पाकिस्तान में पढ़े-लिखे मुसलमान आतंकवाद के खिलाफ खड़े हो गए हैं। जबकि भारतीय बुध्दिजीवी मुसलमान उल्टे मुठभेड़ों पर सवाल उठा रहे हैं और मीडिया पर हमलावर हो गए हैं।
पाकिस्तान में मुसलमानों का पढ़ा-लिखा तबका अब आतंकवाद को लेकर गंभीर हो गया है। वहां के राजनीतिक दल भी पहले से ज्यादा गंभीर हो गए हैं, क्योंकि उन्हें देश का अस्तित्व खतरे में लगने लगा है। भारत तीस साल से आतंकवाद का सामना कर रहा है, लेकिन यहां के राजनीतिक दलों ने अभी राजनीतिक चश्मा उतारने की जहमत नहीं उठाई है। पिछले दिनों पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने यह कबूल किया है कि आतंकवाद को गंभीरता से नहीं लिया गया तो उनके देश की हालत भी अफगानिस्तान जैसी हो जाएगी।
ग्यारह सितंबर 2001 को ओसामा बिन लादेन के टि्वन टावर पर हमले के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। पाकिस्तान का आवाम कभी इसके हक में नहीं रहा, इसलिए परवेज मुशर्रफ के शासन में भी पाकिस्तान दोहरी नीति अपना रहा था। एक तरफ आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का साथ देकर उससे करोड़ों डालर का मुआवजा हासिल कर रहा था, तो दूसरी तरफ ओसामा बिन लादेन की फौज अलकायदा को नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में पनाह मुहैया करवा रहा था। इसलिए अमेरिका लाख कोशिश करके भी पाकिस्तान में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों और अलकायदा के अड्डों को तबाह नहीं कर सका। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश नेशनल एसेंबली चुनाव से ठीक पहले पाकिस्तान में अपना मोहरा बदलने का मन बना चुके थे। अपनी रणनीति के तहत ही उन्होंने बेनजीर भुट्टो और उनके पति आसिफ अली जरदारी के सारे मुकदमे रद्दे करवाकर उनका निर्वासन खत्म करवाया था। अमेरिकी चाल को परवेज मुशर्रफ ने वक्त रहते नहीं समझा, लेकिन अल कायदा ने उसे वक्त से पहले ही भांप लिया था। इसलिए चुनावों के दौरान ही अमेरिका के हिमायतियों पर हमले तेज कर दिए गए थे जिसमें बेनजीर भुट्टो की भी हत्या की गई।
पाकिस्तान में अब अमेरिका के मुख्य सहयोगी परवेज मुशर्रफ के शासन का अंत हो चुका है और चुनी हुई सरकार का शासन है। बेनजीर भुट्टो भले ही नहीं रही, लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री आवास पर बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी काबिज हैं। अमेरिकी मदद से यहां तक पहुंचने के बावजूद वह अलकायदा और अमेरिका से समान दूरी बनाकर चलना चाहते हैं। वह महसूस कर रहे हैं कि अमेरिका की हां में हां मिलाने से आवाम और फौज उनके खिलाफ हो जाएगी। दूसरी तरफ अलकायदा उन्हें अमेरिका के हाथों का खिलौना ही मानता है, इसलिए उसने पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां तेज कर दी हैं। अमेरिकी फौज इस मौके का फायदा उठाकर पिछले एक पखवाड़े में पाकिस्तान के भीतर घुसकर अलकायदा पर हमला करने की चार बार कोशिश कर चुकी है। पाकिस्तान के लिए अब अपनी स्वायत्तता का सवाल खड़ा हो गया है इसलिए वह अमेरिका को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है। असल में पाकिस्तान अब दो पाटों में फंस गया है, उसके हालात अफगानिस्तान जैसे हो गए हैं। वहां का आवाम यह मानने लगा है कि अमेरिका दोस्त बनकर उसी की सीमाओं में घुस रहा है। इसलिए आतंकवाद से जूझते हुए भी वहां का एक तबका अमेरिका की मुखालफत कर रहा है, तो दूसरा पढ़ा-लिखा वर्ग अमेरिका विरोधी रुख अख्तियार करते हुए भी आतंकवाद के खतरों से देश को होने वाले नुकसान को समझ रहा है। भारत के लिए खुशी की बात यह है कि पाकिस्तान की फौज और वहां का पढ़ा-लिखा मुस्लिम समाज पहली बार आतंकवाद के दूरगामी खतरों को भांप गया है। कई जगहों पर तो पाकिस्तान में आतंकवादियों का विरोध उसी तरह शुरू हो गया है, जैसे 1980 से 1990 तक खाड़कुओं को पनाह देने के बाद पंजाब की ग्रामीण सिख जनता ने 1990 आते-आते उन्हें पनाह देना और समर्थन करना बंद कर दिया था। पाकिस्तान में यह जागृति राजनीतिक स्तर पर भी हुई है। पिछले हफ्ते वहां की नेशनल एसेंबली का आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर दो दिवसीय 'क्लोज डोर' सत्र हुआ। इस सत्र की विशेषता यह थी कि सांसदों के अलावा फौज, आईएसआई और आतंकवाद का मुकाबला करने वाले एजेंसियों के प्रमुखों को भी 'इनपुट' के लिए बुलाया गया था। भारत की संसद ने आतंकवाद को लेकर इतनी गंभीर चिंता कभी नहीं दिखाई। पिछले तीन दशक में आतंकवाद पर दर्जनों बार बहस हो चुकी है, लेकिन हर बार बहस राजनीतिक लाइन पर आकर ही निपटती रही है।
देश के प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस को हमेशा यह चिंता सताती रही है कि आतंकवाद पर सख्त रुख अपनाने से कहीं उसके मुस्लिम वोटर नाराज न हो जाएं। कांग्रेस और अन्य सेक्युलर दल अगर आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते तो राष्ट्रवादी मुस्लिम भी खुलकर सामने आते। कांग्रेस की नीति ने आतंकवाद विरोधी मुसलमानों को भीरू बना दिया। पंजाब के सिखों की तरह मुसलमानों का पढ़ा-लिखा तबका भी आतंकवादियों के खिलाफ खड़ा हो जाता तो भारतीय जनता पार्टी के गोपीनाथ मुंडे जैसे किसी नेता की यह कहने की हिम्मत न होती कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन सभी पकड़े गए आतंकवादी मुसलमान हैं। गुजरात के आईपीएस अधिकारी एआई सय्यद ने हाल ही में लिखा है कि मुसलमानों की इस स्थिति के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि आतंकवाद के खिलाफ सामने आकर मुसलमानों को अपना बचाव खुद करना चाहिए। अगर वे दबी जुबान से या खुल्लम खुल्ला आतंकवादियों की पैरवी करते रहेंगे, या मुठभेडों पर सवाल उठाते रहेंगे, तो उनकी निष्ठा पर भी सवाल खड़े होंगे ही। एआई सय्यद ने मुसलमानों से कहा है कि शुरूआत उन्हें खुद करनी होगी। एक तरफ एआई सय्यद जैसे मुसलमान भी हैं, जो आतंकवाद को सांप्रदायिक नजरिए से ऊपर उठकर देखते हैं, तो दूसरी तरफ हमारे राजनीतिक नेता इस तंग नजरिए से ऊपर नहीं उठ रहे। जामिया मिलिया इलाके में हुई मुठभेड़ से वहां की मुस्लिम आबादी में थोड़ा-बहुत असंतोष होना स्वाभाविक था, लेकिन प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह और दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाके चांदनी चौक से चुने गए सांसद कपिल सिब्बल ने मुठभेड़ की न्यायिक जांच करवाने की मांग की। हालांकि पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा का मारा जाना ही मुठभेड़ के असली होने का पुख्ता सबूत है। वैसे भी फर्जी मुठभेड़ में पुलिस कभी गवाह को जिंदा नहीं छोड़ती। राजनीतिक नेताओं को कम से कम यह तो सोचना चाहिए था कि मुठभेड़ में एक आतंकवादी गिरफ्तार भी हुआ है।
सवाल राजनीतिक दलों का ही नहीं, अलबत्ता पढ़े-लिखे मुसलमानों की जहनियत का भी है। जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर मुशिरूल हसन ने भी 'काउंटर करंट्स' में 'एलीनेशन ऑफ इंडियन मुस्लिम' नामक लेख लिखकर मुठभेड़ पर सवाल खड़ा किया है। जब कट्टरपंथी मुसलमानों ने सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, तो मुशिरुल हसन ने उनका विरोध करके अपनी उदारवादी छवि बनाई थी। जबकि अब जामिया नगर मुठभेड़ पर सवाल खड़ा करके और पकड़े गए आतंकवादी को यूनिवर्सिटी की तरफ से वकील मुहैया करवाने का ऐलान करके उन्होंने अपनी छवि पर सवालिया निशान लगा लिया है। मुशिरुल हसन ने हिंदी मीडिया पर मुसलमानों से भेदभाव करने का आरोप लगाया है और इसके सबूत के तौर पर मुठभेड़ पर हुई रिर्पोटिंग को पेश किया है। अपने लेख- 'भारतीय मुसलमानों का अलग-थलग होना' में वह लिखते हैं- 'भारतीय समाज धार्मिक आधार पर बंट चुका है। करीब सात दशक में यह हाल है, तो कुछ और दशक बाद क्या हाल होगा। मीडिया राष्ट्रीय हितों का ठेकेदार बना बैठा है। जामिया मुठभेड़ कोई इतनी बड़ी घटना नहीं थी, यह आसानी से सुलझ जाती, लेकिन मीडिया ने यूनिवर्सिटी के खिलाफ अभियान चला दिया। जामिया यूनिवर्सिटी के स्टुडेंट बिना चार्ज के गिरफ्तार किए गए।' मुशिरुल हसन गिरफ्तार किए गए छात्रों को बिना जांच के किस प्रकार बेगुनाह बता रहे हैं, यह तो वह ही जानते होंगे, लेकिन खुफिया विभाग ने प्रधानमंत्री को एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में बड़ी तादाद में हो रहे फर्जी दाखिलों और हॉस्टल में आतंकियों के गढ़ बनने की जानकारी दी गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस रिपोर्ट को राजनीतिक आधार पर दबा कर बैठे हुए हैं। इसका नतीजा यह निकला है कि मुशिरुल हसन अपने लेख में आगे यह लिखने की हिम्मत भी कर देते हैं कि जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी तो पूरी तरह सेक्युलर है। जबकि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और दिल्ली यूनिवर्सिटी सेक्युलर नहीं हैं, वहां मुसलमान अध्यापकों की उतनी तादाद नहीं है, जितनी जामिया मिलिया में हिंदू अध्यापकों की है। गुजरात के आईपीएस अधिकारी आईए सय्यद को मुशिरुल हसन का लेख पढ़कर कतई निराशा नहीं हुई होगी, क्योंकि वह पहले से ही जानते हैं कि मुसलमानों को अगर शक की निगाह से देखा जा रहा है तो उसके लिए जिम्मेदार वे खुद हैं।
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