खाद्यान्न समस्या का दूसरा पहलू

Publsihed: 03.May.2008, 20:39


अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भारत के नव धनाढय मध्यम आय वर्ग को पेटू बताकर कुछ नया नहीं कहा। यही बात भारत के मंत्री प्रफुल्ल पटेल पहले ही कह चुके हैं।

बड़े पेट के भरन को है रहीम देख बाढ़ि
यातें हाथी हहरि कै दप दा दांत दे काढ़ि

कविवर रहीम कहे हैं कि जो आदमी बड़ा है वह अपना दु:ख अधिक दिन तक छुपा नहीं सकता। क्योंकि उसकी संपन्नता लोगों ने देखी होती है, जब उसके रहन-सहन में गिरावट आने लगती है तो उसके दु:ख का फौरन पता चल जाता है। हाथी के दो दांत इसलिए बाहर निकले होते हैं, क्योंकि वह अपनी भूख बर्दास्त नहीं कर सकता। एक ब्लाग पर पढ़ा रहीम का यह दोहा अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर हू-ब-हू लागू होता है।

जार्ज बुश का कहना है कि अमेरिका जैसे देश में खाद्य पदार्थों की कमी भारत में मध्यम वर्ग की ओर से ज्यादा अनाज खाने के कारण पैदा हुई है। रहीम के शब्दों में अमेरिका अनाज की कमी के दु:ख को बर्दास्त नहीं कर पा रहे और उनका दर्द उनकी जुबान पर आ गया है।
जार्ज बुश के इस बयान पर राजनीतिक बवाल खड़ा हो गया है, लेकिन उन्होंने कोई अनोखी बात नहीं कही है। उन्होंने उसी बात को दोहराया है जिसे कुछ दिन पहले सोनिया गांधी के लाड़ले मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने कहा था। प्रफुल्ल पटेल का कहना था कि भारत में लोग ज्यादा खाने लगे हैं इसलिए खाद्यान्न की कमी शुरू हो गई है। मौजूदा संसद सत्र के दौरान प्रफुल्ल पटेल के इस बयान पर कड़ी आपत्ति दायर की गई। बाद में इसी बयान में अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस ने दोहराया और उन्होंने भारत के साथ चीन को भी जोड़ दिया। कोंडालिजा राइस के बयान पर भारत में प्रफुल्ल पटेल के बयान से भी ज्यादा आपत्ति उठाई गई, क्योंकि किसी भी अन्य देश को इस तरह की टिप्पणीं करने का कोई हक नहीं बनता। कोंडालिजा राइस के बयान को उतनी ज्यादा गंभीरता से भी नहीं लिया गया, फिर भी विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा ने आपत्ति तो दायर की ही। अब अमेरिका के राष्ट्रपति का बयान कम से कम वामपंथियों को घोर आपत्तिजनक लग रहा है। अमेरिका के साथ दोस्ती बढ़ा रहे मनमोहन सिंह के लिए जार्ज बुश का बयान घरेलू राजनीति में नए संकट से कम नहीं है। हालांकि जार्ज बुश ने अपने जिस भाषण में भारत के मध्यम वर्ग के पेटू हो जाने की बात कही है, उसी भाषण में उन्होंने भारत के मध्यम वर्ग के संपन्न होने से अमेरिका को होने वाले फायदे भी गिनाए हैं। ऐसा लगता है जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति बुश को समझ नहीं आ रहा कि भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता से अमेरिकी उत्पादों की बिक्री बढ़ने से अमेरिका को फायदा होगा या अनाज की कमी से अमेरिका को फायदे से ज्यादा नुकसान होगा। असल में अमेरिका चाहता है कि उसका फायदा तो हो लेकिन भारत से अनाज के निर्यात में कोई कमी न आए। दूसरे शब्दों में अमेरिकी राष्ट्रपति शायद यह कहना चाहते हैं कि भारत का नव धनाढय मध्यम वर्ग अपने खान-पान पर ज्यादा पैसा खर्च करने की बजाए अमेरिकी उत्पादों पर खर्च करे। जिससे अमेरिका को अनाज की कमी भी न हो और अमेरिकी उत्पादों से अमेरिकी उद्योगपतियों को फायदा भी हो। अमेरिकी राष्ट्रपति ने उद्योगपतियों के सामने अपने भाषण में कुछ इस तरह कहा- 'विकाशील देशों में संपन्नता बढ़ रही है, यह अच्छी बात है, यह आपके लिए भी अच्छी बात है क्योंकि आप इन विकासशील देशों में अपने उत्पादों की ज्यादा बिक्री कर पाएंगे। आपको पता ही है कि बड़े देशों के लिए उन देशों में अपने उत्पादों की बिक्री करना कितना मुश्किल है, जो संपन्न नहीं हैं। दूसरे शब्दों में विकासशील देश जितना संपन्न होंगे, अमेरिकी उद्योगपतियों को वहां उतना ही बड़ा मौका मिलेगा। लेकिन यह स्वाभाविक ही है कि जैसे-जैसे संपन्नता आती है, बेहतर खाने की मांग भी बढ़ती है। इसी वजह से खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ रही हैं।'
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की बात में दम है, लेकिन अमेरिका को भारत में अनाज की खपत पर टिप्पणीं करने का कोई हक नहीं है क्योंकि भारत ने अमेरिकियों का पेट भरने का ठेका नहीं ले रखा है। अमेरिका खुद क्या कर रहा है, या यूरोपीय देशों में क्या हो रहा है, इस पर भी नजर दौड़ाना जरूरी है। अमेरिका में घटिया किस्म का लाल गेहूं पैदा होता है, जो अमेरिकी खुद नहीं खाते, अलबत्ता जानवरों को खिलाते हैं। यूरोप में बेहतर गेहूं पैदा होता है लेकिन डब्ल्यूटीओ के सब्सिडी पर प्रहार की वजह से वहां गेहूं की फसल लगातार घट रही है और यूरोप के किसान मक्के जैसे अनाजों की खेती पर जोर दे रहे हैं, जो बायोफ्यूल में इस्तेमाल हो रही हैं। बिल्कुल यही हाल अमेरिका का है, जार्ज बुश यह मानने को तैयार नहीं हैं कि अमेरिका में एथनॉल पैदा करने वाले कृषि उत्पाद बढ़ रहे हैं, इसलिए खाद्यान्न की कमी हो रही है। सच्चाई यह है कि किसानों को गेहूं से कम फायदा होता है, एथनॉल बनाने वाले उत्पादों से ज्यादा फायदा होता है। लेकिन सवाल खड़ा होता है कि कोंडालिजा राइस और जार्ज बुश ने भारत और चीन में खाद्यान्न की खपत बढ़ने का सवाल खड़ा क्यों किया। सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या भारत सरकार के मंत्री प्रफुल्ल पटेल अमेरिका की कठपुतली की तरह काम कर रहे थे? आने वाले दिनों में अमेरिका अगर भारतीय किसानों से सीधे अनाज खरीदने की छूट मांगने का प्रस्ताव लेकर आए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
जहां तक भारत में मध्यम वर्ग की ओर से खाद्यान्न की खपत बढ़ाने का सवाल है, तो अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के बयान को नकारा भी नहीं जा सकता। लेकिन अमेरिका को भारत के मध्यम वर्ग को पेटू कहने का हक इसलिए नहीं बनता क्योंकि दुनियाभर की सभी रिपोर्टो की यह कहा जा रहा है कि अमेरिकी खा-खाकर मोटापे का शिकार हो रहे हैं। भारत में सदियों-सदियों से बांटकर खाने की परंपरा चली आई है। गांवों में हर संपन्न घर से कम से कम दो-तीन गरीब परिवारों का पेट भरता रहा है। भारत में खान-पान की यह संस्कृति रही है कि थाली में जूठन नहीं छोड़ा जाता, लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका में जितना जूठन हर रोज समुद्र में बहा दिया जाता है, उससे तो करोड़ों गरीबों का पेट भरा जा सकता है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति सैंतीस सौ कैलोरी खाना खाया जाता है, जबकि सत्ताईस सौ कैलोरी पर्याप्त होता है। भारत में तो अभी प्रति व्यक्ति चौबीस सौ कैलोरी खाना भी उपलब्ध नहीं हो रहा है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाली आधी आबादी को दो हजार से भी कम कैलोरी उपलब्ध हो रही है। अमेरिका में ज्यादा खाने के बाद कैलोरी बर्न करने के लिए हर घर में एक्ससाइज करने वाली मशीनें लगी होती हैं, जबकि भारत में ऐसी मशीनें इस्तेमाल करने वालों की तादाद एक फीसदी भी नहीं। एक तरफ ज्यादा कैलोरी खाकर उसे बर्न करने की समस्या और दूसरी तरफ भारत में पर्याप्त कैलोरी भोजन उपलब्ध नहीं। इसलिए अमेरिका को भारत की गरीबी के साथ इस तरह मजाक करने का कोई हक नहीं बनता। आखिर देश की एक तिहाई मध्यम आय वर्ग वाली आबादी ही सारा अनाज चट नहीं कर जाती। हां, यह तथ्य है कि नई आर्थिक नीतियों के बाद देश के एक तिहाई लोग संपन्नता की सीढ़ी चढ़ रहे हैं, जबकि दो तिहाई लोग और गरीब होते जा रहे हैं। देश की आबादी अगर इस समय 120 करोड़ के आसपास हो, तो करीब चालीस करोड़ की आबादी उच्च आय वर्ग और मध्यम आय वर्ग में आएगी, जबकि अस्सी करोड़ लोग आज भी मुफलिसी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जार्ज बुश के मुताबिक भारत की पैंतीस करोड़ मध्यम आय वर्ग की आबादी ने अपना खान-पान सुधार लिया है, जिस कारण भारत में खाद्यान्न पदार्थों की खपत बढ़ गई है। उन्होंने यह भी कहा है कि जहां भारत में पैंतीस करोड़ मध्यम आय वर्ग की आबादी है वहां अमेरिका की तो कुल आबादी ही इतनी है। यह सच है कि शहरी लोगों ने अपने खान-पान की आदतें बदली हैं और घरों में खाद्य पदार्थों की खपत में बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन दूसरी तरफ बुंदेलखंड जैसे भारतीय इलाके भुखमरी का शिकार भी हो रहे हैं। सच यह भी है कि दुनियाभर के कुपोषण के शिकार बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारतीय होते हैं।

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