एटमी करार को लेकर भाजपा गंभीर दुविधा में फंसी है। नए खुलासों ने तेवर कड़े करने पर मजबूर तो किया, लेकिन चुनावी मुद्दे में शामिल नहीं हुआ करार विरोध। भाजपा फिलहाल देखो और इंतजार करो के मूड में।
अमेरिकी कांग्रेस से भारतीय एटमी करार को मंजूरी मिलने से ठीक पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस गंभीर मुश्किल में फंस गए हैं, जो एक दिन आनी ही थी। मनमोहन सिंह तो इस वास्तविकता को जानते ही थे कि एटमी करार के बाद परमाणु विस्फोट नहीं कर सकेगा। वह इस बात को भी अच्छी तरह जानते थे कि अमेरिकी परमाणु ऊर्जा ईंधन कानून के मुताबिक भारत को बिना एनपीटी पर दस्तखत किए ईंधन सप्लाई की गारंटी नहीं मिल सकती।
इन तथ्यों को जानने-बूझने के बावजूद उन्होंने देश की संसद के माध्यम से जनता को गारंटी दी कि परमाणु विस्फोट का ईंधन सप्लाई पर कोई असर नहीं होगा। अमेरिकी अधिकारी बार-बार स्थिति को साफ करते रहे लेकिन प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री उनका खंडन करते रहे। राष्ट्रपति जार्ज बुश और विदेश मंत्री कोंडालिसा राईस जानबूझ कर गोल मोल जवाब देकर मनमोहन सरकार की रक्षा करते रहे। अब जब एनएसजी से छूट मिल गई तो राष्ट्रपति बुश ने खुद स्थिति साफ करना शुरू कर दिया। अमेरिका ने प्रधानमंत्री मनमोहन के दावों के उलट स्पष्ट कर दिया है कि हाईड एक्ट की सारे शर्तें लागू रहेंगी, भले ही वनटूथ्री करार में उसका जिक्र न हो। यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ईंधन की सप्लाई का आश्वासन राजनीतिक है, अमेरिका इस पर बाध्यकारी नहीं। यह दलील भी अब खोखली साबित हो गई है कि समझौता तोड़ने के लिए एक साल का नोटिस देना होगा। यह बात वनटूथ्री करार के ड्राफ्ट में मौजूद होने के बावजूद अगर अमेरिका को लगेगा कि नोटिस अवधि में बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेगी तो वह ईंधन सप्लाई फौरन रोक सकेगा। अमेरिका ने करार के ड्राफ्ट में अपने पक्ष में कई छेद रख लिए हैं, जिनका खुलासा अब हुआ है।
विपक्ष की सारी आशंकाएं सही साबित हो रही हैं तो अब दो नई दलीलें दी जा रही हैं। पहली दलील है कि अगर हम जरूरत के मुताबिक विस्फोट करते हैं और अमेरिका ईंधन की सप्लाई बंद कर देता है, तो बाकी देशों से सप्लाई जारी रहेगी। दूसरी दलील यह दी जा रही है कि बिना एनपीटी पर दस्तखत किए अगर हमें परमाणु ऊर्जा की समीक्षा भी की जानी चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारत के एटमी विस्फोट होने के तुरंत बाद सुरक्षा परिषद और एनएसजी की फौरी मीटिंगे होंगी और भारत पर नए सिरे से प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। तब तक भारत कम से कम तीन चार लाख करोड़ रुपए फूंक चुका होगा। क्या इतनी बड़ी राशि फूंकने के बाद हम परमाणु विस्फोट करने की हिम्मत जुटा पाएंगे। करार के जरिए अमेरिका दो लक्ष्य हासिल कर रहा है। पहला- भारत से अच्छा-खासा पैसा कमा कर भारत को परमाणु विस्फोट से वंचित कर रहा है। दूसरा- सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट संबंधी भारत के दावे को खत्म कर दिया है क्योंकि करार में भारत को एटमी ताकत मानने से साफ इनकार कर दिया गया है। राष्ट्रपति बुश ने कह दिया है कि एटमी ताकत का दर्जा सिर्फ उसी देश को मिल सकता है जिस ने 1967 तक सारे परीक्षण मुकम्मल कर लिए थे। अमेरिका ने अब तक यह बात नहीं की थी।
अमेरिका ने ये सारे खुलासे 25 सितंबर को करार पर आखिरी दस्तखत होने से पहले इसलिए किए हैं क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस से मंजूरी लेनी है। मनमोहन सरकार दुविधा में है और विस्फोटक खुलासों के बाद अमेरिकी सरकार से बातचीत करने में लगी हुई है। विपक्ष की आशंकाएं ठीक उस समय सही साबित हुई जब करार को एनएसजी की मंजूरी के बाद वह हिम्मत हारने लगा था। भाजपा के बुध्दिजीवियों ने अपने आलाकमान को यह समझाना बुझाना शुरू कर दिया था कि एटमी करार का विरोध छोड़कर दूसरे मुद्दों पर ज्यादा जोर देना चाहिए। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी पर इन नए खुलासों का गहरा असर पड़ा। अपने बुध्दिजीवियों की सलाह पर परमाणु करार के मुद्दे पर हमलावर होने का इरादा छोड़ दिया गया था। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के भाषण में भी एटमी करार पर उतने तीखे प्रहार नहीं थे, जितने बदली परिस्थिति में करने पड़े। राजनाथ सिंह को बारह सितंबर के नए खुलासों को जोड़कर अपने तेवर कुछ तीखे करने पड़े और अगले दिन जारी किए राजनीतिक प्रस्ताव में प्रहार तेज किए गए। भाजपा अपनी कार्यकारिणी में आखिरी समय तक दुविधा में रही कि एटमी करार को चुनावी मुद्दे के तौर पर पेश करे या नहीं। राजनीतिक प्रस्ताव पास होने के बाद पार्टी महासचिव अनंत कुमार ने जब पार्टी प्रचार के चार मुद्दे गिनाए तो उसमे मंहगाई, आतंकवाद, कृषि और यूपीए सरकार की वोट बैंक राजनीति पर प्रहार तो शामिल थे, लेकिन एटमी करार का विरोध शामिल नहीं था। यह इस के बावजूद हुआ कि राजनीतिक प्रस्ताव में आखिरी समय पर एटमी करार के विरोध का एक पेज बढ़ा दिया गया था। भाजपा का प्रभावशाली गुट अभी भी मानता है कि एटमी करार चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता, अगर चुनावी मुद्दा बना भी तो इससे कांग्रेस को फायदा होगा क्योंकि कांग्रेस गांवों मे बिजली और टयूबवैल पहुंचाने का नारा लगाएगी और शहरों में मध्यम वर्ग बिजली के आकर्षण में कांग्रेस के पक्ष में चला जाएगा। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने फिलहाल एटमी करार के पचड़े से बचते हुए चार मुद्दे चुने हैं, लेकिन सभी चार मुद्दों में से भी दो मुद्दे ज्यादा प्रभावी होंगे। भाजपा आतंकवाद और यूपीए सरकार की वोट बैंक आधारित अल्पसंख्यक और आतंकवादियों के तुष्टिकरण को अपना मुद्दा बनाएगी। इन दोनों मुद्दों के जरिए राष्ट्रवाद को नए सिरे से उभारा जा सकता है। सिमी के प्रति यूपीए सरकार के मंत्रियों का नरम रवैया, सच्चर कमेटी के जरिए मुस्लिम तुष्टीकरण, अमरनाथ यात्रा और रामसेतु विवाद भाजपा के पुराने वोट बैंक को मजबूत करने में ज्यादा सहायक होंगे। जहां तक बात कृषि की है तो भाजपा से ज्यादा गांवों में बिजली पहुंचाने का लुभावना नारा कांग्रेस के पास होगा। मंहगाई का वजन कम हो रहा है और चुनाव आते आते आम आदमी पर मंहगाई का बोझ काफी हद तक घट जाएगा।
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को लोकसभा चुनाव से पहले आखिरी बैठक माना जा रहा था, इसलिए गठबंधनों की संभावनाओं पर ज्यादा चर्चा होने की संभावना थी, लेकिन गठबंधनों को लेकर राज्य इकाइयों में ज्यादा मतभेद उभर आने के बाद यह काम संसदीय बोर्ड पर छोड़ दिया गया। वैसे भी अगर नवंबर में लोकसभा चुनाव नहीं हुए तो जनवरी में एक और राष्ट्रीय कार्यकारिणी दिल्ली में होगी। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश के चुनावी गठबंधनों पर एनडीए का भविष्य निर्भर रहेगा। असम में असम गण परिषद से गठबंधन हो गया है। हरियाणा के वरिष्ठ नेता राम विलास शर्मा चाहते हैं कि भजनलाल से चुनावी गठजोड़ हो, लेकिन पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ओमप्रकाश चौटाला से गठबंधन की पैरवी कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के प्रभारी अरुण जेतली चाहते हैं कि अजित सिंह के साथ मिलकर चुनाव लड़ा जाए लेकिन कल्याण सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार इस के सख्त खिलाफ हैं। कटियार और कल्याण सिंह ने मीटिंग का बायकॉट करके अपना विरोध जता दिया। इन सब समस्याओं से वाकिफ होने के बाद भाजपा ने इस कार्यकारिणी को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर, दिल्ली विधानसभा चुनावों की तैयारी तक सीमित कर लिया। भाजपा मध्यप्रदेश में शिवराज चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे, छत्तीसगढ़ में रमण सिंह को भावी मुख्यमंत्री प्रोजैक्ट करके चुनाव लड़ेगी, लेकिन दिल्ली का संकट बहुत गहरा है।
आपकी प्रतिक्रिया