लाल किले के प्राचीर से मनमोहन सिंह का आखिरी भाषण लाचार प्रधानमंत्री की तरह हुआ। एक ऐसा लाचार प्रधानमंत्री जो महंगाई से लेकर आतंकवाद की समस्या तक से जूझ रहा है। इसके बावजूद सोनिया गांधी अगर उन्हीं को सामने रखकर चुनावी दंगल में कूदने का मन बना रही हैं तो कांग्रेस भारी रिस्क लेगी। लालकिले से भाषण देते समय मनमोहन सिंह के चेहरे पर जीत के कोई हाव-भाव नहीं थे।
सांसदों की खरीद-फरोख्त का मामला ऐसे चिपक गया है जो उतरेगा नहीं। लोकसभा का विश्वासमत जीतकर भी सरकार जनता का विश्वासमत हार गई है। ऐसी हालत में खुद सरकार के लिए सत्ता बोझ बन गई है। चुनाव अब कभी भी हो सकते हैं, सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी तैयारियां जोर-शोर से शुरू भी कर दी हैं। विश्वासमत के समय राजनीति में नया धु्रवीकरण हो गया है, लेकिन इस धु्रवीकरण को भी पक्का नहीं माना जा सकता। जुलाई के दूसरे हफ्ते में यूएनपीए टूटकर नए सिरे से बना है, लेकिन चुनाव से पहले एक बार फिर टूटकर नए सिरे से बनेगा। उत्तर प्रदेश के बाद आंध्रप्रदेश यूएनपीए के प्रभाव वाला दूसरा राज्य है। आंध्रप्रदेश को केंद्र में यूपीए की सरकार बनाने का श्रेय जाता है जहां की 42 में से 29 सीटें जीतकर कांग्रेस ने भाजपा से बड़ी पार्टी बनने का श्रेय हासिल कर लिया था। अब उसी आंध्रप्रदेश में कांग्रेस की हालत पतली है। कांग्रेस ने पिछले साढ़े चार सालों में ऐसा कोई वैकल्पिक राज्य तैयार नहीं किया है जो आंध्रप्रदेश की भरपाई कर सके। असम और हरियाणा ने भी कांग्रेस को आधी से ज्यादा सीटें जिताकर ताकत दी थी, चौथा राज्य गुजरात रहा, जहां कांग्रेस को 26 में से 12 सीटें मिल गई थी। इन चार राज्यों में कांग्रेस अपने बूते पर 59 सीटें जीती थी, जबकि महाराष्ट्र में शरद पवार से गठबंधन करके 13 और तमिलनाडु में करुणानिधि के साथ गठबंधन करके 10 सीटें जीत पाई। कुल मिलाकर इन छह राज्यों में कांग्रेस आधी से ज्यादा या दस से ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाब रही। देश के 28 में से 17 राज्यों में दस या दस से ज्यादा सीटें हैं, लेकिन कांग्रेस सिर्फ छह राज्यों में ही दहाई का अंक छू पाई। चालीस या उससे ज्यादा सीटों वाले पांच राज्यों में से सिर्फ आंध्र प्रदेश ही एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस अपने बूते पर दहाई का अंक छू पाई। चालीस सीटों वाले बिहार में लालू यादव से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस तीन सीटों पर निपट गई। अस्सी सीटों वाले उत्तर प्रदेश में नौ सीटों पर और 41 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में छह सीटों पर निपट गई। महाराष्ट्र में शरद पवार से गठबंधन करके 13 सीटें और 39 सीटों वाले तमिलनाडु में करुणानिधि से गठबंधन करके 10 सीटें हासिल की थी।
अब आंध्रप्रदेश में कांग्रेस उतार पर है, गुजरात और महाराष्ट्र में भी स्थितियां कांग्रेस के अनुकूल नहीं हैं। आंध्रप्रदेश में यूएनपीए के घटक दल तेलुगूदेशम की ताकत बढ़ गई है, जिसका प्रमाण हाल ही के लोकसभा उपचुनावों में दिखाई दिया। गुजरात-महाराष्ट्र में भाजपा की ताकत में इजाफा हुआ है। तमिलनाडु में इस बार द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन का पलड़ा कमजोर है, जिसका फायदा जयललिता को होगा और वह लालकृष्ण आडवाणी की मददगार साबित हो सकती हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका लगेगा, पिछली बार सभी 39 सीटें यूपीए की बड़ी ताकत बनी थी। इस बार आंध्र के बाद सबसे बड़ा झटका तमिलनाडू का होगा। हरियाणा में भी तमिलनाडु की तरह नतीजे एकदम उलट जाएंगे। पिछली बार कांग्रेस को दस में से नौ सीटें मिली थीं, इस बार एक पर आकर अटक सकती है। सिर्फ असम ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां आबादी के डेमोग्राफिक परिवर्तन के कारण कांग्रेस अपनी पुरानी स्थिति बनाए रख सकती है। कांग्रेस की उम्मीद मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात और छत्तीसगढ़ पर टिकी है। भाजपा शासित इन पांचों राज्यों में पिछली बार भाजपा को दस या दस से ज्यादा सीटें मिली थीं। भाजपा की कुल 138 सीटों में से 88 सीटें इन पांचों राज्यों से ही मिली थी। कांग्रेस इन पांचों राज्यों में भाजपा सरकार के नकारात्मक वोटों पर निर्भर है। कांग्रेस की उम्मीद का छठा राज्य कम्युनिस्ट शासित केरल है, जहां पिछली बार कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया था। कांग्रेस अगर इन छह राज्यों में कामयाब रहती है तो वह आंध्रप्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु में होने वाले नुकसान की भरपाई कर सकती है, लेकिन कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और केरल पर ही भरोसा कर सकती है। कर्नाटक और गुजरात में कांग्रेस को फायदे की कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह से गठबंधन के बावजूद, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से गठबंधन के बावजूद और बिहार में लालू-पासवान से गठबंधन के बावजूद ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। इन तीनों राज्यों की 161 सीटों में से पिछली बार कांग्रेस को सिर्फ 18 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को आंध्रप्रदेश, हरियाणा, हिमाचल के अलावा महाराष्ट्र में भी नुकसान उठाना पड़ेगा। कांग्रेस को फायदा सिर्फ इस बात का होगा कि आंध्रप्रदेश को छोड़कर बाकी सब कम सीटों वाले राज्य हैं जबकि फायदा देने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और केरल ज्यादा सीटों वाले राज्य हैं।
लोकसभा चुनावों की हार-जीत काफी हद तक चुनावों के दौरान होने वाले नए धु्रवीकरणों-गठबंधनों पर भी निर्भर रहेगी। यूएनपीए में पिछले महीने हुए बदलाव के बावजूद आने वाले कुछ महीनों में नए बदलाव संभावित हैं। चार साल तक मुलायम सिंह के साथ रहने वाले अजित सिंह यूएनपीए में रह गए थे, लेकिन मायावती ने उन्हें बीच मझधार में छोड़ दिया है, अजित सिंह का एक चक्कर पूरा हो गया है। अब उन्हें गठबंधनों का चक्कर नए सिरे से शुरू करना है। वह भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा से एक-एक बार गठबंधन कर चुके हैं। मायावती ने गच्चा देकर उनके प्रभाव वाली पश्चिम उत्तर प्रदेश की सारी सीटों पर बसपा उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, जबकि वह गठबंधन की उम्मीद लगाए बैठे थे। इसलिए अजित सिंह को अब कांग्रेस या भाजपा में से एक को अपना नया साथी चुनना होगा। कांग्रेस ने मुलायम सिंह को यूपी में अपना नया साथी चुनकर अपनी राह थोड़ी आसान कर ली है, अगर अजित सिंह भी उनके साथ जा मिलते हैं तो उत्तर प्रदेश में बसपा की कांग्रेस-सपा-रालोद से कड़ी टक्कर के आसार बन जाएंगे। ऐसी सूरत में भाजपा का पत्ता साफ हो जाएगा, जो पहले ही दस साल के अंदर 51 से दस सीटों पर आ चुकी है। भाजपा को अपनी हैसियत का अंदाजा है, और वह उत्तर प्रदेश में अपनी हालत सुधारने के लिए नए साथियों की तलाश में है। इसीलिए उसने अजित सिंह पर डोरे डालने की शुरूआत कर दी है, अजित सिंह की बहन पहले से भाजपा में है।
उत्तर प्रदेश की तरह हरियाणा में भी यूएनपीए का घटक दल इनलोद गंभीर दुविधा में है। ओमप्रकाश चोटाला इस बात का आंकलन कर रहे हैं कि उन्हें भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने में फायदा रहेगा या बसपा के साथ। लोकसभा के पिछले चुनाव में भाजपा और इनलोद ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, भाजपा को तो एक सीट मिल गई थी लेकिन इनलोद का पूरी तरह सफाया हो गया था। भाजपा इस बार चुनाव को ज्यादा गंभीरता से लड़ने की तैयारी कर रही है, उसके सामने चोटाला और भजनलाल की पार्टियों का विकल्प खुला हुआ है। भजन लाल के बेटे कुलदीप विश्नाई ने विश्वासमत के समय लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ करके गठबंधन की भूमिका तैयार कर ली है। जबकि चोटाला को भाजपा का एक ताकतवर खेमा हमेशा से धोखेबाज राजनीतिज्ञ मानता रहा है। इस बीच बहुजन समाज पार्टी हरियाणा में ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है, उसकी गुड़गांव, करनाल और फरीदाबाद सीटों पर तीखी निगाह है, चोटाला को मायावती से गठजोड़ का फायदा भी हो सकता है। इसी तरह भाजपा को भजनलाल से गठजोड़ का फायदा होगा। ये दोनों कांग्रेस विरोधी गठजोड़ अलग-अलग लड़कर भी कांग्रेस का सफाया कर सकते हैं। यूएनपीए के तीसरे घटक असमगण परिषद ने भी चुनाव से पहले नए समीकरणों की संभावना टटोलनी शुरू की है। भाजपा के नेताओं ने अपने इस पुराने सहयोगी से संपर्क साधना शुरू कर दिया है। असम में डेमोग्राफीकली परिवर्तन के बाद कांग्रेस की स्थिति काफी मजबूत हो गई है, इसलिए भाजपा-अगप मिलकर ही चुनाव लड़ने को फायदेमंद मान रहे हैं। यूएनपीए के चौथे घटक दल तेलुगूदेशम को गठबंधन का मतलब धीरे-धीरे समझ आ रहा है। मायावती के बाद यूएनपीए का वही मजबूत घटक है। आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम की दमदार वापसी के आसार बन रहे हैं। वहां विधानसभा चुनाव भी लोकसभा के साथ होंगे, इसलिए तेलुगूदेशम को फायदा होगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि यूएनपीए के सभी घटक दल बसपा, तेलुगूदेशम, इनलोद, रालोद, अगप एनडीए सरकार के साथ थे। चुनावों के बाद अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना न बनी, तो ये सभी दल फिर से एनडीए की सरकार बनवा सकते हैं।
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