देश के साथ विश्वासघात

Publsihed: 27.Sep.2008, 22:10

एटमी करार से देश का परमाणु शक्तिसंपन्न होने और सुरक्षा परिषद सीट का दावा हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया। मनमोहन सिंह एटमी ऊर्जा के लिए देश की सुरक्षा को गिरवी रखने के साथ-साथ आतंकवाद के लिए देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी याद किए जाएंगे।

एटमी करार के कारण भारत-अमेरिका के रिश्तों में व्यापक बदलाव आ रहा है। पाकिस्तान में भी निजाम बदलने से अमेरिका के साथ उसके रिश्तों में बदलाव आ रहा है। परवेज मुशर्रफ के परिदृश्य से हटने को अलकायदा अपनी जीत मान रहा है।

नतीजतन अफगानिस्तान से लगते पाकिस्तानी हलकों में अलकायदा की गतिविधियां बढ़ी हैं। अलकायदा ने अपनी जीत का जश्न पिछले हफ्ते इस्लामाबाद के मैरियट होटल में भी मनाया। अफगानिस्तान से लगते पाकिस्तानी इलाकों में अलकायदा ने नए अड्डे बना लिए हैं। इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका को इस समय पाकिस्तान की ज्यादा जरूरत है। परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में पाकिस्तानी सरकार अमेरिकी फौजों को खुफिया जानकारियां और मदद पहुंचा रही थीं। जबकि निजाम बदलने के बाद नई सरकार अमेरिका के साथ सहयोग में फूंक-फूंककर कदम रख रही है। नतीजा यह निकला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौजों को पाकिस्तान में घुसकर आतंकी ठिकाने नष्ट करने पड रहे हैं। पिछले हफ्ते पाकिस्तानी फौज ने अमेरिकी हेलीकाप्टर पर निशाना साधकर अपने क्षेत्र की संप्रभुता को चुनौती अस्वीकार कर दी। टि्वन टावर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ऐलान किया था। तब भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अफगानिस्तान में अलकायदा के खिलाफ कार्रवाई के लिए सहयोग का एक तरफा ऐलान कर दिया था। जबकि अमेरिका ने उस समय भारत की बजाए पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अपने सहयोगी के रूप में चुना। अब हालात बदल चुके हैं। अमेरिका को अपना पहले नंबर का दुश्मन मानने वाले मुस्लिम कट्टरपंथी पाकिस्तान को भी अपने निशाने पर ले चुके हैं। परवेज मुशर्रफ अमेरिका का सहयोग करने का खामियाजा भुगत चुके हैं। इसलिए मरहूम बेनजीर भुट्टो की पार्टी पीपीपी अमेरिका के बारे में फूंक-फूंककर कदम उठा रही है। बदले हालात में अमेरिका अब भारत को अपने नए दोस्त के तौर पर मान रहा है, जबकि पाकिस्तान को आतंकवादियों के नए अड्डे के रूप में मानने लगा है।

पाकिस्तान की सरकार अमेरिका से अपने रिश्तों और घरेलू आतंकवाद के बीच झूल रही है। ठीक उसी तरह भारत भी अमेरिका से नए रिश्तों और घरेलू आतंकवाद के बीच झूल रहा है। पिछले चार-पांच साल में भारत और पाकिस्तान में विदेश नीति और आतंकवाद के मुद्दे पर बड़ा बदलाव हुआ है। भारत सभी आतंकवादी वारदातों का ठीकरा पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों के सिर फोड़ता रहा था। साढ़े चार साल पहले भारत में निजाम बदलने के बाद नई सरकार की आतंकवाद के प्रति नीति में व्यापक बदलाव आया। नतीजा यह निकला कि आतंकवाद के प्रति यूपीए सरकार की नरम नीति का फायदा उठाकर पाकिस्तान आधारित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा आदि ने भारतीय मुसलमानों को  फुसलाकर इंडियन मुजाहिदीन खड़ी कर ली। अब पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में घरेलू आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं। यूपीए सरकार की नई नीति ने पाकिस्तान को आतंकवाद पनपाने के आरोप से बरी कर दिया है। पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका के इशारे पर कहते थे कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही आतंकवाद के शिकार हैं। जबकि अब उन्हें मजबूरी में यही बात कहनी पड़ेगी। काबुल में भारतीय दूतावास पर आतंकी हमले के बाद मनमोहन सिंह ने जरूर कहा था कि वारदात में आईएसआई का हाथ है। लेकिन इस्लामाबाद के मैरियट होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद 24 सितम्बर को न्यूयार्क में आसिफ अली जरदारी से मुलाकात के दौरान मनमोहन सिंह ने वही पुराना बयान दोहरा दिया कि दोनों देश आतंकवाद के शिकार हैं।

मनमोहन सिंह दो बातों के लिए निश्चित रूप से याद किए जाएंगे। पहली बात यह कि उन्होंने एटमी करार करके देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए भारत को अमेरिका का मोहताज बना दिया। दूसरी बात यह कि उन्होंने भारत को आतंकवाद के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। यह यूपीए सरकार की नीतियों का ही नतीजा है कि नई दिल्ली के जामिया इलाके में इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों से हुई लाइव मुठभेड़ पर भारतीय मुसलमान सवालिया निशान लगा रहे हैं। यह भी यूपीए सरकार की आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपनाने की नीति का ही नतीजा है कि सरकारी अनुदान पर चलने वाली जामिया यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर पकड़े गए आतंकवादियों को वकील मुहैया करवाने का ऐलान करते हैं। दिल्ली में संभवत: यह पहला मौका था जब खबरिया चैनलों पर मुठभेड़ का सीधा प्रसारण हो रहा था। लाशों को उठाकर ले जाते और एक आतंकवादी को गिरफ्तार किए जाने की घटना को लाखों लोगों ने सीधे प्रसारण के जरिए देखा। बाटला हाऊस इलाके में दोनों तरफ से चली गोलियों की आवाजें सुनने वाले दर्जनों गवाह मौजूद हैं। इसके बावजूद भारतीय मुसलमानों की समन्वय समिति ने मुठभेड़ और मुठभेड़ के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान लगाया है। कोई छोटी-मोटी संस्था इस तरह का सवाल खड़ा करती, तो उसकी अनदेखी की जा सकती थी। मुसलमानों की समन्वय समिति में जमायत-ए-इस्लामी हिंद, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशवारत, जमायत उलमा-ए-हिंद, ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल, जमायत अहल-ए-हदीस, मुस्लिम पालिटिकल काउंसिल, मजलिस-ए-फिक्र-ओ-अमल, जामिया नगर कोआर्डिनेशन कमेटी, मजलिस-ए-उलेमा-ए-इस्लाम जैसे मुस्लिम संगठन शामिल हैं। कुल मिलाकर पूरे मुस्लिम समुदाय ने मुठभेड़ पर सवाल उठाया है। इसलिए यह देश के लिए सोचने का एक गंभीर मुद्दा बन गया है।

हिंदुओं और मुसलमानों में आजादी से पहले जैसे परस्पर विरोधी बयानबाजी शुरू हो गई है। इन सभी मुस्लिम संगठनों ने विश्व हिंदूपरिषद, बजरंग दल, श्रीराम सेना, हिंदू मुन्नानी, हिंदू जागरण मंच, युवा हिंदू वाहिनी, हिंदू जन जागृति समिति और दुर्गावाहिनी को आतंकवादी संगठन करार देते हुए प्रतिबंध लगाने की मांग की है। जबकि हिंदू धर्मावलंबी कर्नाटक में धर्मांतरण और हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ छपी किताबों की प्रतिक्रिया में हुई हिंदू हिंसा के समर्थन में बयानबाजी कर रहे हैं। हिंदू संगठन आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून बनाने और उसमें जमानत को मुश्किल करने, आतंकवादी के पुलिस हिरासत में आईपीएस अफसर की ओर से लिए गए बयान को सबूत के तौर पर मानने की मांग कर रहे हैं, तो मुसलमान ऐसे सख्त कानून के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं जिसमें ये सब प्रावधान हों। अभी तक सभी दलों के राजनीतिक दल नेता यही कहते थे कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। खासतौर पर आजमगढ़ के आतंकवादियों की देशभर में कई जगहों पर गिरफ्तारियों के बाद भाजपा महासचिव गोपीनाथ मुंडे ने कहा है कि सब मुसलमान आतंकवादी नहीं, जबकि पकड़े गए सब आतंकवादी मुसलमान हैं। इस असलियत से मुंह छुपाने का कोई फायदा नहीं होगा कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई बढ़ रही है।

इस असलियत से भी मुंह छुपाने का कोई फायदा नहीं कि अमेरिका से एटमी करार ने भी भारतीय मुसलमानों को आक्रोशित किया है। अमेरिका की नीतियों ने पहले पाकिस्तानी मुसलमानों को खफा किया और अब भारतीय मुसलमान खफा हो रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने सोची समझी रणनीति के तहत मनमोहन सिंह के साथ एटमी करार किया। हालांकि एटमी ऊर्जा ईंधन कानून की धारा 123 के तहत भारत से एटमी करार के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को अपने देश का समर्थन हासिल नहीं है। इसलिए अमेरिकी कांग्रेस ने बाकायदा शर्त लगाई है कि भारत के परमाणु परीक्षण करने पर अमेरिका ही नहीं, अलबत्ता एटमी ऊर्जा ईंधन सप्लाई करने वाले सभी पैंतालीस देश ईंधन की सप्लाई रोक दें। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी अमेरिका के साथ एटमी करार के लिए देश की जनता का समर्थन हासिल नहीं है। सांसदों की खरीद-फरोख्त करके उन्होंने अपनी सरकार बचाई है। खरीद-फरोख्त से बची सरकार को अंतरराष्ट्रीय समझौतों का नैतिक और संवैधानिक हक नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करार पर बहस के समय संसद के माध्यम से देश से वायदा किया था कि करार के बाद भारत एटमी परीक्षण करने के हक से वंचित नहीं होगा। अमेरिकी कांग्रेस ने साफ-साफ कह दिया है कि भारत ने एटमी करार किया तो अमेरिकी कानूनों के मुताबिक करार खत्म हो जाएगा और एनएसजी देशों को भी अपना करार खत्म करने के लिए कहा जाएगा। मनमोहन सिंह यह तो अच्छी तरह जानते ही होंगे कि अमेरिका के कहने पर एनएसजी देश एटमी ऊर्जा ईंधन की सप्लाई करने को तैयार हो सकते हैं, तो उसके दबाव में सप्लाई बंद करने को भी बाध्य होंगे।  इस हालत में किया गया करार देश से किए गए वायदे का उल्लंघन ही नहीं अलबत्ता विश्वासघात है। अमेरिका से एटमी करार के बाद भारत सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के दावे से बाहर हो जाएगा, भविष्य में कभी परमाणु परीक्षण नहीं कर पाएगा। ईंधन के लिए अमेरिका और बाकी 44 एनएसजी देशों का मोहताज हो जाएगा।

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