बांग्लादेश से मधुर संबंधों का वक्त

Publsihed: 11.Jan.2010, 10:05

पाक और भारत की अदालतों और राजनीतिज्ञों की मानसिकता एक सी। भारत और आस्टे्रलिया में अपराध एक से। कोपेनहेगन की गलती का एहसास धीरे-धीरे।

मेरे नाम और उल्फा उग्रवादी अनूप चेतिया के नाम में बहुत फर्क है। फिर भी 1991 में जब मैंने गुवाहटी जाने के लिए रेल टिकट आरक्षित करवाया, तो आईबी के लोग अगले दिन मेरे घर पहुंच गए थे। उन्हें लगा कि अनूप चेतिया ही नाम बदलकर टे्रन पर सफर कर रहा होगा। अब जबकि बांग्लादेश की नई प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत आई हैं तो उनकी सरकार के एक मंत्री अशरफ उल रहमान ने खुलासा किया है कि कट्टरपंथी खालिदा जिया की सरकार के समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ जब ढाका आए थे, तो उन्होंने शैरटन होटल में अनूप चेतिया से मुलाकात की थी।

अपने निर्माण के पहले चार साल छोड़कर बांग्लादेश हमारे लिए सिरदर्द बना रहा है। पिछले 39 साल में तीस साल तक कट्टरपंथियों का शासन रहा, इस दौरान बांग्लादेश पूर्वोत्तर के विदा्रेहियों का शरणस्थल बना रहा। शेख हसीना की आवामी लीग एक साल पहले ही दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में लौटी है।

शेख हसीना का भारत आना

बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के चार साल बाद ही 1975 में मुजीब्बर रहमान की हत्या कर दी गई थी। सैन्य विद्रोह के बाद शेख हसीना ने करीब पांच साल तक नई दिल्ली में निर्वासित जीवन बताया था। उनकी पार्टी आवामी लीग 1996 से 2001 तक दुबारा सत्ता में आई लेकिन कम बहुमत के कारण भारी दबावों में थी। इस बार दो तिहाई बहुमत से लौटी शेख हसीना ने भारत के साथ दोस्ती के पुराने संबंध बहाल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। एक साल के छोटे कार्यकाल में ही उन्होेंने उल्फा उग्रवादियों को पकड़कर भारत के हवाले करना शुरू कर दिया है। अपनी भारत यात्रा से महीनाभर पहले उल्फा प्रमुख अरविंद राजखोवा की भारत के सुपुर्द किया जाना भारत के पूर्वोत्तर में चल रहे आतंकवाद को खत्म करने की दिशा में बांग्लादेश के नए निजाम का सबूत है। वह पिछले एक साल में न सिर्फ खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के कट्टरपंथी विरोध का सामना कर रही हैं, अलबत्ता पाकिस्तान और सऊदी अरब भी दबाव बनाए हुए हैं। इसके बावजूद शेख हसीना ने बांग्लादेश को मुस्लिम शरीमत पर आधारित कट्टरपंथी देश की छवि से निकालना शुरू कर दिया है। शेख हसीना के भारत दौरे के दौरान आतंकवाद से संबधित तीन समझौतों के अलावा तीस्ता नदी जल विवाद और कृषि सहयोग के समझौते भी होंगे। अफगानिस्तान के बाद बांग्लादेश में भारत के अनुकूल सरकारों का आना शुभ लक्ष्य है।

भारत-पाक की अदालतें एक सी

यह हमारे लिए खुशी की बात है कि बीते साल कोई बड़ी आतंकवादी वारदात नहीं हुई। जम्मू कश्मीर भी अपेक्षाकृत पिछले सालों के मुकाबले बेहतर रहा। जबकि पाकिस्तान में आतंकवादी वारदातें भारत से यादा हुई हैं। यह हमारे लिए खुशी की बात नहीं है, लेकिन जब-जब पाकिस्तान में फिदायिन हमला होता है हमारे मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है- 'जो जैसा करता है, वैसा भरता है।' शुरू-शुरू में पाकिस्तान ने ब्लूचिस्तान में हो रही आतंकवादी वारदातों का ठीकरा हमारे सिर फोड़ने की कोशिश की। पाकिस्तान को ऐसा कहने का मौका खुद हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया था। जिन्होंने शर्म-अल-शेख के साझा बयान में बेवजह ब्लूचिस्तान को जोड़ने की इजाजत दे दी थी। शर्म-अल-शेख का बयान जरूर अमेरिकी दबाव का नतीजा था भले ही भारत सरकार इससे ना-नुकर करती रहे। उसी बयान में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कह दिया था कि आतंकवादी वारदातें भारत-पाक शांति वार्ता में बाधा नहीं बननी चाहिए। भारतीय संसद में भारी दबाव के बाद अब भारत सरकार का स्पष्ट नजरिया है कि पाकिस्तान जब तक मुंबई के हमलावरों पर ठोस कार्रवाई का सबूत नहीं देता। तब तक समग्र वार्ता नहीं होगी। पाकिस्तान की अदालतें और सरकार गिरफ्तार किए गए आतंकवादियों पर ठोस कार्रवाई करती दिखाई नहीं दे रही है, इसलिए समग्र बातचीत ठंडे बस्ते में पड़ी है। पाकिस्तान की अदालतें भारत की अदालतों और कानूनी प्रक्रिया से अलग नहीं है। पाकिस्तान में भी सरकार और राजनीतिक हुकमरानोें का नजरिया भारतीय हुकमरानों से अलग नहीं है। भारत की मौजूदा सरकार को लगता है कि संसद पर हमले की साजिश रचने वाले अफजल गुरु की फांसी उसके वोट बैंक को नुकसान कर सकती है, तो फैसला पांच साल से लटका कर रखा हुआ है। इसी तरह पाकिस्तान के हुकमरानों को लगता है कि मुंबई के हमलावरों पर कड़ी और तेजी से कराई गई कानूनी कार्रवाई उसे सत्ता से बेहदखल कर सकती है। कुल मिलाकर भारत और पाकिस्तान दोनों ही आतंकवाद के खिलाफ उतने ईमानदार नहीं हैं, जितना होना चाहिए। पाकिस्तान में अदालत हाफिज सईद को रिहा कर देती है, तो यह काम हमारी अदालतें भी कर रही हैं। कसूर अदालतों का नहीं। राजनीतिज्ञों के दबाव में जांच एजेंसियां पुख्ता सबूत अदालतों में पेश नहीं करती। पिछले हफ्ते ही देहरादून की भारतीय सैन्य अकादमी पर हमले की साजिश रचने वाले चार आतंकी बरी हो गए। पिछले हफ्ते ही यह खुलासा हुआ कि आतंकवादी गतिविधियों में सजा पूरी कर चुके तीन आतंकवादी लापरवाह पुलिस अधिकारी के कारण फरार हो गए।

कोपेनहेगन की गलती

भारत की विदेशनीति में अमेरिका का दबाव और असर लगातार बढ़ रहा है। सिर्फ शर्म-अल-शेख ही इसका उदाहरण नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अचानक ग्लोबल वार्मिंग सम्मेलन में जाना भी इसी ओर इशारा करता है। प्रधानमंत्री का वहां जाने का कोई कार्यक्रम नहीं था। कोपेनहेगन में हमने अचानक विकासशील छोटे गरीब देशों का साथ छोड़कर चीन-ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर अमेरिका के हितों की रक्षा करने वाले समझौते पर सहमति जता दी। जब सारे विकासशील और गरीब देश हमारे साथ थे, तो भारत को अचानक अपना स्टैंड बदलने की क्या जरूरत पड़ गई थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पर्यावरण रायमंत्री जयराम रमेश ने बार-बार पूछे जाने पर भी संसद में यह खुलासा नहीं किया कि भारत-चीन-ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की बैठक में अचानक आकर बाराक ओबामा ने क्या कहा था। आखिरकार वही हो गया, जो अमेरिका चाहता था। अमेरिका चाहता था कि विकसित देशों को क्योटो प्रोटोकाल से निजात मिल जाए। शुरू में जयराम रमेश हमें यह बताते रहे कि क्योटो प्रोटोकाल से कोई समझौता नहीं किया है। विकसित देशों पर क्योटो प्रोटोकाल लागू रहेगा। क्योटो प्रोटोकाल विकसित देशों पर यह बंदिश लगाता था कि वे 1990 के अपने लैवल से उत्सर्जन में पांच फीसदी की कटौती करेंगे। क्योटो प्रोटोकाल के बाद हुई बातचीत में विकसित देश इस बात पर भी राजी हो गए थे कि वे 1990 के स्तर से 25 से 40 फीसदी कटौती करेंगे ताकि तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से यादा बढ़ोत्तरी न हो। विकसित देश अपने इस वायदे से मुकरने का रास्ता खोल रहे थे और भारत ने अमेरिका की मदद की। कोपेनहेगन में विकासशील और छोटे गरीब देशों को धोखा देकर हमारे पर्यावरण मंत्री उस दस्तावेज पर दस्तखत कर आए हैं जिसमें विकसित देश अब इस 31 जनवरी को 2020 तक उत्सर्जन कटौती का अपना नया कार्यक्रम घोषित करेंगे। रायसभा में जब विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने आरोप लगाया था कि भारत ने विकसित देशों को क्योटो प्रोटोकाल से निजात पाने में मदद की है तो जयराम रमेश ने खंडन किया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तब चुप्पी साधकर बैठे थे जबकि बाद में उन्होंने मान लिया है कि कोपेनहेगन में क्योटो प्रोटोकाल को धक्का लगा है।

फर्क नहीं आस्टे्रलिया-भारत में

भारत सरकार के तीखे रुख के बावजूद आस्टे्रलिया में भारतीय मूल के छात्रों पर हमले रुक नहीं रहे हैं। अब ये हमले सिर्फ छात्रोें पर नहीं हो रहे, अलबत्ता वहां रह रहे अन्य भारतीय नागरिकों पर भी हो रहे हैं। नितिन गर्ग की हत्या की स्याही अभी सूखी नहीं थी कि जसप्रीत सिंह को जिंदा जलाने की खबर आ गई। आस्टे्रलिया में भारतीय मूल के लोगों पर हो रहे हिंसक हमलों का असर प्रवासी भारतीय सम्मेलन पर भी दिखाई दिया। इस बार फर्क यह है कि दोनों देशों की ओर से तीखी बयानबाजी शुरू हो गई है जिसका असर दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों पर भी पड़ेगा। आस्टे्रलिया की उपप्रधानमंत्री ने भारत पर भड़काने वाले बयान देने का आरोप लगाते हुए कहा कि दुनिया के किस बड़े शहर में आपराधिक घटनाएं नहीं हो रहीं। क्या आए दिन मुंबई में ऐसी घटनाएं नहीं होती। हम इस बयान को भले ही खारिज करें, लेकिन इस पर मनन करना जरूरी है। क्या हमारे जयपुर, पुष्कर, मुंबई शहरों और गोवा में विदेशी युवतियों से बलात्कार की घटनाएं कम हो रही हैं। अपने विदेशमंत्री एसएम कृष्णा भले ही शुरू में बड़े लुंज-पुंज दिखाई देते थे लेकिन उनका यह बयान गौर करने लायक है कि मध्यम वर्गीय भारतीयों को बाहर जाकर पढ़ने में इतनी दिलचस्पी क्यों है। यह बात सही है कि हमारे मध्यवर्गीय परिवारों में अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ाने का मोह है, जबकि भारत में कहीं बेहतर पढ़ाई उपलब्ध है। आस्टे्रलिया जैसे देश हमारे छात्रों को बाजार के ग्राहक की तरह देखते हैं और हम वर्क वीजा के लालच में खिंचे चले जाते हैं। विदेशी विश्वविद्यालय भी हमारे दरवाजे पर बाजार ढूंढने ही आ रहे हैं, जबकि दुनिया के हर कोने में भारतीय वैज्ञानिक और आईटी इंजीनियर ही अपना लोहा मनवा रहे हैं।

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