अरुण जेटली ने जिस भी राज्य में चुनाव की बागडोर संभाली, सफलता हासिल की। गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब के अलावा 1998 का हिमाचल चुनाव और 2006 का दिल्ली नगर निगम चुनाव भी इसका उदाहरण। राजनाथ सिंह ने अरुण जेटली को गुजरात का प्रभार नहीं देकर उनका कद घटाने की कोशिश की, लेकिन जब खुद नरेंद्र मोदी ने उन्हें ही विधानसभा चुनाव का प्रभारी बनाने की मांग की तो पार्टी अध्यक्ष के पास कोई चारा नहीं था। अरुण जेटली भी यही चाहते थे, आखिर यह एक तरह से राजनाथ सिंह की हार थी। लेकिन चुनाव प्रभारी बनने के बाद अरुण जेटली के सामने मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। उन्हें उम्मीद थी कि वह अपने प्रभाव से बागियों को नियंत्रित कर लेंगे, लेकिन सुरेश भाई मेहता और वल्लभ कथेरिया दशकों पुराना साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने को तैयार हो गए हैं। अगर अरुण जेटली इन्हें नहीं रोक पाए तो चुनाव निराशा के दौर से शुरू होगा। ऐसी स्थिति को टालने के लिए पार्टी के दूसरे महासचिव और गुजरात के प्रभारी ओम माथुर बीमारी के बावजूद दिन-रात एक किए हुए हैं। जबकि नरेंद्र मोदी विरोधी केशुभाई पटेल का दिल्ली वाला सरकारी बंगला बागी गतिविधियों का केंद्र बन गया है, यह बंगला अरुण जेटली के सरकारी बंगले से ज्यादा दूर नहीं।
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