श्रीनगर के लाल चौक में आतंकवादियों ने और हुबली के ईदगाह मैदान में अंजुमन-ए-इस्लाम नाम के स्थानीय संगठन ने राष्ट्रीय ध्वज फहराने की मुखालफत की थी। इस गणतंत्र दिवस से पहले सुप्रीम कोर्ट ने ईदगाह मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की सारी अड़चनें दूर कर दी हैं।
अगले हफ्ते गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील इंडिया गेट पर आयोजित शानदार समारोह में राष्ट्रीय ध्वज फहराएंगी। राष्ट्रीय ध्वज फहराना क्या कभी अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना हो सकता है? ऐसा सोचने पर भी रूह कांप उठती है। गणतंत्र दिवस के मौके पर ऐसी दो घटनाओं को याद करना बेहद जरूरी होगा। बीस साल पहले 1990 में आतंकवादियों ने लाखों कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से बाहर निकालने की सफलता के बाद श्रीनगर के लाल चौक में पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया था। उन्होंने चुनौती दी थी कि कोई भी पाकिस्तानी ध्वज को उतारकर भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराकर दिखाए।
जम्मू कश्मीर की पुलिस और भारत सरकार लुंज-पुंज दिखाई देने लग गई थी और ऐसा लगता था कि कश्मीर को देश का हिस्सा बनाए रखना अब मुश्किल होगा। तब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा शुरू की और छब्बीस जनवरी 1992 को गणतंत्र दिवस पर उसी लाल चौक में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का ऐलान किया। उस समय केंद्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार थी, जिसने मुरली मनोहर जोशी को श्रीनगर जाने से रोकने की कोशिश की, ताकि लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज न फहराया जा सके। सरकार को डर था कि अगर लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया तो आतंकवादी और उनके अल्पसंख्यक समर्थक भड़क उठेंगे। लेकिन मुरली मनोहर जोशी के अड़ जाने और उन्हें रोकने पर देशभर में आक्रोश की आशंका को देखते हुए सरकार ने उन्हें सड़क मार्ग की बजाए विमान से ले जाकर झंडा फहराने की रस्म अदायगी करवाई। मुरली मनोहर जोशी ने अपनी यात्रा के दौरान देशभर के लोगों को आह्वान किया था कि वे गणतंत्र दिवस में जहां-जहां संभव हो, ज्यादा से ज्यादा संख्या में राष्ट्रीय ध्वज फहराकर राष्ट्रभक्ति का वातावरण निर्मित करें। मुरली मनोहर जोशी के उसी आह्वान के तहत हुबली के नागरिकों ने भी छब्बीस जनवरी 1992 को किटूर रानी चेन्नमा मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का फैसला किया।
जम्मू कश्मीर की बात अलग थी, वहां पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों का दबदबा कायम हो गया था। लेकिन कर्नाटक के हुबली शहर के किसी मैदान में गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। लेकिन हुबली के किटूर रानी चेन्नपा मैदान को अपनी मलकियत बताने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के संगठन अंजुमन-ए-इस्लाम ने सचमुच विरोध कर दिया था। मैदान पर मलकियत का विवाद अपनी जगह था, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के किसी संगठन को गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के मौकों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का विरोध करने की बजाय स्वागत करना चाहिए था। कई बार ऐसे संगठन गलत कदम उठाकर अल्पसंख्यक समुदाय की राष्ट्रभक्ति को चौराहे पर खड़ा कर देते हैं। अंजुमन-ए-इस्लाम की धमकियों से डरकर कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस बंगारप्पा ने हुबली के किटूर रानी चेन्नमा मैदान में झंडा फहराने की कोशिश करने वालों को गिरफ्तार करने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया। मुख्यमंत्री का तर्क था कि गणतंत्र दिवस पर वहां झंडा फहराने से अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। राष्ट्रीय ध्वज फहराना क्या कभी अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना हो सकता है? लेकिन यह सच है कि हुबली में अल्पसंख्यकों की भावनाओं को सचमुच ठेस पहुंच गई थी और बेहद तनाव का वातावरण बन गया था। अल्पसंख्यकों की भावनाओं को शांत करने के लिए पुलिस ने अपने मुख्यमंत्री का हुक्म बजाने के लिए स्थानीय नागरिकों की ओर से फहराए गए झंडे को उतारकर उनके सामने तार-तार कर दिया था। मुख्यमंत्री के हुक्म से 1971 के राष्ट्रीय सम्मान सुरक्षा कानून का उल्लंघन उन्हीं लोगों ने किया, जिनकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय सम्मान की सुरक्षा करने की थी। इस कानून में कहा गया था कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर सार्वजनिक स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने में अड़चन बनने वाले व्यक्ति को तीन साल तक की कैद हो सकती है। इस गणतंत्र दिवस से पहले हुबली के इस किटूर रानी चेन्नमा मैदान में झंडा फहराने को लेकर कोई विवाद नहीं था। लेकिन जब पुलिस ने उन्हें झंडा फहराने से रोका तो हुबली के लोगो ने मिलकर राष्ट्रीय ध्वज रक्षा समिति का गठन करके पंद्रह अगस्त को भी झंडा फहराने का ऐलान कर दिया। भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद एक बूढ़ी महिला ने मैदान में जाकर झंडा गाड़ दिया और फौरन राष्ट्रगान शुरू कर दिया। पुलिस ने भागकर उस बूढ़ी महिला को धक्का देकर गिरा दिया और राष्ट्रीय ध्वज उखाड़ दिया। अगले साल छब्बीस जनवरी 1993 को फिर वही दोहराया गया, पंद्रह अगस्त 1993 को राज्य की कांग्रेस सरकार ने वहां सेना और बीएसएफ तैनात कर दी ताकि कोई राष्ट्रीय ध्वज न फहरा सके। कर्नाटक विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था कि हुबली में राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोकने के लिए सरकार ने तीन करोड़ चालीस लाख खर्च किए। भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों ने इसे आंदोलन के तौर पर लिया और छब्बीस जनवरी 1994 को उस समय की भारतीय युवा मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष उमा भारती ने खुद वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराने का ऐलान किया। कर्नाटक की सत्ता तब तक एस बंगारप्पा के हाथ से निकलकर वीरप्पा मोइली के हाथ में आ चुकी थी। लेकिन सरकार की नीति में कोई फर्क नहीं आया, मोइली सरकार की पुलिस ने राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोकने के लिए वहां कर्फ्यू लगा दिया। इसके बावजूद हजारों लोग हुबली के इस मैदान में पहुंचे और झंडा फहराया गया। जिसे रोकने के लिए पुलिस ने गोली चला दी थी जिसमें छह लोग मारे गए। हुबली चार-पांच साल तक स्वतंत्रता संग्राम का अखाड़ा बना रहा।
छब्बीस जनवरी 1994 को हुई हिंसा कर्नाटक और देश की राजनीति के इतिहास में राष्ट्रीय ध्वज आंदोलन के तौर पर याद की जाएगी। राज्य की सरकार लोगों को वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए सिर्फ इसलिए रोक रही थी क्योंकि स्थानीय अल्पसंख्यकों का संगठन अंजुमन-ए-इस्लाम इसका विरोध कर रहा था। अंजुमन-ए-इस्लाम के विरोध का आधार यह था कि वह जगह सार्वजनिक नहीं, अलबत्ता अंग्रेजी शासन ने उन्हें 999 साल की लीज पर दी थी। अंजुमन-ए-इस्लाम 1973 में मुंसिफ कोर्ट और 1982 में सिविल कोर्ट और 1992 में हाईकोर्ट से मैदान की मलकियत का मुकदमा हार चुकी थी। इसके बावजूद कर्नाटक की सरकार अंजुमन-ए-इस्लाम पर काबू पाने में नाकाम थी, जबकि राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोशिश करने वालों को लगातार रोका जा रहा था। घटना के बाद उमा भारती पर आपराधिक मुकदमा दायर किया गया, जब वह मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बनी, तो कर्नाटक की सरकार ने इस मुकदमे को दुबारा से खोलकर उनके वारंट जारी करवा दिए थे। उमा भारती को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर आत्मसमर्पण करने की यात्रा शुरू करनी पड़ी। जबकि राष्ट्रीय ध्वज की लहर फिर पैदा होने के डर से राज्य की कांग्रेस सरकार ने मुकदमा वापस लेने का फैसला किया। संभवत: इस गणतंत्र दिवस को हुबली के किटूर रानी चेन्नमा मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने से कोई नहीं रोकेगा। इसकी वजह वहां सिर्फ भाजपा की सरकार होना नहीं, अलबत्ता पिछले हफ्ते चौदह जनवरी को ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने अंजुमन-ए-इस्लाम के इस दावे को पूरी तरह नकार दिया है कि 14 मई 1930 को ब्रिटिश सरकार ने किटूर रानी चेन्नमा मैदान उन्हें 999 साल की लीज पर दिया था। अलबत्ता कोर्ट ने कहा है कि ब्रिटिश सरकार ने एक रुपया सालाना फीस पर साल में दो बार बकरीद और रमजान के मौके पर सिर्फ नमाज अदा करने के लिए किराया तय किया था। जबकि अंजुमन-ए-इस्लाम ने मैदान को अपनी प्रापर्टी समझकर वहां पर मस्जिद और मार्किट तक बना डाली। अब अदालत के फैसले के बाद मैदान का सारा निर्माण तोड़ा जाएगा और साल में दो बार नमाज अदा करने के अलावा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ-साथ बाकी सार्वजनिक कार्यों के लिए भी इस्तेमाल होगा। जिस समय विवाद जोरों पर था, उस समय देशभर के अनेक तथाकथित बुध्दिजीवियों ने हुबली-धारवाड नगर पालिका की मलकियत वाले इस किटूर रानी चेन्नमा मैदान को ईदगाह मैदान साबित करने के लिए देशभर के अखबारों में न जाने कितने लेख लिखे। इन लेखों का उद्देश्य राष्ट्रीय ध्वज फहराने वालों को सांप्रदायिक साबित करना था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन सभी तथाकथित बुध्दिजीवियों को देश से माफी मांगनी चाहिए और हो सके तो उसी तरह हुबली में जाकर खुद राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहिए, जिस तरह पचास साल तक बंगाल में वामपंथियों का समर्थन करने के बाद अब उन्हें एहसास हो रहा है कि उन्होंने गलती की थी।
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