अमेरिका का मानना है कि भारत और चीन पेट और पेट्रोल पर सबसे ज्यादा दबाव बढ़ा रहे हैं। इन दोनों देशों को अपनी आबादी को काबू में लाना होगा। सार्क सम्मेलन में भी इस बार यही अहम मुद्दा होगा।
पंजाब प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले थे। दलित समुदाय के इस नेता ने प्रधानमंत्री को सुझाव दिया कि लोकसभा चुनाव को नजदीक देखते हुए सरकार को किसानों की तरह दलितों के कर्ज भी माफ कर देने चाहिए।
मायावती के बढ़ते प्रभाव और देशभर की आरक्षित सीटों पर भाजपा का वर्चस्व बढ़ने के बाद मनमोहन सिंह को कांग्रेस के उस नेता की दलील पर गंभीरता से गौर करना चाहिए था। जबकि मनमोहन सिंह ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि देश आर्थिक आपातकाल का सामना कर रहा है और आप देश पर नया बोझ डालने की बात कर रहे हैं। किसानों का कर्ज माफ करने के बावजूद कर्नाटक का चुनाव हारने के बाद लोक-लुभावन योजनाएं अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मूड खराब कर देती हैं। यह तो समय ही बताएगा कि किसानों की कर्जमाफी का बोझ कितने सालों में उतरेगा, लेकिन मनमोहन सिंह ने देश के आर्थिक आपातकाल के हालात का सनसनीखेज खुलासा किया है। भले ही मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के उस नेता को डराने के लिए ऐसा कहा हो, ताकि वह कहीं यही फार्मूला सोनिया गांधी के कानों में न डाल दे, लेकिन इस बहाने उनके भीतर का डर उजागर हो गया। पिछले कुछ दिनों से लगातार इस तरह के संकेत मिल रहे हैं कि देश आर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहा है, लेकिन सरकार असलियत जनता के सामने रखने से बच रही है। मनमोहन सिंह ने पेट्रोलियम पदार्थो की कीमत बढ़ाते समय जिस तरह देश को संबोधित किया था, उससे भी यही संकेत मिला था।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने दस साल के राजनीतिक सफर के सबसे बुरे दिनों का सामना कर रही हैं। बताने वाले उन्हें बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां आम आदमी के हक में नहीं हैं, जिस कारण कांग्रेस को लगातार विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है। वामपंथी दल भी लगातार मनमोहन सिंह की आर्थिक और विदेशी नीतियों पर बार-बार चेतावनी देते रहे हैं, इसके बावजूद ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम की उन दलीलों से सहमत हैं कि महंगाई विश्वव्यापी समस्या है। एक साल पहले अपने हरियाणा दौरे के दौरान अमेरिका से हुए एटमी करार का समर्थन करने पर जब वामपंथियों ने कड़े तेवर दिखाए थे तो सोनिया गांधी ने लंबे समय तक चुप्पी साधे रखी। लेकिन अब उन्होंने अपने असम दौरे के दौरान न सिर्फ एटमी करार को देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए जरूरी बताया है अलबत्ता हाल ही में बढ़ाई गई पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों को भी सरकार की मजबूरी बताकर खुला समर्थन किया है। हालांकि सोनिया गांधी बाखूबी जानती हैं कि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमत का सीधा असर आम आदमी पर पड़ा है, जो उन पर भरोसा लगाए बैठा था।
सोनिया गांधी ने भी अब इंदिरा गांधी की तरह महंगाई को दुनियाभर की समस्या बताना शुरू कर दिया है। मौजूदा महंगाई की वजह अंतरराष्ट्रीय हलचल होने के बावजूद घरेलू भी है। केंद्र सरकार आने वाले संकट को समय रहते भांप नहीं पाई, अगर ऐसा होता तो आर्थिक नीतियों को देश की जरूरत के मुताबिक सही समय पर बदला जा सकता था। जैसे वायदा व्यापार को लेकर कांग्रेस ने अपनी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार को कोसना शुरू कर दिया। जबकि एनडीए सरकार के समय खाद्यान्न पदार्थो की अथाह भंडार भरे पड़े थे। इसलिए उस समय वायदा व्यापार शुरू करना सरकार की अक्लमंदी थी, लेकिन जब दुनियाभर में खाद्य पदार्थो की कमी का अंदेशा होने लगा था, तो सरकार को वक्त रहते वायदा व्यापार पर रोक लगा देनी चाहिए थी। जबकि सरकार ने प्यास लगने के बाद कुआं खोदना शुरू किया और इस देरी का ठीकरा चार साल पहले सत्ता छोड़ चुके एनडीए के सिर फोड़ना चाहा।
यह ठीक है कि देखते-देखते अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें सत्तर डालर प्रति बैरल से बढ़कर 138 डालर प्रति बैरल हो गई हैं। इसकी एक वजह दुनियाभर में बढ़ रही आबादी का पेट्रोलियम पदार्थो पर दबाव है। अंतरराष्ट्रीय आंकड़ों के मुताबिक 1994 से 2006 तक पेट्रोलियम पदार्थो की मांग में सिर्फ पौने दो फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी हो रही थी, जो अब बढ़कर दुगुनी से भी ज्यादा हो गई है। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में आबादी के हिसाब से ही पेट्रोलियम पदार्थो की खपत सबसे ज्यादा बढ़ी है। पेट्रोलियम खपत का आंकलन करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का मानना है कि 2006 से लेकर 2030 तक के पच्चीस सालों में दुनिया में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत में 34 फीसदी की बढ़ोत्तरी होगी। इस बढ़ोत्तरी का सबसे बड़ा कारण भारत और चीन होगा, जबकि विकासशील देशों में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत में कटौती शुरू हो गई है। अकेले चीन में 1996 से 2006 तक दस सालों में खपत दुगुनी हो गई है। भारत के बारे में अनुमान है कि अगर 2005 को आधार वर्ष माना जाए तो 2020 में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत तीन गुना हो जाएगी। अमेरिका की ऊर्जा सूचना प्रशासन कमेटी की सालाना रपट के मुताबिक भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर विकास होने, शहरीकरण बढ़ने और जीवनस्तर में सुधार के कारण खपत बढ़ रही है। दुनियाभर में बढ़ रही आबादी का दबाव न सिर्फ पेट्रोलियम पदार्थो, अलबत्ता कृषि उत्पादों पर भी पड़ रहा है। यही वजह है कि दुनियाभर में कृषि उत्पादों की कीमत भी बढ़ रही है। अगले पच्चीस सालों में अपनी जनता को भरपेट भोजन और जरूरत के मुताबिक ऊर्जा उपलब्ध करवाने में दुनिया के कई देशों की आर्थिक हालत खस्ता हो सकती है। संभवत: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारत के बारे में ऐसी स्थिति का आंकलन कर रहे हैं, जो उन्होंने दलितों के कर्जमाफी के सुझाव पर उजागर किया है।
अगस्त के पहले हफ्ते में श्रीलंका में होने वाले सार्क सम्मेलन का मुख्य एजेंडा भरपेट भोजन और पेट्रोल होगा। यह हालात पिछले तीन चार महीनों में पैदा हुए हैं, जबकि पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली में ही हुए सार्क देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में आतंकवाद को सम्मेलन का मुख्य मुद्दा मानकर बात की जा रही थी। श्रीलंका के विदेश मंत्री पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सार्क सम्मेलन का न्योता देने आए तो उन्होंने इस बात का खुलासा किया है कि फूड-पेट्रोल और महंगाई सार्क सम्मेलन में चर्चा का मुख्य मुद्दा रहेंगे। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत तय करने में सार्क देशों की कोई अहम भूमिका नहीं है, पेट्रोलियम पदार्थो की कीमत का असर महंगाई पर भी पड़ेगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबावों का सामना सही आर्थिक और कृषि नीतियों से किया जा सकता है। भारत का किसान भारत के हर पेट को पर्याप्त भोजन उपलब्ध करवाने में समर्थ है, लेकिन यूरोपीय देशों के दबाव में कृषि उत्पादों पर सब्सिडी नहीं बढ़ाई जा रही है, जिसका असर किसान के जीवन पर पड़ रहा है। अगर सरकार अंतरराष्ट्रीय दबावों को दरकिनार करके कृषि उत्पादों पर किसान की सब्सिडी बढ़ाए तो किसानों के कर्जमाफी करने के हालात ही पैदा नहीं होंगे। हाल के सालों में किसानों ने गेहूं-चावल की बजाए नकदी फसल पर जोर दिया है, जिस कारण पिछले दो सालों में भारत को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ा। नतीजतन सरकार को निर्यात पर रोक लगानी पड़ी, अलबत्ता विदेशों से घटिया क्वालिटी का अनाज आयात करना पड़ा। लेकिन श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश निर्यात पर अचानक रोक लगा दिए जाने जैसे कदमों से बेहद खफा हैं, इसलिए खाद्यान्न-पेट्रोल और महंगाई सार्क का मुख्य मुद्दा बनने जा रहा है।
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