भारत की ताकत का लोहा चीन ने माना

Publsihed: 14.Jan.2008, 21:24

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा को काफी हद तक सफल कहना उचित रहेगा। ऐसे बहुत कम मौके आते हैं, जब किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के दूसरे देश की यात्रा के दौरान कोई विवाद खड़ा होता हो। हाल ही के वर्षों की ऐसी दो घटनाएं तो गिनाई जा सकती हैं। पहली घटना डेनमार्क की है, जब डेनमार्क के प्रधानमंत्री एंडर्स फोग ने भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपयी के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस के समय भारत से सीमा पर तनाव घटाकर पाकिस्तान से बातचीत करने की गुहार लगाई। विवाद इतना जोर पकड़ गया था कि भारत ने कड़ा एतराज जताया और अगले दिन की साझा प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री फोग ने पाकिस्तान पर घुसपैठ रोकने का दबाव बनाने की बात कही।

दूसरी घटना आगरा की है, जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने कश्मीर में आतंकवाद के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को स्वतंत्रता सेनानी कहकर पुकारा था। इस बात का खामियाजा उन्हें तुरंत भुगतना पड़ा था और बिना साझा बयान के उल्टे पांव लौटना पड़ा था। वह इतने हताश हो गए थे कि उन्होंने अजमेर शरीफ की यात्रा भी रद्द कर दी थी।

1962 के बाद भारत और चीन में काफी बदलाव आ चुका है। भारत का नेतृत्व काफी परिपक्व हो चुका है और चीन भी बदले जमाने की कूटनीति को बेहतरीन ढंग से अंजाम दे रहा है। दोनों देशों की परिस्थितियों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि चीन की तरह अब भारत भी परमाणु शस्त्र संपन्न देश बन चुका है। 1962 के जंग के समय भारत की फौज गए जमाने की बंदूकों के साथ लड़ रही थी, जबकि अब भारत ने हाल ही में तीन हजार किमी मारक क्षमता वाली अग्नि-3 का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है। डीआरडीओ के अध्यक्ष वीके श्रीवास्तव चीन दौरे के समय प्रधानमंत्री मनमोहन के साथ थे, श्रीवास्तव ने 8 जनवरी को विशाखापट्टनम में भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत अगले साल पांच हजार किमी मारक क्षमता वाली अग्नि-3 प्लस का परीक्षण करेगा। स्वाभाविक है यह मारक क्षमता चीन को प्रभावित करेगी क्योंकि बाकी सब पड़ोसी देशों के लिए इतनी मारक क्षमता की कोई जरूरत नहीं। इसलिए कोई भी देश सीमा पर इतना तनाव पैदा करने की हिमाकत नहीं कर सकता कि छोटी-मोटी घुसपैठ पूर्णरूपेण युध्द का रूप ले लें। हालांकि एक सच्चाई यह है कि पिछले साल 2006 में चीन की तरफ से भारतीय क्षेत्र में 140 बार एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) का उल्लंघन किया गया। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौरे से ठीक पहले विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस उल्लंघन को मामूली घटना करार दिया, लेकिन यह उल्लंघन इतना मामूली भी नहीं है।

जनता सरकार के समय जब अटल बिहारी वाजपेयी विदेशमंत्री थे, तो उन्होंने गतिरोध तोड़ते हुए फरवरी 1979 में चीन की यात्रा की थी, उन्हीं के न्योते पर चीन के तत्कालीन विदेशमंत्री हुआंग हूओ 1981 में भारत आए तो दोनों देशों में व्यापार शुरू करने के साथ-साथ सीमा विवाद हल करने पर भी सहमति बनी। दोनों मुद्दों पर आठ दौर की बातचीत के बाद 1988 में राजीव गांधी चीन गए तो इन्हीं दोनों मुद्दों पर तीव्र गति से काम को आगे बढ़ाने के लिए संयुक्त कार्यदल गठित किए गए। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने पर चीन के साथ रिश्तों में मिठास घुली, जिसका श्रेय काफी हद तक नरसिंह राव को भी जाता है। जो खुद प्रधानमंत्री रहते हुए चीन गए थे और व्यापारिक रिश्ते शुरू हो चुके थे। अटल बिहारी वाजेपयी ने अपनी जून 2003 की चीन यात्रा के दौरान सबसे बड़ी उपलब्धि यह हासिल की थी कि चीन ने सिक्किम पर दावा छोड़ दिया था और यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह भविष्य में कभी भी आबादी वाले क्षेत्रों पर कोई दावा नहीं करेगा। इसके बावजूद मनमोहन सिंह के शासनकाल में सीमा विवाद को प्राथमिकता नहीं दिए जाने और व्यापार को ज्यादा प्राथमिकता दिए जाने का नतीजा यह निकला कि नवंबर 2006 में जब चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ भारत आने वाले थे तो चीन के राजदूत सू युक्शी ने अरुणाचल प्रदेश पर दावा जता दिया। लेकिन हू जिंताओ के भारत आने तक विवाद ठंडा पड़ चुका था और बाद में चीन ने सू युक्शी को वापस बुलाकर झियांग येन को नई दिल्ली में अपना राजदूत बनाया। दूसरी तरफ चीन ने सिक्किम में हो रहे निर्माण पर एतराज जताया, जबकि सीमा पर तिब्बत की तरफ बड़ी तीव्र गति से सड़क और रेलवे का निर्माण किया जा रहा है, माओवादी प्रभाव वाली नई नेपाल सरकार ने रेल मार्ग को नेपाल तक लाने की मांग कर दी है, जो भारत के लिए निश्चित ही चिंता का विषय होना चाहिए, लेकिन मनमोहन सिंह की यात्रा से ठीक पहले विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने इसे हल्के से लेते हुए कहा कि दोनों तरफ विकास कार्य जारी हैं। हालांकि रक्षामंत्री एके एंटनी ज्यादा फिक्रमंद दिखाई देते हैं जिन्होंने सीमा पार विकास की गति को समझते हुए सिक्किम के सीमांत प्रांतों में इंफ्रास्टक्चर बढ़ाने की जरूरत बताई है।

राजीव गांधी, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी व्यापार के अलावा सीमा विवाद को तीव्र गति से हल करने पर जोर दे रहे थे, लेकिन यह मनमोहन सिंह की प्राथमिकता नहीं है। मनमोहन सिंह की प्राथमिकता व्यापार की है। जैसा कि मनमोहन सिंह ने 14 जनवरी को दोनों देशों के व्यापारिक प्रतिनिधि मंडलों को संबोधित करते हुए इस बात पर खुशी जताई है कि 2008 तक चालीस बिलियन डालर व्यापार का लक्ष्य है 2007 में ही पूरा कर लिया गया है और अब 2010 तक 60 बिलियन डालर का लक्ष्य तय किया गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह व्यापार एकतरफा हो रहा है, चीन से 30 बिलियन डालर का आयात हो रहा है जबकि उसके मुकाबले निर्यात 9 बिलियन डालर कम है। पिछले तीन सालों में व्यापारिक असंतुलन की वजह मनमोहन सरकार का चीन की तरफ झुकाव वाले वामपंथी दलों के समर्थन की निर्भरता है। अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते मनमोहन सरकार चीन पर इस असंतुलन को दूर करने का दबाव नहीं बना पा रही है। अमेरिका के साथ हुए एटमी करार को सिरे चढ़ाने के लिए वामपंथी दलों के समर्थन की दरकार के चलते मनमोहन सरकार रूस और चीन को खुश करने में लगी है। अक्टूबर में आईएईए प्रमुख अल बरदई की सलाह पर मनमोहन सिंह ने चीन के साथ रिश्तों में गरमाहट लाते हुए नवंबर में पहली बार दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों ने 'नोट एक्सचेंज' किए। दिसंबर में कुमिंग में भारत-चीन की सेनाओं का पहला संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यास हुआ और चौदह जनवरी को चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ से सहमति हुई है कि अगले साल दोनों देशों की फौजें फिर से संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यास करेंगी। तेईस महीनों की चुप्पी के बाद दिसंबर 2007 में चीन के साथ रणनीतिक बातचीत भी शुरू कर दी गई। भले ही चीन रवाना होने से पहले मनमोहन सिंह का कहना था कि इस मुद्दे पर बातचीत का अभी मौका नहीं आया है, यह मौका परमाणु ईंधन सप्लाई गु्रप (एनएसजी) के साथ भारत की बातचीत के समय होगा, लेकिन सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की चीन यात्रा का असली मकसद यही था और वह काफी हद तक सफल हो गया जब चीन ने भारत के साथ परमाणु ऊर्जा पर सहयोग देने का ऐलान कर दिया। यह भारत के आर्थिक और सैन्य तौर पर शक्ति संपन्न होने का नतीजा है कि चीन ने मनमोहन सिंह की यात्रा के दौरान न सिर्फ परमाणु ईंधन की सप्लाई में इच्छा जताई अलबत्ता संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सीट के लिए भारत के दावे पर भी सकारात्मक संकेत दिया। मनमोहन सिंह और वेन जियाबाओ की बातचीत के बाद जारी छह पेज के साझा दस्तावेज में सीमा विवाद हल करने के लिए एमके नारायणन और दाई बिंगुओ पर आधारित विशेष प्रतिनिधियों की कमेटी तय राजनीतिक मानदंडों के तहत जल्द ही बातचीत को पूर्ण करेंगे, ताकि आज तनाव की रेखाएं भविष्य की शांति और मित्रता की रेखाएं बन सकें। साझा दस्तावेज में हथियारों की बढ़ती होड़ को खत्म करने और परमाणु परीक्षण के खिलाफ भी राय प्रकट की गई है। लेकिन चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को भुलाकर बिना सतर्कता के आगे बढ़ना कोई अक्लमंदी नहीं होगी, 1954 में जवाहर लाल नेहरू ने भी चीन जाकर ऐसा ही समझौता किया था और 1962 में जो कुछ हुआ, वह सबके सामने। इसलिए याद रखना चाहिए 'नजर हटी, दुर्घटना घटी'

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