बजरंग दल भाजपा के रास्ते का कांटा

Publsihed: 06.Oct.2008, 03:36

कांग्रेसी नेताओं ने दिल्ली की मुठभेड़ पर सवाल उठाकर आतंकवादियों के तुष्टिकरण का रास्ता अपना लिया है, तो भाजपा बजरंग दल की हरकतों पर मौन है। ईसाईयों की हिंदुत्व विरोधी हरकतें बजरंग दल को हिंसा करने की इजाजत तो नहीं देती।

भारतीय जनता पार्टी ने आतंकवाद और महंगाई को अपना चुनावी मुद्दा बना लिया है। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालीसा राइस की लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात के बाद एटमी करार का विरोध भाजपा का मुख्य एजेंडा नहीं रहेगा। ऐसा लगता है कि कोंडालीसा राइस ने आडवाणी से मुलाकात कांग्रेस के आग्रह पर की है। कांग्रेस एटमी करार के चुनावी मुद्दा बनने से भयभीत है,

अगर भाजपा इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनाए तो यह संकट खत्म हो जाएगा। जहां तक वामपंथी दलों का सवाल है तो एटमी करार पर उनके कहे का मतदाताओं पर कोई असर नहीं होगा। वामपंथी दलों का विरोध राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत नहीं, अलबत्ता उनके अमेरिकी विरोध के मूल सिध्दांत पर आधारित है। वैसे भारतीय जनता पार्टी ने एटमी करार को चुनावी मुद्दा नहीं बनाने का फैसला बेंगलुरु में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से पहले ही कर लिया था। भाजपा के राजनीतिक प्रस्ताव में एटमी करार को इतना महत्व नहीं दिया गया था, जितना पहले दिया जा रहा था। करार के घोर विरोधी अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा को भी चुप रहने की हिदायत दे दी गई होगी। इसलिए बुश प्रशासन की चिट्ठी से संबंधित नए तथ्य सामने आने और अमेरिकी कांग्रेस की ओर से हाईड एक्ट की शर्तें जोड़ने के बावजूद दोनों ने चुप्पी साधे रखी। लोकसभा चुनाव में सत्ता आने की बाट जोह रही भाजपा अमेरिका जैसी महाशक्ति को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहती। आखिर वाजपेयी सरकार के समय ही अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने की शुरूआत हुई थी। अब जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में लौटने की बाट जोह रही है तो अमेरिका में भी डेमोक्रेट पार्टी आठ साल बाद सत्ता में लौटने की बाट जोह रही है। एनडीए सरकार ने दस साल पहले अमेरिका की डेमोक्रेट सरकार के साथ ही रिश्ते सुधारने की शुरूआत की थी। अब जब राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेट उम्मीदवार ओबामा ने एटमी करार के पक्ष में वोट कर दिया है तो भाजपा ने भी विरोध के तेवर ढीले कर लिए हैं। वैसे भी विदेशनीति पर लोकसभा चुनाव लड़ना कोई अक्लमंदी का काम नहीं होता।

भाजपा का चुनावी मुद्दा महंगाई ज्यादा कारगर साबित होगा। वैसे पिछले हफ्ते मुद्रास्फीति में थोड़ी गिरावट आई है, लेकिन ऐसी भविष्यवाणी तो कोई नहीं कर रहा कि चुनाव आते-आते मुद्रास्फीति की दर विकास दर के बराबर पहुंच जाएगी। मुद्रास्फीति और विकास दर पर यूपीए सरकार के सभी दावे धरे रह गए हैं। मुद्रास्फीति और विकास दर बराबर रहते तो आम आदमी का जीना आसान हो सकता था। एनडीए अपने शासनकाल के आखिरी साल में नौ फीसदी विकास दर छोड़कर गई थी, यूपीए सरकार की उपलब्धि रही कि उसने अपने शासन के पहले चार सालों में इस विकास दर को बनाए रखा। लेकिन इस विकास दर पर ज्यादा इतराने की बात इसलिए नहीं है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर पांच फीसदी से बढ़कर तेरह फीसदी को छूने चली गई। मुद्रास्फीति और विकासदर का संतुलन नहीं बनने से आम आदमी का जीवन दूभर हो गया है। इसलिए महंगाई चुनाव का बड़ा मुद्दा बनेगी, भले ही मुद्रास्फीति की दर घटनी शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी ने आतंकवाद को दूसरे बड़े मुद्दे के तौर पर चुना है, आतंकवाद को सामने रख कर भाजपा अपने हिंदू वोट बैंक को पुनर्जीवित करने के लिए कांग्रेस के अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति को साथ नत्थी कर ही लेगी। भाजपा के नेताओं ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं हैं लेकिन पकड़े जाने वाले सभी आतंकवादी मुस्लिम हैं। इंडियन मुजाहिदीन बनने के बाद भाजपा की इस दलील में दम आ गया है। खासकर दिल्ली में हुए बम धमाकों में पकड़े गए आतंकवादियों के आजमगढ़ से तार जुड़े होने का खुलासा होने के बाद आम नागरिक उन्हें शक के नजर से देखने लगा है। हिंदू-मुस्लिम में शक की यह गहरी खाई चुनाव में अपना असर दिखा सकती है। कांग्रेस दिल्ली की मुठभेड़ में मिली सफलता को आतंकवाद से लड़ने में नरमी के आरोपों को धो सकती थी। लेकिन वह एक बार फिर राजीव गांधी के शासनकाल वाली गलती दोहराती हुई दिखाई दे रही है। मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखने के लिए कांग्रेसी नेताओं ने शाहबानो गुजारा भत्ते पर अदालती फैसले के खिलाफ प्रदर्शनों की रहनुमाई करना शुरू कर दिया था। उस समय के विधिमंत्री शिवशंकर ने मुंबई में अदालती फैसले के खिलाफ मुस्लिम प्रदर्शन की रहनुमाई की थी। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ते का हक खत्म करने के बाद कांग्रेस मुस्लिम सांप्रदायिक रंग में रंग गई। सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उसमें और तेजी आई है। दूसरी तरफ आरिफ मोहम्मद खान आज उस भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं जिसे सभी सेक्युलर पार्टियां सांप्रदायिक बताकर अछूत मानती हैं।

ऐसा लगता है कि कांग्रेस शाहबानो प्रकरण की तरह दिल्ली मुठभेड़ के मामले में भी मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में आ रही है। मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के जांबाज इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा का मारा जाना मुठभेड़ की विश्वसनीयता का पुख्ता सबूत है। लेकिन मुस्लिम संगठनों ने शाहबानों प्रकरण की तरह ही मुठभेड़ पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों का समर्थन करते आ रहे वामपंथी बुध्दिजीवियों के संगठन भी मुठभेड़ को फर्जी बता रहे हैं। कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह ने इसी कुप्रचार के दबाव में आकर मुठभेड़ की निष्पक्ष जांच की मांग कर दी है। शाहबानो का मामला सिर्फ कट्टरपंथी मुसलमानों के तुष्टिकरण का मामला था जिसने कांग्रेस का सेक्युलर रिकार्ड दागदार बना दिया। लेकिन दिल्ली की मुठभेड़ पर सवाल उठाना तो आतंकवादियों के तुष्टिकरण का मामला है। यूपीए सरकार संसद पर हमला करने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु की फांसी पर कुंडली मारकर आतंकवादियों की तुष्टिकरण का आरोप झेल ही रही है। अब कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह के स्टेंड ने इस आरोप को और पुख्ता कर दिया है। कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक के लिए हिंसक प्रवृत्ति के देशद्रोही आतंकियों का बचाव करने की कोशिश कर रही है, तो भारतीय जनता पार्टी भी कम नहीं है। वह भी उड़ीसा और कर्नाटक में कट्टरपंथी हिंदू संगठन बजरंग दल की हिंसक गतिविधियों का उसी तरह बचाव कर रही है। यह भी उतना ही ठीक है कि केंद्र में यूपीए की सरकार बनने और हर सरकारी विज्ञापन में सोनिया गांधी का चेहरा दिखाई देने से  ईसाई मिशनरियों के हौंसले बुलंद हुए हैं। उड़ीसा, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है। धर्मांतरण करके दुनियाभर को चर्च का अनुयाई बनाना इसाई मत का मूलमंत्र है। धर्मांतरण के लिए यूरोपियन यूनियन के सभी देश भारतीय इसाई संगठनों को हर साल करोड़ों डालर-यूरो का अनुदान भेजते हैं, जिसका इस्तेमाल सेवा के जरिए धर्मांतरण के लिए किया जा रहा है। भारतीय संविधान हर किसी को अपनी इच्छा से उपासना करने की आजादी देता है, लेकिन लालच से धर्मांतरण कराने की इजाजत नहीं है। इसके बावजूद ऐसा हो रहा है, जिसका सबूत यह है कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासियों और हरिजनों के जीवन स्तर में एकदम बदलाव आ जाता है। सरकार अगर धर्मांतरण करने वालों के जीवन स्तर और आर्थिक हालत में आए बदलाव का सर्वेक्षण करवाए तो हकीकत सामने आ जाएगी। इसी तरह धर्म प्रचार की इजाजत होने के बावजूद दूसरे धर्म की आलोचना का हक नहीं है। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के कारण सांप्रदायिक हिंसा भड़की तो कर्नाटक में हिंदू विरोधी किताब के कारण। पहले तेलुगू और बाद में कन्नड़ में छपी 'सत्यदर्शनी' किताब हिंदू देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणियों से भरी पड़ी है। मूल रूप से तेलुगू में लिखी किताब को आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने प्रतिबंधित नहीं किया है सरकार की अनदेखी के कारण सांप्रदायिकता को हवा मिली। नतीजतन बजंरग दल उड़ीसा, कर्नाटक और केरल में हिंसक वारदातें कर रहा है। जिस तरह बाबरी ढांचा टूटने का असर मुस्लिम देशों में हुआ था उसी तरह चर्चों पर हो रहे हमलों से ईसाई देश खफा हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की नाराजगी का सामना करना पड़ा। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में ईसाईयों की हरकतों पर कितना भी गुस्सा हो, लेकिन बजरंग दल की हरकतें भाजपा की गले की फांस बन गई हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने बजरंग दल की इसी तरह की गैर कानूनी हरकतों पर रोक लगाकर भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार को वक्त रहते संभलने की चेतावनी दे दी थी। भाजपा ने इसे वक्त रहते नहीं समझा तो बजरंग दल उसके सत्ता के रास्ते का कांटा बन जाएगा।

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