चमक-चमक कर चूके चतुर सुजान

Publsihed: 07.Jul.2008, 05:57

कांग्रेस ने वामपंथी दलों को चार साल तक इस्तेमाल करके कूड़ेदान में फेंक दिया है। सारी दुनिया में अमेरिका विरोध का डंका बजाने वाले वामपंथी ठगे से रह गए हैं। कांग्रेस ने उन्हीं की वैसाखियों का इस्तेमाल करके अमेरिका के साथ दोस्ती का नया अध्याय शुरू कर दिया है। राजनीति में सही समय पर सही फैसला लेने का क्या मतलब होता है, यह वामपंथी दलों को अब समझ आ गया होगा। वामपंथी दलों को जुलाई 2005 में उस समय फैसला करना चाहिए था, जब न्यूनतम साझा कार्यक्रम को दरकिनार करके मनमोहन सिंह ने अमेरिका से एटमी करार किया था। सुविधावादी राजनीति और सिध्दांतवादी राजनीति एक साथ नहीं चल सकती। माकपा महासचिव प्रकाश करात पिछले तीन साल से दोनों में तालमेल करके राजनीति की नई परिभाषा लिखने की कोशिश कर रहे थे।

कांग्रेस ने वामपंथियों का चालाकी से इस्तेमाल करते हुए तीन साल गुजार दिए। अब जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और मनमोहन सिंह की सरकारों का कार्यकाल खत्म होने वाला था। एटमी करार के आर-पार का समय आ गया, तो कांग्रेस ने वामपंथी दलों की वैसाखी फेंककर समाजवादी पार्टी की वैसाखी पकड़ ली। पिछले साल तक वामपंथी यूपीए सरकार गिराने की स्थिति में थे, तब समाजवादी पार्टी एटमी करार के मुद्दे पर उनके साथ थी। लोकसभा के 545 में से 300 सांसद एटमी करार के खिलाफ थे। इन सांसदों ने एटमी करार पर बहस के समय लोकसभा में अपने बहुमत का इजहार भी किया था। वामपंथी दल उसी समय अपना रुख साफ कर लेते तो आज उन्हें यह दिन नहीं देखने पड़ते। उस समय उनके पास दो विकल्प थे, आज एक भी विकल्प नहीं बचा। पहला विकल्प यह था कि एटमी करार के मुद्दे पर सरकार गिरा देते। दूसरा विकल्प यह था कि संसद से एक ऐसा प्रस्ताव पास करवाते, जिसके तहत अमेरिका से एटमी करार पर संसद से मंजूरी लेना लाजमी करवा देते। भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, कांग्रेस नेता नटवर सिंह, सपा नेता अमर सिंह और माकपा नेता सीताराम येचुरी ने मिलकर ऐसे प्रस्ताव का प्रारूप तैयार करने की योजना भी बनाई थी। लोकसभा में नियम-184 के तहत बहस करवाकर सरकार के हाथ बांधे जा सकते थे। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार के हाथ बांधने के लिए नियम-184 के तहत बहस का नोटिस देने के बाद माकपा महासचिव प्रकाश करात को फोन भी किया था। वामपंथी दल उसी समय अपने सिध्दांतों के प्रति गंभीरता दिखाते, तो अपनी पार्टी के सांसद और स्पीकर सोमनाथ चटर्जी से आडवाणी का नोटिस मंजूर करवाकर नियम-184 के तहत बहस करवा लेते। भारतीय जनता पार्टी से इतनी ही एलर्जी थी, तो आडवाणी ने प्रकाश करात को वामपंथियों के नोटिस पर बहस करवाने की पेशकश भी की थी। लेकिन ऐन वक्त पर वामपंथी दल पीछे हट गए और स्पीकर ने भी नोटिस नामंजूर कर दिया।

एटमी करार पर वामपंथी दलों की नीति शुरू से ही ढुलमुल रही। एक तरफ वे करार की पूरी तरह मुखालफत करते रहे, दूसरी तरफ कांग्रेस से बातचीत भी करते रहे। वामपंथी दलों से पूछा जाना चाहिए कि अगर उन्हें अमेरिका से सामरिक-सैन्य संबंधों पर एतराज था, तो उन्होंने मनमोहन सरकार को आईएईए से बातचीत करने की इजाजत क्यों दी। जब शादी करने की इच्छा नहीं हो, तो दुल्हन देखने जाने की जरूरत क्या होती है। जहां तक कांग्रेस और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सवाल है, तो उनके इरादे शुरू से साफ थे। मनमोहन सिंह ने तो 2007 में दो टूक शब्दों में कह दिया था कि वह अमेरिका के साथ एटमी करार के मुद्दे पर किसी भी हालत में पीछे नहीं हटेंगे, वामपंथी दलों को समर्थन वापस लेना हो तो ले लें। वामपंथी दलों के पास उस समय भी समर्थन वापस लेने का मौका था। तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, जिसका कांग्रेस से छत्तीस का आंकड़ा बना हुआ था। वामपंथी दल अगर उस समय अपनी वैसाखी हटा लेते, तो मनमोहन सरकार धड़ाम से गिर जाती। वामपंथी दल सही समय पर सही फैसला नहीं ले सके। समाजवादी पार्टी ने कई बार वामपंथी दलों पर यूपीए सरकार गिराने और तीसरा मोर्चा बनाने का दबाव डाला। लेकिन जब वामपंथी दलों ने मुलायम सिंह को हतोत्साहित किया, तो उन्होंने खुद यूएनपीए बना लिया। वामपंथी दल दो नावों पर सवार होकर राजनीति करते रहे। एक तरफ वे यूपीए के साथ थे, तो दूसरी तरफ यूएनपीए के साथ भी प्यार की पीगें बढ़ा रहे थे। बिना वामपंथियों के तीसरे मोर्चे की राजनीति हो नहीं सकती थी, और वामपंथी कांग्रेस को छोड़कर तीसरे मोर्चे की राजनीति का फैसला नहीं कर पा रहे थे। उत्तर प्रदेश चुनावों से ठीक पहले जब कांग्रेस के समाजवादी पार्टी से रिश्ते टूट चुके थे, उस समय यूपीए सरकार गिराने और तीसरे मोर्चे की राजनीति शुरू करने का सबसे सही वक्त था। लेकिन वामपंथियों ने तब भी सही फैसला नहीं किया। खुद को चतुर सुजान समझने वाले सिर्फ धमकियां ही देते रहे। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने सारे समीकरण बदल दिए। मुलायम सिंह दोनों तरफ से फंस गए थे, एक तरफ कांग्रेस उसकी जान की दुश्मन बनी हुई थी, तो दूसरी तरफ मायावती ने भ्रष्टाचार के मामलों में बखिया उधेड़नी शुरू कर दी थी। चंद्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला, बाबूलाल मरांडी और गोस्वामी जैसे तीसरे मोर्चे के क्षेत्रीय नेता मुलायम का बचाव करने के काबिल ही नहीं थे। जब ऐसे आडे वक्त में भी वामपंथियों ने मुलायम का साथ नहीं दिया, तो वह अब उनका साथ क्यों देते। मुलायम ने न ओढ़ने लायक बचे, न बिछाने लायक बचे वामपंथियों को दरकिनार कर उस एटमी करार का समर्थन कर कांग्रेस का दामन थाम लिया, जिसका वह पिछले तीन साल से विरोध कर रहे थे। इससे जाहिर है कि मौजूदा राजनीतिज्ञों के लिए देशहित कितना महत्वपूर्ण है। राममनोहर लोहिया अपने समाजवादी वंशज की इस सुविधाजनक राजनीति पर स्वर्ग में बैठे आंसू बहा रहे होंगे।

सिध्दांतों की राजनीति का दम भरने वाले वामपंथी और समाजवादी दोनों ही नंगे हो गए हैं। दोनों ने भारतीय जनता पार्टी से डरकर अपने सिध्दांतों को तिलांजलि दी और अब एक-दूसरे को कोस रहे हैं। अमेरिका से एटमी करार का समर्थन मुलायम के मुस्लिम वोट बैंक पर भारी पड़ सकता है, यह भनक मुलायम सिंह को भी है, इसीलिए उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को मुस्लिम वोट बैंक के लिए ढाल की तरह इस्तेमाल किया है। अब्दुल कलाम तो पहले भी एटमी करार का समर्थन कर रहे थे, क्या मुलायम सिंह को तब समझ नहीं आई थी। जहां तक अब्दुल कलाम का सवाल है, तो उनकी दलील यह है कि भारत को परमाणु परीक्षण की जरूरत पड़ी तो वह जब चाहें करार से बाहर आ सकता है। उनकी इस दलील से साफ है कि एटमी परीक्षण करने पर एटमी करार खत्म हो जाएगा। भारत खुद बाहर आए, या अमेरिका एटमी करार को खत्म करे, दोनों ही हालत में नुकसान भारत का ही होगा, क्योंकि भारत के एटमी रिएक्टर बिना यूरेनियम के कबाड़ बन जाएंगे, तब तक भारत का चालीस हजार करोड़ रुपया बर्बाद हो चुका होगा। शुरू में यूरेनियम की बजाए थोरिमय का इस्तेमाल करके बिजली उत्पादन की वकालत करने वाले अब्दुल कलाम ने अपने रुख में परिवर्तन क्यों किया, यह समझ से बाहर है। एटमी करार के खिलाफ वामपंथियों की रैली में भाषण देने वाले मुलायम सिंह और अमर सिंह ने अपने तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को ढाल बनाकर उन राष्ट्रीय हितों की तिलांजलि दे दी, जिनकी दुहाई देकर वह एटमी करार की मुखालफत कर रहे थे। एटमी करार के रास्ते में अब कोई रुकावट नहीं, मनमोहन सिंह और जार्ज बुश अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले करार को अंतिम रूप दे देंगे। भारत के एटमी ताकत बनकर संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता हासिल करने का सपना भले ही चूर-चूर हो गया, लेकिन भारतीय राजनीति में एक बात तो अच्छी होगी कि लोकसभा चुनाव अब त्रिधु्रवीय नहीं, अलबत्ता दो धु्रवीय ही होगा। तीसरे मोर्चे की अकाल मृत्यु लोकतंत्र को मजबूत बनाने में सहायक हो, तो अच्छा ही होगा। पर क्या भरोसा, लोकसभा चुनावों के बाद सेक्युलरिज्म के नाम पर फिर सभी इकट्ठे नहीं होंगे। आखिर सेक्युलरिज्म के नाम पर इन सभी ने देश को अमेरिकापरस्त तो बना ही डाला। पिछले साठ सालों में किसी भी सरकार ने देश की रणनीतिक स्वायत्तता को नुकसान नहीं पहुंचाया, जितना वामपंथियों के समर्थन से मनमोहन सरकार ने पहुंचा दिया।

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