भावनाएं, विरासत और लोकतंत्र

Publsihed: 07.Sep.2009, 10:17

आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी विधायकों की ओर से राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने की मांग भावनात्मक तो है ही। कांग्रेस की राजनीतिक विरासत वाली वंशानुगत लोकतंत्र की परंपरा भी है।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुई मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। दुर्घटना से जुड़े तकनीकी सवाल तो अपनी जगह हैं, लेकिन राजनीतिक सवाल ज्यादा गंभीर हैं। कांग्रेस के 156 में से 148 विधायकों ने राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने की मांग करके लोकतांत्रिक ढांचे की नई परिभाषा गढ़ दी है।

पहली नजर में देखा जाए तो विधायकों को अपना नेता तय करने का संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार है। संविधान में स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री को सदन का बहुमत हासिल होना चाहिए। वह खुद सदन का सदस्य नहीं हो तो छह महीने के भीतर चुनकर आ जाना चाहिए। अन्यथा वह मुख्यमंत्री नहीं रह सकेगा, यही बात केंद्र और राज्यों के मंत्रियों पर भी लागू होती है। राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन रेड्डी को सदन के सदस्यों के बहुमत का समर्थन हासिल है तो उन्हें मुख्यमंत्री बनने का संवैधानिक हक हासिल है। ज्ञानी जैल सिंह ने  तो राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाते समय कांग्रेसी सांसदों के समर्थन की पड़ताल भी नहीं की थी।

राजतंत्र, परिवारतंत्र और लोकतंत्र का फर्क ऐसे मौके पर मिटता हुआ दिखाई देने लगता है। ऐसा नहीं है कि आजाद भारत में यह पहली बार हो रहा हो। शेख अब्दुल्ला की मौत के बाद फारुख अब्दुल्ला और एनटी रामाराव की मौत के बाद उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू को विधायकों ने ऐसी ही भावनाओं में बहकर मुख्यमंत्री बनाया था। चौधरी देवीलाल ने अपने सामने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने बेटे ओमप्रकाश चोटाला को सौंप दी और फारुख अब्दुल्ला ने अपने सामने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने बेटे उमर अब्दुल्ला को सौंप दी। लेकिन ये चारों ही उदाहरण क्षेत्रीय पार्टियों के हैं, कांग्रेस या भाजपा में ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केन्द्रीय मंत्रियों ने जिस तरह उनके बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया था, ठीक उसी तरह दिवंगत वाईएस राजशेखर रेड्डी के मंत्रिमंडल ने भी उनके बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव पास कर दिया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने ने ही कांग्रेस को परिवारवादी पार्टी बना दिया। अब जबकि नेहरू-गांधी परिवार की परंपरा कांग्रेस के प्रादेशिक नेताओं में पहुंच रही है, तो कांग्रेस में उच्च स्तर पर असुविधा महसूस की जा रही है।

दक्षिण में कांग्रेस का पतन हाईकमान की ओर से क्षत्रपों की अवहेलना से शुरू हुआ था। इंदिरा गांधी ने हाईकमान की ताकत दिखाने के लिए क्षत्रपों को कमजोर करना और मुख्यमंत्रियों को दिल्ली के इशारे पर हटाने की परंपरा शुरू की थी। जिसका नतीजा यह निकला कि राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती चली गई। पहले तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस की हालत खस्ता हुई और बाद में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक उसमें जुड़ गए। इन राज्यों में नाराजगी इस बात को लेकर थी कि कांग्रेस हाईकमान जमीन से जुड़े हुए नेताओं को सत्ता सौंपने के बजाए अपने चापलूसों के हाथ में बागडोर थमा देता है। नतीजतन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होने की बजाए हाईकमान के प्रति जवाबदेह होकर रह जाते हैं। तमिलनाडु में एमजीआर और आंध्र प्रदेश में एनटीआर का राज्य की राजनीति में उदय होने का कारण कांग्रेस हाईकमान की मनमानी ही था। बहुत लंबे समय के बाद दक्षिण के एक राज्य आंध्र प्रदेश में राजशेखर रेड्डी नाम का एक क्षत्रप पैदा हुआ, जिसने अपने बूते पर पहले 2004 में और अब 2009 में कांग्रेस को बहुमत दिलाया। राजशेखर रेड्डी को आंध्र प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस को बहुमत में लाने के लिए सोनिया गांधी की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ी। आंध्र प्रदेश विधानसभा के 156 कांग्रेसी विधायकों में से ज्यादातर राजशेखर रेड्डी की वजह से ही चुनाव जीते थे, इसलिए उनकी ओर से उनके बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की मांग सिर्फ भावनात्मक नहीं, अलबत्ता वे उन्हीं की रहनुमाई में अपना भविष्य सुरक्षित मानते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के सांसद भावनाओं के साथ-साथ उन्हीं के नेतृत्व में अपना भविष्य सुरक्षित मानते थे।

जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के समय राज्यों में कांग्रेस के जितने भी क्षत्रप नेता थे, उनकी राजनीतिक विरासत उनके परिवारों को ही मिलती रही थी। भले ही किसी मुख्यमंत्री के देहांत पर उसके बेटे को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, लेकिन राजनीतिक विरासत को कबूल करने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। मध्यप्रदेश में रविशंकर शुक्ल का मुख्यमंत्री पद पर देहांत हुआ था, उनके बेटे श्यामाचरण शुक्ल राजनीति में आ चुके थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, अलबत्ता डीपी मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया। इसी तरह प्रताप सिंह कैरो की मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए हत्या हुई, लेकिन उनका बेटा सुरेंद्र सिंह मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। इसके बावजूद कांग्रेस में राजनीतिक विरासत की परंपरा रही है। केंद्र सरकार के मौजूदा मंत्रिमंडल में 29 मंत्री ऐसे हैं जिनके बाप-दादा भी मुख्यमंत्री या केन्द्र में मंत्री रहे हैं। कांग्रेस ही नहीं, अलबत्ता सभी राजनीतिक दलों में राजनीतिक-पारिवारिक विरासत की परंपरा चल रही है। दूर जाने की बात नहीं, देशभर के आधा दर्जन मुख्यमंत्रियों के बेटे-बेटियां सांसद हैं। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा के बेटे राघवेंद्र, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र हुड्डा, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि का बेटा अझगरी और बेटी कन्नीमूरी, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का बेटा संदीप दीक्षित, जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के पिता फारुख अब्दुल्ला और आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन रेड्डी सांसद हैं। वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री रहते ही उनका बेटा दुष्यंत सांसद बन गया था। देश में ऐसे सौ ही परिवार हैं, जिनके बच्चे सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री बनते हैं। इसलिए कई बार तो ऐसा लगता है जैसे भारत में लोकतंत्र की जगह वंशवादी लोकतंत्र कायम हो गया है। जब देश ने इस वंशवादी लोकतंत्र को कबूल कर लिया है, तो राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन रेड्डी को मिला अपार समर्थन आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। यह विधायकों का समर्थन चापलूसी की हद कहा जा सकता है, लेकिन यह चापलूसी की हद तब भी होती है, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल उनके बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव पास कर देता है। देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के लिए यह कोई इम्तिहान की घड़ी नहीं है, अलबत्ता कांग्रेस की पुरानी परंपराओं का इम्तिहान जरूर है। कांग्रेस अगर राज्य के विधायकों की मर्जी के मुताबिक राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बना देती है, तो कांग्रेस में क्षत्रपों के महत्व का युग लौट आएगा। राजशेखर रेड्डी 1998 में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले तेरह साल तक कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का कोपभाजक बनते रहे थे। वह कभी चुनाव नहीं हारे, इसके बावजूद जब भी कभी उनके मुख्यमंत्री बनने का मौका आया, बड़े नेता एकजुट होकर उनके रास्ते में रुकावट बनते रहे। राजशेखर रेड्डी मे आंध्र प्रदेश का क्षत्रप बनने की क्षमता थी, लेकिन कांग्रेस आलाकमान उनकी अनदेखी करता रहा। इसका नतीजा कांग्रेस ने 21 साल तक भुगता, इस दौरान आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव और उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू का जादू चला। राजशेखर रेड्डी को जब मौका दिया गया तो उन्होंने पांच साल के अंदर खुद को क्षत्रप के तौर पर उभारकर कांग्रेस को न सिर्फ राज्य में स्थापित किया, बल्कि केंद्र में भी कांग्रेस का वनवास खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अब राजशेखर रेड्डी के बेटे में भले ही अपनी पिता जितना राजनीतिक अनुभव और उन जितनी क्षमता न हो, लेकिन विधायकों की इच्छा की अनदेखी कांग्रेस के लिए महंगी भी पड़ सकती है।

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