महाराष्ट्र-कर्नाटक राजनीतिक गिरावट का आईना

Publsihed: 09.Nov.2009, 00:23

कर्नाटक, महाराष्ट्र और हरियाणा तीनों राज्यों के उदाहरण हमारे सामने हैं। सियासत किस तरह व्यापारिक हितों की सीढ़ी बन चुकी है। हरियाणा में वक्त तय होने के बाद भी इसलिए शपथ ग्रहण नहीं हो सका क्योंकि सौदेबाजी सिरे नहीं चढ़ सकी। महाराष्ट्र में चुनाव नतीजे आने के चौदहवें दिन तक मलाईदार विभागों का लेन-देन सिरे नहीं चढ़ा। इसलिए नई सरकार का गठन होने में देर लगी। कर्नाटक में भाजपा के ही कुछ मंत्रियों ने अपने आर्थिक हितों में रुकावट बनने वाली सरकार को तलवार की धार पर लाकर खड़ा कर दिया।

अगर महाराष्ट्र में गैर कांग्रेसी सरकार बननी होती तो वहां गवर्नर की सिफारिश से राष्ट्रपति राज लग गया होता। उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी और बिहार में बूटा सिंह ने ऐसा ही किया था। अफसोस यह है कि मलाईदार मंत्रालयों का लेन-देन खुलेआम हो रहा है और संविधान का कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जो लूट-खसूट को रोक सके। इस लूट-खसूट को सिर्फ गवर्नर ही रोक सकता है, लेकिन गवर्नर अपने राजनीतिक आकाओं के इशारों पर काम करने के आदी हो गए हैं। अपने पूर्व राजनीतिक आकाओं को खुश करते रंगे हाथों पकड़े गए रामलाल ठाकुर, रोमेश भंडारी, बूटा सिंह सुप्रीम कोर्ट की डांट फटकार सह चुके हैं। इसके बावजूद गवर्नरों की कार्यशैली में कोई सुधार नहीं दिखता।

पिछली विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने या नई विधानसभा का गठन होने से मुख्यमंत्री के कार्यकाल का कानूनी संबंध कितना है। यह कानूनी मत्थापच्ची अपनी जगह है, लेकिन अशोक चव्हाण 23 अक्टूबर को नई विधानसभा गठन के चौदहवें दिन तक बिना दुबारा शपथ लिए मुख्यमंत्री बने हुए थे। कुछ कानूनविदों का मत है कि उनका दुबारा शपथग्रहण होना चाहिए था लेकिन न कांग्रेस इस मत की थी, न कांग्रेसी गवर्नर एस सी जमीर। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के देहांत के बाद रोसैया को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाकर भी तीन दिन तक पुराना मंत्रिमंडल काम करता रहा। जबकि यह पूरी तरह असंवैधानिक था, गवर्नर इस मत के थे कि मंत्रियों के दुबारा शपथ ग्रहण की जरूरत नहीं। जबकि जब कोई नया मुख्यमंत्री शपथ लेता है तो पुराना मंत्रिमंडल अपने आप खत्म हो जाता है। जिस तरह मुख्यमंत्री के इस्तीफे से मंत्रिमंडल खत्म हो जाता है, उसी तरह मुख्यमंत्री के देहांत पर भी उसका मंत्रिमंडल खत्म होगा। कानूनविदों की राय पर जब आंध्र के मंत्रियों को दुबारा शपथ दिलाई गई तो कांग्रेस ने लालबहादुर शास्त्री के देहांत का उदाहरण देकर बताया कि गुलजारी लाल नंदा ने ही प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, उनके मंत्रियों ने नहीं। कांग्रेस की प्रवृत्ति राष्ट्रपति, राज्यपालों, न्यायाधीशों और चुनाव आयुक्तों का मनमर्जी से इस्तेमाल करने की रही है। इसी का उदाहरण महाराष्ट्र में देखने को मिला जब राज्यपाल के सामने मलाईदार मंत्रालयों के लेन-देन पर झगड़ा चल रहा था और वह हाथ-पर-हाथ धरे बैठे थे।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में एक धारणा है कि वह भ्रष्ट नेताओं को बर्दाश्त नहीं करती, न ही उन्हें ज्यादा चतुर चालाक नेता पसंद हैं। इसीलिए उन्होंने प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह या एनडी तिवारी जैसे दिग्गजों की जगह राजनीति के अनाड़ी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। मनमोहन सिंह की कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी, और प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री ऐसा ही होना चाहिए जिसके सामने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, अलबत्ता जनता की सेवा और प्रशासन में सुधार का जज्बा हो। आंध्र प्रदेश में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते जगनमोहन रेड्डी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। सोनिया गांधी ने मुख्यमंत्री पद को जागीर समझने वाले जगनमोहन रेड्डी की जगह महत्वाकांक्षा नहीं रखने वाले रोसैया को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी सौंप दी। तेल के बदले अनाज घोटाले में नटवर सिंह का नाम आने और उसके दस्तावेजी सबूत सामने आने के बाद सोनिया गांधी ने पुराने पारिवारिक रिश्तों को किनारे करके नटवर सिंह को मंत्री पद से हटवा दिया था। पिछली यूपीए सरकार में तीन मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों में बहुत बदनाम हुए थे। इनमें कांग्रेस के कमलनाथ भी थे, लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें वाणिज्य मंत्रालय से हटाकर सड़क परिवहन मंत्रालय दे दिया। साथ में यह संदेश भी स्पष्ट था कि पिछले सड़क परिवहन मंत्री टीआर बालू को भी इसी कारण दुबारा मंत्री नहीं बनाया गया है। एक तरह से यह कमलनाथ के लिए चेतावनी था। टीआर बालू को मंत्री नहीं बनाना लेकिन मजबूरी में ए राजा को मंत्री बनाना आज भी कांग्रेस अपने गले की हड्डी मानती है। उन पर संचार मंत्रालय में भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो प्रधानमंत्री उनका बचाव करते हुए भी सीबीआई का छापा पड़ने से नहीं रोकते। इस बार लालू यादव और शिबू सोरेन को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर सोनिया गांधी ने यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि पिछली सरकार में इनको मंत्री बनाना उनकी राजनीतिक मजबूरी थी। इसी तरह मधु कोड़ा कांग्रेस के समर्थन से ही दो साल तक झारखंड के मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री पद से हटने के बावजूद लगातार सोनिया गांधी से मेल-मुलाकातें कर रहे थे। वह अभी भी केंद्र की यूपीए सरकार को एमर्थन दे रहे थे, लेकिन उनका भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद सोनिया गांधी उनके बचाव में नहीं उतरी। भले ही मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार से खुद कांग्रेस को भी कटघरे में खड़ा होना पड़ रहा है। इन दो उदाहरणों के बावजूद महाराष्ट्र के कांग्रेसी मंत्री और खुद सोनिया के सलाहकार मलाईदार मंत्रालयों के लिए अड़े हुए थे। इससे भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस के दोहरापन की झलक दिखती है।

राजनीतिक जीवन में शुध्दता को लेकर देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा भी दूध की धुली हुई नहीं है। जिस मधु कोड़ा की अपन ऊपर बात कर रहे थे, वह भाजपा परिवार की ही राजनीतिक पैदाइश हैं। मधु कोड़ा पहली बार भाजपा के ही विधायक और मंत्री बने थे, दूसरी बार टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय लड़कर जीते और कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री बने। लेकिन इससे पहले भाजपा की सरकार बनवाकर उसमें मंत्री बने थे। दो-दो बार भाजपा सरकार में मंत्री बनने पर ही कोड़ा के मुंह में खून लगा होगा। सवालों के बदले पैसा लेने वाले स्टिंग आपरेशन में भी भाजपा के ही ज्यादा सांसद फंसे थे। इसलिए भाजपा खुद को अलग पार्टी होने का दावा नहीं कर सकती। कम से कम कर्नाटक की घटना के बाद तो कतई नहीं कह सकती, जहां उनके दो मंत्री अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए सरकार को बंधक बनाकर बैठे थे, तो पार्टी आलाकमान उनको लूट-खसूट जारी रखे देने का रास्ता निकाल रहा था। मकसद था किसी न किसी तरह सरकार चलती रहे, भले ही उनके मंत्री दोनों हाथों से लूटते रहें। बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने भाजपा के उन 52 विधायकों को बंधक बनाकर पार्टी आलाकमान को ब्लैकमेल किया, जो उनसे आर्थिक लाभ उठा रहे थे। येदुरप्पा को स्थाई मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेसी विधायकों को खरीदकर इस्तीफा करवाने वाले रेड्डी बंधु कीमत वसूलना अपना हक तो समझेंगे ही। भाजपा आलाकमान उस समय बेहद खुश था जब रेड्डी बंधु कांग्रेस के विधायक तोड़-तोड़कर ला रहे थे। भाजपा तब कांग्रेस से अलग होने का दावा कर सकती थी, अगर वह सरकारी ठेकों को अपना हक समझने वाले रेड्डी बंधुओं के दबाव में आने की बजाए पहले ही दिन अपनी सरकार को कुर्बान करने का ऐलान कर देती।

देश की दोनों बड़ी पार्टियों के नेताओं में ज्यादा से ज्यादा पैसा इकट्ठा करने की होड़ लगी हुई है। दोनों पार्टियों के नेता अपनी सरकारों को पैसा बनाने की मशीनों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। कोई मलाईदार विभागों के लिए जद्दोजहद कर रहा है, तो कोई सरकारी ठेकों में अड़चन बनने वाली अपनी ही सरकार को बंधक बनाने में परहेज नहीं कर रहा। सरकारें अब सुशासन का जरिया नहीं रही, न राजनीति समाजसेवा का मकसद रह गया है।

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