शिवसेना पतन की ओर

Publsihed: 30.Nov.2009, 10:27

भतीजे राज ठाकरे के बाद अब पुत्रवधु स्मिता का भी बाल ठाकरे का साथ छोड़ने का फैसला। महाराष्ट्र में भाजपा गिरते ग्राफ वाली उध्दव की शिवसेना को अपना हमराही बनाए रखे, या उत्तर-दक्षिण भारत विरोधी राजठाकरे को नया हमराही बनाए। भाजपा के आगे कुआं है, तो पीछे खाई।

केशव सीताराम का जन्म महाराष्ट्र के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। फिर भी वह बड़े होनहार थे और उन्होंने 'प्रबोधन' नाम से एक पाक्षिक पत्रिका निकालकर मराठी भाषा और मराठी सभ्यता के लिए काम किया। हालांकि वह खुद मूलरूप से मराठी नहीं थे। पचास के दशक में जब मराठी भाषा और संस्कृति के आधार पर महाराष्ट्र राज्य निर्माण की मांग उठी तो केशव सीताराम और उनकी पाक्षिक पत्रिका ने उसमें अहम भूमिका निभाई थी। वह जातिवाद के कट्टर विरोधी थे और एक ऐसे महाराष्ट्र की कल्पना करते थे जिसका विकास तुच्छ राजनीतिक मुद्दों में न फंसे। वह संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन का हिस्सा ही नहीं, अलबत्ता अग्रणी नेता थे। मोरारजी देसाई मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल करने के खिलाफ थे लेकिन केशव सीताराम ठाकरे ऐसे मराठी भाषी राज्य की कल्पना करते थे जिसमें बहुभाषी मुंबई को भी शामिल किया जाए। ठीक उसी समय सीताराम ठाकरे के बेटे बाला साहेब ठाकरे ने मुंबई के अंग्रेजी अखबार फ्री प्रैस जनरल में कार्टूनिस्ट के तौर पर काम शुरू किया।

अपने पिता की विचारधारा से अलग बाला साहेब ठाकरे के कार्टूनों में भाषाई आंदोलन की बू शुरूआती दिनों में ही दिखने लगी थी। जब महाराष्ट्र का निर्माण हो रहा था ठीक उसी समय बाल ठाकरे ने 'मराठी' भाषा के विकास के लिए गुजराती और दक्षिण भाषियों के खिलाफ अपनी कलम चलानी शुरू की। मुंबई में उस समय भी गुजराती भाषियों का बोलबाला था, गुजराती भाषी मोरारजी देसाई मुंबई के मुख्यमंत्री थे। मराठी भाषियों और महाराष्ट्र के मूल निवासी महाराष्ट्रियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए बाला साहेब ठाकरे ने 19 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना की। शिवसेना का लक्ष्य मुंबई में आने वाले प्रवासी गुजरातियों, पंजाबियों, मारवाड़ियों और दक्षिण भारतीयों की बजाए मराठियों के लिए नौकरियों की लड़ाई लड़ना था। शिवसेना ने क्योंकि मराठियों को नौकरियां दिलाने, उनकी लड़ाई लड़ने का उद्देश्य तय किया था इसलिए कामगारों में शिवसेना की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। नतीजतन जल्द ही कम्युनिस्ट पार्टियों की मजदूर यूनियनों का वर्चस्व टूटना शुरू हो गया।

बाल ठाकरे ने मूल निवासियों के खास वर्ग को अपनी तरफ प्रभावित करने में सफलता हासिल करने के बाद बाकी राज्यों से निर्वासित मुसलमानों को निशाना बनाना शुरू किया। सत्तर के दशक में जहां एक तरफ शिवसेना गैर मराठी भारतीयों को निशाना बना रही थी, वहां बांग्लादेश बनने के बाद भारी तादाद मे बांग्लादेशियों के आने से मुंबई की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई, तो उन्होंने अपने आंदोलन का रुख बांग्लादेशी विरोध पर केंद्रित कर लिया। एक दशक के छोटे कार्यकाल में शिवसेना का आधार काफी बढ़ चुका था, यह वही वक्त था जब देश में बेरोजगारी बढ़ रही थी और उसका सर्वाधिक असर मुंबई जैसे महानगरों पर पड़ रहा था। बाल ठाकरे क्योंकि मूल निवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे इसलिए उनकी लोकप्रियता में जबरदस्त उछाल आया। उनके भाषण की शैली और उत्तेजना से लोग उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। बाल ठाकरे के घोर आलोचक और कांग्रेस के दिवंगत दिग्गज नेता वीएन गाडगिल यह कहने में जरा हिचकिचाहट नहीं करते थे कि बाल ठाकरे की वाक पटुता का कोई जवाब नहीं। वह उन्हें मराठी का कुशल वक्ता मानते थे जो लोगों के दिलों पर राज करता है। अयोध्या आंदोलन के समय बाल ठाकरे संघ परिवार के किसी नेता से कहीं ज्यादा उग्र हो गए थे। उन्होंने ताल ठोककर कहा था कि शिव सैनिकों ने बाबरी ढांचा तोड़ा है। जहां संघ परिवार के नेता ढांचा टूटने की वजह भीड़ का आक्रोश बता रहे थे वहां सिर्फ बाल ठाकरे ही थे जिन्होंने ढांचा तोड़ने की सार्वजनिक तौर पर जिम्मेदारी ली। शायद यही वजह थी कि उसकी सर्वाधिक प्रतिक्रिया भी मुंबई में हुई जहां दाऊद इब्राहिम और उनके गुर्गों ने बम धमाके करके सैकड़ों बेगुनाहों को शिकार बनाया था। इसकी प्रतिक्रिया में शिवसेना ने भी सांप्रदायिक दंगों का खूनी खेल शुरू किया जिसका 1995 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा दोनों को ही फायदा हुआ। शिवसेना ने जब भाजपा के साथ मिलकर 1995 में सत्ता हासिल कर ली तो बाल ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की कुर्सी ठुकरा कर नायाब उदाहरण पेश किया था। इससे उनकी ताकत कई गुणा बढ़ गई। वह बिना किसी सरकारी पद के महाराष्ट्र के बेताज बादशाह बन गए थे। सत्ता खो जाने के बाद शिवसेना और बाल ठाकरे का पतन शुरू हो गया जो अब तक जारी है। शिवसेना ने यूपीए के पहले शासन काल के दौरान महाराष्ट्र में बिहारियों की रेलवे में भर्ती को मुद्दा बनाकर उत्तर भारतीय बनाम मराठियों का टकराव पैदा किया। मराठी अस्मिता को उभारने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव में एनडीए के हिंदी भाषी उम्मीदवार भैरोंसिंह शेखावत का साथ छोड़कर कांग्रेसी मराठी भाषी उम्मीदवार प्रतिभा पाटील का समर्थन किया। लेकिन पार्टी में पारिवारिक विरासत की लड़ाई ने शिवसेना का ग्राफ और गिरा दिया। बाल ठाकरे के बेटे उध्दव ठाकरे और राज ठाकरे के बाद उनके बड़े बेटे जयदेव की विधवा स्मिता को पार्टी में जमीनी कार्यकर्ताओं से ज्यादा अहमियत देने से अंदर ही अंदर उठ रही चिंगारी लगातार भभकती रही थी। कभी छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस की राह पकड़ी तो कभी नारायण सिंह राणे ने कांग्रेस की राह पकड़ी। नारायण सिंह राणे का शिवसेना छोड़ने का कारण बाल ठाकरे की ओर से अपने बेटे उध्दव ठाकरे को तरजीह दिया जाना था। जबकि शिवसेना भाजपा सरकार के समय मनोहर जोशी के बाद नारायण सिंह राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। कोंकण में वह शिवसेना की रीढ़ की हड्डी थे। बाल ठाकरे पुत्र मोह में यह नहीं देख पाए कि पार्टी कार्यकर्ताओं से बनी है, सिर्फ पारिवारिक पार्टी नहीं है। वह जमीन से जुड़े अपने भतीजे राज ठाकरे को भी अपने साथ जोड़े नहीं रख सके। शिवसेना में हर कोई मानता था कि राज ठाकरे की सांगठनिक क्षमता बाल ठाकरे के बेटे उध्दव ठाकरे से ज्यादा है, लेकिन बाल ठाकरे पुत्र मोह का शिकार हो गए। राज ठाकरे के अलग होने के बाद शिवसेना का राजनीतिक ग्राफ लगातार गिर रहा है। राज ठाकरे के शिवसेना छोड़ने के बाद हुए लोकसभा चुनाव में शिवसेना को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन एक समय यह समझने लगे थे कि शिवसेना से किनारा करने का समय आ गया है। उनकी राज ठाकरे से गुपचुप मुलाकातें भी शुरू हो गई थी। शिवसेना में बंटवारे की स्थिति न होती तो 2005 के भाजपा अधिवेशन में बाल ठाकरे को बुलाकर सम्मानित किया जाता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता अधिवेशन के आखिरी दिन उध्दव ठाकरे और राज ठाकरे ने हाजिरी लगाई थी तो भाजपा नेताओं ने भविष्य की रणनीति के तहत दोनों को बराबर की अहमियत दी थी।

भाजपा के राजठाकरे से संबंधों में दूरी तब बढ़नी शुरू हुई जब राज ठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की जमीन खिसकाने के लिए उग्र तेवर अपनाने शुरू किए। राज ठाकरे का मकसद अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने और सत्ता तक पहुंचने की बजाए उध्दव ठाकरे की जमीन खिसकाना ज्यादा हो गया। इसके लिए पहले तो उन्होंने हिंदी भाषियों के खिलाफ जहर उगला और बाद में शिवसेना को चुनावों में धूल चटाने के लिए कांग्रेस का मोहरा बनने से भी परहेज नहीं किया। मराठी राजनीतिक इतिहासकार तो यहां तक कहते हैं कि बाल ठाकरे कांग्रेस में शरद पवार के मोहरे के तौर पर काम करते हुए मराठी राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे। तो उनका भतीजा भी उन्हीं के पद्चिन्हों पर चलकर कांग्रेस का मोहरा बनकर बाल ठाकरे की जमीन खिसका रहा है। राज ठाकरे अपनी रणनीति में कामयाब रहे हैं। उन्होंने शिवसेना को राज्य की चौथे नंबर की पार्टी बना दिया है, इस पारिवारिक लड़ाई का सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा और सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को हुआ है। राज्य में चौथे पाए पर पहुंचने के बाद अब बाल ठाकरे के परिवार में एक और दरार पैदा हो गई है। कभी राज ठाकरे और उध्दव ठाकरे से भी ज्यादा करीब समझे जाने वाली बाल ठाकरे की पुत्रवधु स्मिता ने शिवसेना के डूबते जहाज से उतरने का मन बना लिया है। वह अपने देवर उध्दव ठाकरे की रहनुमाई वाली शिवसेना छोड़कर दूसरे देवर राजठाकरे की पार्टी में जाने का संकेत देती तो इसे पारिवारिक राजनीतिक विरासत की लड़ाई का हिस्सा माना जाता, जैसा कि आंध्र प्रदेश में एनटीआर के परिवार में हुआ था, लेकिन वह तो शिवसेना की घोर विरोधी कांग्रेस की ओर रुख कर रही है, ठीक उसी तरह जैसे एनटीआर की बेटी पुरंदेश्वरी आखिरकार  कांग्रेस में शामिल होकर यूपीए सरकार में मंत्री हैं। राज ठाकरे ने खुद को बाल ठाकरे की विरासत का हकदार बनाना शुरू कर दिया है। भाजपा दुविधा में है कि वह उत्तर भारत और दक्षिण भारत विरोधी राज ठाकरे और डूबती नैय्या वाले उध्दव ठाकरे के अलावा किसी को चुन नहीं सकती। भाजपा आगे कुआं, पीछे खाई वाली हालत में है।

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