क्या मौजूदा 14वें दलाईलामा इतिहास को उसी मोड़ पर लाने की सोच रहे हैं जहां से पांचवें दलाईलामा ने सत्ता संभालने की शुरूआत की थी। क्या वह अपने इसी तवांग दौरे के दौरान ऐसा ऐतिहासिक ऐलान करने की सोच रहे हैं, जैसी चीन की आशंका है।
आठ नवंबर का दिन जैसे-जैसे करीब आ रहा है, अरुणाचल का सुरक्षा घेरा उतना ही बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ से मुलाकात के बाद भारत-चीन में तनाव कुछ कम हुआ है, लेकिन इसका असर अरुणाचल में दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे दलाई लामा के अरुणाचल पहुंचने की तारीख नजदीक आ रही है, वहां के लोगों में दहशत फैल रही है। दलाईलामा के दौरे को लेकर अरुणाचल के लोग उत्साह से भरे हैं, उनके स्वागत की तैयारियां हो रही हैं, लेकिन एक डर भी समाया हुआ है कि कहीं उस दिन चीन अक्टूबर 1962 की याद ताजा न कर दे।
अक्टूबर 1962 में जम्मू कश्मीर के अक्साइचिन पर दावा ठोकते हुए चीन ने जब भारत पर हमला किया था, तो करीब-करीब पूरे अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा कर लिया था। अरुणाचल के लोगों ने तब चीनी फौज से बचने के लिए जंगलों में शरण ली थी। जब तक चीनी फौज अरुणाचल से वापस नहीं लौटी थी, तब तक वे जंगल से नहीं लौटे थे। इस जंग में भारत के 3250 और चीन के एक हजार जवान मारे गए थे। चीन अरुणाचल से तो वापस चला गया लेकिन अक्साइचिन पर अभी भी उसका कब्जा बना हुआ है। दलाईलामा आठ नवंबर को एक हफ्ते के लिए अरुणाचल के तवांग कस्बे में जा रहे हैं। वह 2003 में भी वहां गए थे, लेकिन इस बार चीन उनके तवांग दौरे से बेहद घबराया हुआ है। दलाईलामा एक हफ्ते तक 40 हजार आबादी वाले तवांग शहर के तीन सौ साल पुराने बौध्द मठ में ठहरेंगे। इस बौध्द मठ को तिब्बत के ल्हासा स्थित पोटला पैलेस स्थित इसके मठ के बाद दूसरे नंबर का महत्व दिया जाता है। तवांग से मैकमोहन रेखा सिर्फ 35 किलोमीटर की दूरी पर है, जिसे भारत अपनी सीमा मानता है, लेकिन चीन नहीं मानता। चीन की भारत के साथ सीमा कभी नहीं थी, भारत की सीमा तिब्बत के साथ लगती थी। चीन ने 1951 में तिब्बत को हड़पना शुरू किया, 1959 में जब पोटला पैलेस पर चीनी फौज ने चढ़ाई कर दी तो दलाईलामा ने अपने 80 हजार अनुयाईयों के साथ इसी रास्ते से होते हुए भारत में प्रवेश किया था। इसलिए चौदहवें दलाईलामा तेंजिन ग्यात्सो का अरुणाचल प्रदेश के तवांग से गहरा रिश्ता है।
तवांग ही नहीं पूरे अरुणाचल प्रदेश में बौध्द धर्म के अनुयाई ही रहते हैं, इसलिए दलाईलामा का आगमन उनके लिए जीवन की सुखद घड़ी होगी, लेकिन चीनी हमले का डर उनके मन पर समाया हुआ है। शुरू में ऐसा लगता था कि चीन के कड़े विरोध के कारण प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दबाव में आ जाएंगे और दलाईलामा को दौरा टालने या रद्द करने की सलाह दी जाएगी। अब जबकि सिर्फ पांच दिन बाकी बचे हैं और प्रधानमंत्री ने स्पष्ट स्टैंड ले लिया है कि दलाईलामा को भारत में कहीं भी जाने से नहीं रोका जाएगा तो उनका दौरा रद्द होने की आशंका खत्म हो गई है। चीन ने सिक्किम को तो भारत का हिस्सा मान लिया है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश पर दावा नहीं छोड़ने की वजह तवांग का प्राचीन बौध्द मठ है, जिसे तिब्बती दूसरे धार्मिक स्थल का दर्जा देते हैं। दलाईलामा के 2003 के तवांग दौरे का चीन ने इतने जोर-शोर से विरोध नहीं किया था, जितना इस बार कर रहा है, इसकी वजह दलाईलामा की ओर से अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाने की आशंका है। चीन दलाईलामा के इस बयान से भयभीत हैं कि वह अपने जीते जी अपना उत्तराधिकारी तैनात कर सकते हेँ। दलाईलामा की परंपरागत नियुक्ति उत्तराधिकारी की तैनाती से नहीं होती, अलबत्ता दलाई लामा की मौत के बाद होती है। जिसमें विभिन्न संकेतों और सपनों को आधार बनाकर दलाईलामा का पुनर्जन्म होना माना जाता है, खुद तेंजिन ग्यात्सों की चौदहवें दलाईलामा के रूप में तैनाती भी 1937 में इसी तरह हुई थी, तब वह सिर्फ दो साल के थे। अब चौहत्तर साल के दलाईलामा तिब्बत की आजादी को लेकर बेहद चिंतित हैं, उन्हें लगता है कि दूसरी निर्वासित पीढ़ी के सब्र का प्याला भर गया है और वह हिंसक हो सकती है। असल में दलाईलामा को यह आभास 2007 में होना शुरू हो गया था, उन्होंने अपने जापान दौरे के दौरान एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वह अपने जीवन में अपना उत्तराधिकारी तैनात कर सकते हैं। तब से दलाईलामा चुनने की प्रक्रिया बदलने पर तरह-तरह की अटकलें लग रही हैं। अटकलें ये हैं कि वह खुद अपना उत्तराधिकारी चुनेंगे या चुनाव की पध्दति अपनाएंगे, जैसे ईसाई धर्म में पोप का चयन किया जाता है। या फिर वह बौध्द धर्मावलंबियों से जनमत संग्रह करवाएंगे कि दलाईलामा पद को आगे चलने भी दिया जाए या नहीं। अगर चलने दिया जाए तो पुनर्जन्म की पुरानी पध्दति कायम रखी जाए या आधुनिक जरूरतों के मुताबिक उसे बदला जाए। असल में दलाईलामा के मन में डर समाया हुआ है कि उनके निर्वाण के बाद चीन सरकार अपने तैनात किए पंचेन लामा से कोई चीन समर्थक दलाईलामा घोषित न करवा दे।
तिब्बती बौध्द धर्म गुरु पद दलाईलामा पर कब्जा करना चीन का पहला लक्ष्य बना हुआ है। इस रणनीति के तहत चीन ने पिछले साल ऐलान किया है कि भविष्य में बुध्द के अवतारों की नियुक्ति चीन सरकार की इजाजत के बिना नहीं होगी, इनमें सर्वोच्च दलाईलामा पद भी शामिल है। चीन सरकार के इस साजिश भरे ऐलान के बाद दलाईलामा ने नवंबर 2008 में निर्वासित सरकार के मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में सरकार का विशेष सत्र बुलाया। इसमें दलाईलामा ने कहा कि मध्यमार्ग अपनाकर चीन के भीतर स्वायत्त तिब्बत की बात शुरू करनी चाहिए। अगर चीन के साथ मध्यमार्ग की बातचीत विफल हो जाए तभी संपूर्ण आजादी का आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए। दलाईलामा ने कहा कि चीन अगर स्वायत्ता को राजी नहीं होता तो संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को आधार बनाकर तिब्बतियों को अपना फैसला खुद करने का हक मांगा जाए। लेकिन सम्मेलन में दलाईलामा के इस मत के विरोध में आवाज उठी थी। तिब्बत की आजादी के लिए मचल रहे युवकों में व्याप्त आक्रोश को जानते समझते हुए ही दलाईलामा ने कदम-दर-कदम आजादी के आंदोलन को नए सिरे से खड़ा करने की बात कहीं थी। दलाईलामा एक तरफ तिब्बती युवाओं में बढ़ते आक्रोश से चिंतित हैं, तो दूसरी तरफ बौध्द धर्म के आधारभूत ढांचे को तहश-नहश करने की चीनी साजिश से चिंतित है। इस साजिश का पहला प्रमाण तब मिला था जब दलाईलामा की ओर से घोषित छह वर्षीय ग्यारहवां पंचेनलामा गायब हो गया था। इसी का फायदा उठाकर चीन ने तिब्बत स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के तिब्बती नेता के बेटे को ग्यारहवां पंचेनलामा घोषित कर दिया था। इसके बाद पिछले साल बुध्द के अवतारों की नियुक्ति पर सरकार की मुहर लगवाने का फरमान जारी कर दिया।
भारत ही नहीं चीन की निगाह भी दलाईलामा के सात दिवसीय तवांग दौरे पर लगी हुई है। चीन की आशंका है कि दलाईलामा तवांग को तिब्बत की आजादी का नया प्रेरणास्रोत बनाने की रणनीति अपना रहे हैं। उसे यह भी आशंका है कि दलाईलामा अपने तवांग दौरे के समय ही तीन सौ साल पुराने बौध्द मठ को तिब्बत का अस्थाई राजभवन न घोषित कर दें। सत्रहवां करमापा दोरजी नौ साल पहले तवांग के रास्ते से ही तिब्बत से भागकर भारत में प्रवेश किया था। करमापा के तिब्बत छोड़ने पर चीन को गहरा झटका लगा था क्योंकि वह करमापा को अपना आदमी समझती थी। पद्रह साल की उम्र में भारत आए करमापा अब 24 साल के हो चुके हैं और दलाईलामा के साथ ही धर्मशाला के ग्यूतो तांत्री मठ में ही रहते हैं। सत्रहवें करमापा के चीन से भागकर भारत आने से दलाईलामा के तिब्बत की आजादी के आंदोलन को दुनियाभर में बल मिला था। दलाईलामा उनकी ट्रेनिंग अगले नेतृत्व के तौर पर कर रहे हैं, उन्हें विदेशी शासकों से मिलाने और दुनिया की राजनीति को समझने की ट्रेनिंग दी जा रही है। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि दलाईलामा पद धर्म गुरु का था, जबकि शासन की जिम्मेदारी करमापा की हुआ करती थी। पांचवें दलाईलामा के समय हुए खूनी संघर्ष में करमापा को तिब्बत की सत्ता से बेदखल कर दिया गया था और दलाईलामा ने ही दोनों जिम्मेदारियां संभाल ली थी। क्या मौजूदा 14वें दलाईलामा इतिहास को उसी मोड़ पर लाने की सोच रहे हैं जहां से पांचवें दलाईलामा ने सत्ता संभालने की शुरूआत की थी। क्या वह अपने इसी तवांग दौरे के दौरान ऐसा ऐतिहासिक ऐलान करने की सोच रहे हैं, जैसी चीन की आशंका है।
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