लघु ही सुंदर है

Publsihed: 14.Dec.2009, 09:31

पीएमके प्रमुख रामदौस भी राज्यों के विभाजन की दौड़ में शामिल हो गए हैं। तेलंगाना की मांग के हिंसक रूप लेने पर केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश के बंटवारे की बात सिध्दांतत: मंजूर कर ली। केंद्र का यह फैसला मक्खियों के छत्ते में हाथ मारने जैसा साबित हो रहा है क्योंकि लगभग हर राज्य में बंटवारे की मांग खड़ी हो गई है। पीएमके प्रमुख रामदौस ने दस साल पहले तमिलनाडु के विभाजन का आंदोलन शुरू किया था, लेकिन चारों तरफ से विरोध का सामना हुआ तो चुप्पी साध ली थी। अब देशभर में राज्यों के विभाजन की मांग उठने पर उन्होंने छोटे राज्यों के पक्ष में अंग्रेजी की एक कहावत का सहारा लेकर कहा है- 'स्माल इज ब्यूटीफुल।'

वैसे संविधान के मुताबिक किसी राज्य का विभाजन करने के लिए वहां की विधानसभा से प्रस्ताव पास होना जरूरी नहीं है। ऐसे प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है, लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड बनाते समय सरकार ने विधानसभा के प्रस्तावों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया था।

भाजपा तेलंगाना और विदर्भ का भी समर्थन करती थी, लेकिन दोनों राज्यों मे उसके पार्टनर तेलगूदेशम और शिवसेना विभाजन के खिलाफ थी, इसलिए विधानसभाओं के प्रस्ताव आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र विभाजन टालने की ढाल बने। संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक राज्यों के पुनर्गठन या सीमाओं के निर्धारण का फैसला राष्ट्रपति करते हैं। राष्ट्रपति इस बाबत पहले बिल विधानसभा को भेजते हैं और बाद में उसे पास करने के लिए संसद को सौंपते हैं। यूपीए सरकार अपने पहले कार्यकाल में आम सहमति का बहाना बनाकर तेलगाना की मांग टालती रही, हालांकि 2004 के चुनावों में तेलंगाना राष्ट्र समिति से वादा किया था। अब तेलंगाना आंदोलन के हिंसक रूप लेने और तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन से भयभीत होकर कांग्रेस आलाकमान ने तेलंगाना बनाने पर सहमति दे दी। बिना आम सहमति बनाए आनन-फानन में की गई विभाजन की घोषणा सरकार और कांग्रेस के गले में फंस गई है। एक तरफ आंध्र प्रदेश के बाकी दोनों हिस्से तटीय आंध्र और रायलसीमा में विरोध की ज्वाला भड़क गई है तो दूसरी तरफ तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश तक में बड़े राज्यों के विभाजन की मांग शुरू हो गई है।

दार्जिलिंग को पश्चिम बंगाल से अलग करने की मांग राजीव गांधी के शासनकाल में जोर पकड़ी थी। सुभाष घीसिंग का आंदोलन भी हिंसक रूप लेने लगा तो राजीव गांधी ने समझौता करके दार्जिलिंग पर्वतीय विकास परिषद का गठन कर मांग ठंडी कर दी थी। अब सुभाष घीसिंग का दौर खत्म हो चुका है और नए राज्य के निर्माण के लिए गोरखाजनमुक्ति मोर्चा का गठन हो चुका है। वह इतना प्रभावशाली है कि उसके समर्थन से भाजपा टिकट पर राजस्थान के जसवंत सिंह दार्जिलिंग से लोकसभा चुनाव जीत गए। सुभाष घीसिंग और राजीव गांधी में सेतु बनने वाले वरिष्ठ पत्रकार इंद्रजीत भी दोनों में समझौते के बाद दार्जिलिंग से चुनाव जीत गए थे। दार्जिलिंग वासियों की पश्चिम बंगाल सरकार से नाराजगी इन दोनों के दार्जिलिंग से चुनाव जीतने से ही स्पष्ट है। अगर हिंसक आंदोलन से ही राज्य हासिल किया जा सकता है तो तेलंगाना के बाद यह आग सबसे पहले दार्जिलिंग में भड़केगी, क्योंकि वहां जमीन तो पहले से ही तैयार है। आंदोलनकारियों ने तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष चंद्रशेखर राव की तरह आमरण अनशन की रूपरेखा बना ली है। दार्जिलिंग की मांग संसद में उठाने का वादा करके चुनाव जीतने वाले जसवंत सिंह ने कहा कि अगर नए छोटे राज्यों का निर्माण होना है, तो सबसे पहला हक दार्जिलिंग का है क्योंकि उसकी मांग सबसे पुरानी 1917 से की जा रही है।

उड़ीसा का विभाजन करके कौशल राज्य के निर्माण की मांग नए सिरे से शुरू होने की आशंका पैदा हो गई है। उड़ीसा के पिछड़े जिलों कालाहांडी, नौपाडा, संबलपुर, देयोगढ़, झारसुगुडा, बौध्द, बोलंगीर, सोनेपुर और सुंदरगढ क़ो मिलाकर कौशल राज्य बनाने की मांग भी पुरानी है। उल्लेखनीय है कि ग्यारहवीं सदी में उड़ीसा के इन्हीं जिलों और मौजूदा छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर आधारित कौशल स्टेट हुआ करती थी।

गुजरात के सबसे बड़े कच्छ जिले में तेलंगाना की तरह ही अलग राज्य की मांग बहुत पुरानी है। लेकिन यह मांग कभी आंदोलन का रूप नहीं ले सकी। कच्छ राजघराने के कुंवर विजय राज सिंह जडेजा जब सांसद बने थे तो उन्होंने अलग कच्छ राज्य की मांग उठाते हुए कहा था कि जवाहर लाल नेहरू ने एक बार मांग का समर्थन किया था।

फिल्मी कलाकार राजा बुंदेला उत्तर प्रदेश-मध्यप्रदेश सीमा पर स्थित पिछड़े भू-भाग बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर आंदोलन चला रहे हैं। इस क्षेत्र पर बुंदेला शासकों के शासन का इतिहास भी रहा है। पिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुनर्प्रवेश का द्वार बनाने की कोशिश कर रहे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी ने अलग बुंदेलखंड का समर्थन करके आंदोलन को हवा दे दी है। उन्होंने केंद्र सरकार से बुंदेलखंड को अलग से पैकेज दिलाकर अपनी भावी राजनीति के संकेत दे दिए थे। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी तेलंगाना मुद्दे पर बुरी फंसी कांग्रेस को और उलझाने के लिए बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को काटकर अलग से हरित प्रदेश बनाने की वकालत कर दी है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में विफल रहे चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह हरित प्रदेश की मांग करते रहे हैं।

कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को निकाल बाहर किए जाने और राज्य सरकार की ओर से जम्मू व लद्दाख के साथ भेदभाव को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक बार जम्मू कश्मीर को तीन राज्यों में विभाजित करने की मांग उठाई थी। हालांकि इस मांग को कभी समर्थन नहीं मिला लेकिन तेलंगाना की आग अब जम्मू में भी जा पहुंची है। कर्नाटक के कुर्ग, महाराष्ट्र के विदर्भ, बिहार के मिथिलांचल, असम के बोडोलैंड, गुजरात के सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी इलाकों को मिलाकर भोजपुर, बिहार के ही मिथिलांचल, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ इलाकों को मिलाकर ग्रेटर कूच बिहार आदि छोटे राज्यों की मांग समय-समय पर उठती रही।

पहला राज्य पुनर्गठन आयोग 1948 में बना था। आयोग को सिर्फ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, कोल, महाराष्ट्र के बारे में रिपोर्ट देने को कहा था। उत्तर भारत को एकदम अलग रखा गया, इससे सिख बेहद खफा थे, क्योंकि उनकी मांग भाषा आधारित पंजाबी सूबे की थी। सिखों ने पंजाबी सूबे के लिए आंदोलन तेज किया तो जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। लेकिन इस आयोग ने भाषा आधारित पंजाबी सूबा बनाने की सिफारिश से इनकार करते हुए पटियाला स्टेट और हिमाचल के पंजाब में विलय की सिफारिश कर दी थी। इस पर सिखों ने पंजाबी सूबे के लिए दस साल तक आंदोलन किया। जिसमें संत फतेसिंह के 22 दिन और मास्टर तारी सिंह के 48 दिन के अनशन के बावजूद जवाहर लाल नेहरू नहीं झुके थे। हालांकि इंदिरा गांधी को भाषा आधारित पंजाबी सूबा बनाना ही पड़ा था, जिसमें पंजाब के हिंदी भाषी अबोहर-फाजिलका और चंडीगढ़ का विवाद अभी तक लटका हुआ है।

अब जबकि देशभर में छोटे राज्यों की मांग जोर पकड़ रही है तो एक सवाल और भी खड़ा हो रहा है कि जगह-जगह और बार-बार के हिंसक आंदोलनों का सामना करने की बजाए क्यों न एक और राज्य पुनर्गठन आयोग बना दिया जाए। एक समय कांग्रेस तेलंगाना की मांग के सामने झुकने की बजाए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर आंदोलन को ठंडे बस्ते में डालने की सोच रही थी। लिब्रहान आयोग ने एक विवाद को 17 साल तक लटका कर किसी भी आंदोलन को ठंडे बस्ते में डालने का रास्ता दिखा दिया है। पिछली यूपीए सरकार में प्रणव मुखर्जी कमेटियां मामले को लटकाने का फार्मूला हुआ करती थी, लेकिन अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कार्यशैली थोड़ी अलग दिखती है। रणनीतिकारों ने उन्हें समझाया कि तेलंगाना बनाने से आंध्र प्रदेश में क्षत्रप की तरह उभर रहे जगन रेड्डी को खत्म करने में सहायता मिलेगी। इसके अलावा आंध्र में कांग्रेस के प्रमुख प्रतिद्वंदी चंद्रबाबू नायडू की राजनीति भी खत्म हो जाएगी और दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनेगी। इसलिए उन्होंने विवाद पर फौरन पानी डालने का फार्मूला निकाला, लेकिन तेलंगाना का ऐलान होते ही आंध्र प्रदेश में उठे बवाल ने कांग्रेस और सरकार की नींद उड़ा दी, तो धीमी गति से चलने की राह अपनानी पड़ी है। तेलंगाना का दावा पंजाबी सूबे की तरह अलग भाषा के आधार पर नहीं बनता क्योंकि तेलंगाना की भाषा भी तेलुगू ही है। हिंदी भाषी राज्यों को छोड़कर देश में बाकी किसी भी प्रादेशिक भाषा के दो राज्य नहीं हैं। तेलंगाना के पिछड़ेपन और अलग संस्कृति के आधार पर राज्य की मांग उठती रही है। यही आधार झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड का भी बना था, लेकिन इन तीनों राज्यों का निर्माण भारतीय जनता पार्टी ने करवाया था जो हमेशा से ही छोटे राज्यों के पक्ष में रही थी। जबकि कांग्रेस जवाहर लाल नेहरू के जमाने से ही बड़े राज्यों के पक्ष में रही है। कांग्रेस की दलील रही है कि पिछड़े राज्यों का अपने पैरों पर खड़ा होना संभव नहीं होगा जबकि बड़े राज्यों के हिस्से के रूप में पिछड़ेपन को दूर करने के उपाय किए जा सकते हैं। आंध्र प्रदेश के निर्माण के समय जवाहर लाल नेहरू ने तेलंगाना के विकास के लिए विशेष व्यवस्था का वचन दिया था। इस बावत बाकायदा छह सूत्री फार्मूला भी बना था जिसमें तेलंगाना के विकास और वहां के बेरोजगारों को रोजगार में कोटा तय करने की बात थी। याद करना बेहतर रहेगा कि मौजूदा आंध्र प्रदेश का निर्माण राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश के आधार पर हुआ था। तब तक तेलुगू भाषी इलाका मद्रास राज्य के अधीन था। राज्य  पुनर्गठन आयोग की सिफारिश से पहले 1952 में पोट्टा श्रीमुल्लू ने तेलुगू भाषी राज्य की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ा था। मद्रास के तेलुगू भाषी इलाके और हैदराबाद रियासत को मिलाकर आंध्र प्रदेश बनाया गया, मौजूदा तेलंगाना उस समय हैदराबाद रियासत का हिस्सा ही था। तेलंगाना में उस समय भी अलग राज्य की मांग उठी थी, लेकिन विकास का वायदा करके दबा दी गई, जो कभी पूरा नहीं हुआ। तेलंगाना का विकास नहीं होने के कारण नक्सलवादियों को अपने पांव जमाने में सफलता मिली। तटीय आंध्र और रायलसीमा पर तेलंगाना के शोषण का आरोप हमेशा लगता रहा।

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