गों को आपस में जोड़ा जाए और एक राष्ट्र का निर्माण किया जाए। भारतीय संविधान की भावना भी यही थी, लेकिन जातिवाद को खत्म करने की बजाए आरक्षण के बहाने वोट बैंक बनाकर जातियों में तनाव पैदा कर दिया गया। यूपीए सरकार ने पहले आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को एक धर्म विशेष के खिलाफ बताकर रद्द कर दिया और बाद में वोट बैंक की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए संविधान की प्रस्तावना में लिखी सेक्युलरिज्म की भावना और अनुच्छेद-15 को ताक पर रखकर सेना समेत देशभर के सभी सरकारी-अर्ध्दसरकारी संस्थानों में मुसलमानों की गिनती करवाकर बहुसंख्यक हिंदुओं में आक्रोश पैदा कर दिया। आतंकवाद के दोषियों को भी धर्म-जाति देखकर सजा देना शुरू कर दिया गया है। सेक्युलरिज्म का मूल सिध्दांत तर्क के आधार पर अपनी राय बनाना है, आस्थाओं के आधार पर नहीं। तस्लीमा नसरीन को एक धर्म विशेष के कट्टरपंथियों के दबाव में बार-बार भारत से निकाला जाना देश के सेक्युलर संविधान के एकदम विपरीत है।

मंथन
क्या भारत में सेक्युलरिज्म का अर्थ बदलकर अल्पसंख्यकवाद नहीं हो गया है? क्या यह सेक्युलरिज्म का विभत्स रूप नहीं? सेक्युलरिज्म के सही अर्थों के मुताबिक धर्म और राज्य को अलग-अलग माना जाता है। क्या हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाईयों के अलग-अलग कानून होते हुए सेक्युलरिज्म को ईमानदारी से लागू किया जा सकता है? सेक्युलरिज्म को लागू करने के लिए क्या समान नागरिक संहिता आदर्श स्थिति नहीं? सरकार को सुधारवादी होना चाहिए या किसी धर्म, समुदाय, जाति के दबाव में आकर कानून कायदा बनाना चाहिए? क्या इन्हीं सब कारणों से हिंदू साधू-संत और यहां तक  कि भारतीय सेना में भी आक्रोश पैदा हो गया है? भारत के कम से कम यह दोनों वर्ग राष्ट्रभक्त रहे हैं।

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