देशभक्ति नहीं होगा हार-जीत का पैमाना

Publsihed: 20.Jul.2008, 20:55

मनमोहन सिंह को पहले ही पता था कि लोकसभा में उनकी सरकार के भाग्य का फैसला एटमी करार से देश को नफे-नुकसान के आधार पर नहीं होगा, अलबत्ता जोड़तोड़ और नए गठबंधन ही सरकार के भाग्य का फैसला करेंगे।

लोकसभा में मनमोहन सरकार के भाग्य का फैसला करते समय सांसद जब वोट डालेंगे, तो देशभक्ति पैमाना नहीं होगा। वैसे एटमी करार पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही देशभक्ति की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन दस फीसदी सांसदों ने भी गहराई में जाकर करार को समझने की कोशिश नहीं की। संभवत: दोनों पक्षों के पचास के करीब सांसद ही ऐसे निकलेंगे, जिन्होंने भारत-अमेरिका एटमी करार से जुड़े 1954 के अमेरिकी परमाणु ऊर्जा एक्ट, उसकी धारा वन-टू-थ्री, हाईड एक्ट और आईएईए के साथ एटमी रिएक्टरों की निगरानी के लिए होने वाले सेफगार्ड का ड्राफ्ट पढ़ा हो। मोटे तौर पर करीब सौ पेज के इन चार दस्तावेजों को पढ़ने पर साफ हो जाएगा कि करार देश हित में है या देश को अमेरिका के चंगुल में फंसाने वाला। लेकिन हमारे सांसदों को पढ़ने की फुर्सत नहीं। यह सवाल फिर खड़ा होता है कि हमें अपने सांसद कैसे चुनने चाहिए। अब जबकि हमने लोकसभा में चुने जाने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं की है, तो राजनीतिक दलों का फर्ज बनता था कि वे अपने सांसदों का शिविर लगाकर करार के बारे में उन्हें देश के नफे-नुकसान की जानकारी देते। हमारा लोकतंत्र अभी अमेरिका की तरह परिपक्व नहीं हुआ, जहां राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेट उम्मीदवार रिपब्लिक गवर्नर की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि अगर वह राष्ट्रपति चुने गए, तो उन्हें अपनी प्रशासनिक टीम में शामिल करेंगे। अगर हम अमेरिका की तरह परिपक्व लोकतंत्र होते, तो संसद भवन की बालयोगी सभागार में एक दिन अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा करार की खामियां गिनाते, दूसरे दिन प्रणव मुखर्जी, कपिल सिब्बल करार के फायदे गिनाते और सभी दलों के सांसदों के लिए इन चारों की क्लास में हाजिरी जरूरी होती। अगर हम अमेरिकी लोकतंत्र होते, तो सभी ड्राफ्ट समय रहते जनता के सामने रख दिए जाते और मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विपक्ष की ओर से मनोनीत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की एटमी करार पर सार्वजनिक बहस होती।

मनमोहन सिंह को देखकर राजनीतिज्ञ के प्रधानमंत्री होने और नौकरशाह के प्रधानमंत्री होने में फर्क साफ दिखाई देता है। राजनीतिक प्रधानमंत्री कभी भी देश की संसद में किए गए वादे को दरकिनार करके इस तरह कोई राजनीतिक-कूटनीतिक फैसला नहीं करता। जबकि मनमोहन सिंह ने पिछले तीन सालों में एटमी करार पर कई बार हुई बहस के दौरान संसद से जो-जो वादे किए, उनकी झलक हाईड एक्ट, वन-टू-थ्री, सेफगार्ड ड्राफ्ट में दिखाई नहीं दे रही। फिर भी उन्होंने एटमी करार पर जिद पकड़ ली। मनमोहन सिंह ने संसद में वादा किया था कि करार से भारत और अमेरिका को एक जैसे अधिकार और फायदे होंगे, एक जैसी जिम्मेदारियां और फर्ज होंगे। प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि सेफगार्ड एटम बम संपन्न देशों और गैर एटम बम वाले देशों के इतर भारत के लिए खासतौर पर सेफगार्ड बनाए जाएंगे। लेकिन ये सभी वादे पूरे नहीं हो रहे हैं, क्योंकि सेफगार्ड का ड्राफ्ट हू-ब-हू वही है, जो गैर एटमी बम वाले देशों पर लागू होता है। इस तरह अमेरिकी अधिकारियों का यह दावा सच होता दिखाई दे रहा है कि एटमी करार के जरिए भारत एनपीटी के दायरे में आ गया है। इंदिरा गांधी से लेकर वाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों ने एनपीटी को भेदभावपूर्ण करार देते हुए नामंजूर कर दिया था, तो ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी थी कि मनमोहन सिंह ने देश के एटमी हथियार संपन्न होने के बावजूद भारत को गैर एटमी देश कबूल कर लिया है। डेमोक्रेट पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बाराक ओबामा ने यह कहते हुए एटमी करार का समर्थन किया है कि यह एनपीटी पर दस्तखत करने के बराबर है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह संसदीय लोकतंत्र के महत्व को समझ ही नहीं रहे हैं, अन्यथा संसद के दोनों सदनों में एटमी करार के मुद्दे पर समर्थन नहीं मिलने के बाद वह आगे कदम नहीं उठाते। जुलाई 2007 में संसद के दोनों सदनों में एटमी करार पर बहस के जवाब से असंतुष्ट होकर विपक्ष के साथ सरकार का समर्थन कर रहे सांसदों ने वाकआउट किया था। दोनों सदनों में सरकार स्पष्ट अल्पमत में दिखाई दी थी। मनमोहन सिंह की जगह कोई भी राजनीतिक प्रधानमंत्री होता, भले ही वह प्रणव मुखर्जी या अर्जुन सिंह होते, तो वह करार के लिए इस तरह जिद नहीं करते। लोकतंत्र की ताकत से अनभिज्ञ सोनिया गांधी की जगह कांग्रेस का भी कोई और अध्यक्ष होता, तो कांग्रेस मनमोहन सिंह को इस हद तक जाने नहीं देती। कांग्रेस और यूपीए को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला था, जबकि 1999 के चुनावों में स्पष्ट बहुमत मिलने के बावजूद 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के दबाव को दरकिनार करके संसद की भावना को समझते हुए इराक में फौज नहीं भेजी थी।

लेकिन मनमोहन सिंह ने करार की जिद इसलिए की क्योंकि वह जानते थे कि उनकी सरकार के भाग्य का फैसला एटमी करार से देश को नफे-नुकसान के आधार पर होना ही नहीं। लोकसभा में बहुमत का फैसला तो संसद से बाहर जोड़तोड़ और सौदेबाजी पर आधारित होगा। इसलिए अब हम देख रहे हैं कि तीन सांसदों वाले चंद्रशेखर राव लोकसभा में समर्थन के बदले तेलंगाना राज्य मांग रहे हैं। निर्दलीय सांसद थुप्सत्न चेवांग बदले में लद्दाख की स्वायत्ता या केंद्र शासित क्षेत्र बनाने की और बिस्मुत्थारी अलग बोडोलैंड की शर्त रख रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री रहे हरदन हल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा भी कर्नाटक की राजनीति से जुड़ी तुच्छ सी शर्तें रख रहे हैं। अजित सिंह ने भी मौके का फायदा उठाकर मंत्री पद मांग लिया, शिबू सोरेन इस मौके पर अपना पुराना हिसाब चुकता करने और विश्वास मत से पहले केंद्र में मंत्री पद की शपथ दिलाने पर अड़ गए। मनमोहन सिंह अकाली दल से समर्थन के बदले अपने सिख होने की दुहाई देते हुए दिखाई दिए। समाजवादी पार्टी की मुलायम सिंह- अमर सिंह जोड़ी ने अपने समर्थक औद्योगिक घराने को राजनीतिक फायदा पहुंचाने की शर्त पर समर्थन दे दिया है। मनमोहन सिंह ने सारी लोक-लाज को दरकिनार कर अमर सिंह के इशारे पर काम करना शुरू भी कर दिया। कुल मिलाकर देश का नफा-नुकसान उन सांसदों का पैमाना नहीं है, जिनके वोट से मनमोहन सिंह की सरकार बचेगी या जाएगी। ऐसी हालत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक केसी सुदर्शन का यह विचार बेमाने हो जाता है कि सांसदों को व्हिप जारी नहीं किया जाना चाहिए ताकि वे अपनी अंर्तात्मा की आवाज सुनकर वोट कर सकें। राष्ट्रपति के चुनाव में जब गोपनीय मतदान हो रहा था, जब तब किसी ने अंर्तात्मा के आधार पर वोट नहीं किया, तो अब किसी से कैसे उम्मीद की जा सकती है। अंर्तात्मा का सवाल तो तब पैदा होता है, जब देश के नफे-नुकसान पर फैसला होना हो, देश का नफा-नुकसान तो लोकसभा में मतविभाजन का पैमाना ही नहीं रहा। मान लो, व्हिप जारी न भी किया जाए तो भी कौन अपने नेताओं को नाराज करके अपना टिकट कटवाने का जोखिम उठाएगा। अब जबकि लोकसभा में लाल-पीले-हरे मॉनिटर साफ बता रहे होंगे कि किसका वोट किसके पक्ष में गया है, तो अंर्तात्मा की आवाज का कोई मतलब नहीं रह गया है। दलबदल कानून में हुए संशोधनों के फायदे भी हैं, नुकसान भी। अब जबकि लोकसभा का बाकी कार्यकाल सिर्फ नौ महीने रह गया है, तो टिकट कटने के आशंकित सांसदों और अपनी पार्टी के टिकट पर हारने से आशंकित सांसद दलबदल का बेहतरीन मौका समझकर फायदा उठाने की फिराक में हैं। कोई चार-आठ महीनों में होने वाले चुनावों का खर्चा वसूल कर रहा है, तो कोई अपनी टिकट पक्की कर रहा है, एटमी करार पर देशभक्ति का इम्तिहान नहीं है विश्वास मत।

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