संसद में अपराधी नहीं, अब अपराधियों की संसद

Publsihed: 02.Dec.2006, 20:40

पिछले हफ्ते दो सांसद हत्या के मामले में अपराधी घोषित किए गए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस कटघरे में थी कि शिबू सोरेन पर हत्या के दो मुकदमे चल रहे थे, फिर भी उन्हें केबिनेट मंत्री बना दिया गया। कांग्रेस और मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा करने वाली भाजपा दो ही दिनों में खुद कटघरे में खड़ी हो गई, क्योंकि उसके सांसद नवजोत सिंह सिध्दू भी मौत के एक मामले में दफा 304 में अपराधी घोषित हो गए। मनमोहन सिंह ने अगर यह जानते हुए भी शिबू सोरेन को मंत्री बनाया था, कि वह हत्या के दो मामलों में अभियुक्त है, तो भाजपा ने भी यह जानते हुए नवजोत सिंह सिध्दू को अमृतसर से पार्टी का टिकट दिया कि हत्या के एक मामले में उस पर हाई कोर्ट में केस लंबित है, भले ही वह निचली अदालत से बरी हो चुका था।

दोनों केसों में गुण-दोष अलग-अलग हो सकते हैं, मनमोहन सिंह ने इस मामले को कतई गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने मंत्री से इस्तीफा लेकर अपने फर्ज का अंत मान लिया, जबकि उन्हें इस बात के लिए देश से माफी मांगनी चाहिए कि उनके हाथों कितना बड़ा अपराध हुआ। अफसोस तो यह है कि चंद हजार रुपए की रिश्वत लेने पर सांसदों को बर्खास्त कर दिया गया, लेकिन हत्या के मामले में आरोपी साबित हो चुके शिबू सोरेन अभी भी सांसद बने हुए हैं और उनकी सदस्यता रद्द करने का कदम उठाने के लिए कोई गंभीर नहीं है। इस मामले में नवजोत सिंह सिध्दू की तारीफ करनी पड़ेगी कि निचली अदालत से बरी होने और सुप्रीम कोर्ट में याचिका का दरवाजा खुला होने के बावजूद उन्होंने हाईकोर्ट का फैसला आने के तीन घंटे के भीतर लोकसभा स्पीकर के पास जाकर अपना इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफा या बर्खास्तगी कुछ तो होना ही चाहिए। संसद इस बात के लिए भी शर्मसार नहीं है कि पप्पू यादव जैसे हत्या के आरोपी उसके कई सदस्य लंबे समय तक जेलों में पड़े रहते हैं। मोटा सवाल यह है कि राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए और उन्हें अब तक क्यों नहीं उठाया गया। करीब पांच साल पहले चुनाव आयोग ने राजनीति का अपराधीकरण खत्म करने के लिए कुछ उपाय सुझाए थे, उन उपायों पर उस समय सरकार ने विचार विमर्श किया और एक बिल तैयार किया। इस बिल में यह प्रावधान रखा गया था कि अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ ऐसे तीन मुकदमें लंबित हों, जिन पर कोर्ट ने चार्जशीट का संज्ञान लिया हो, उसे चुनाव लड़ने की योग्यता से वंचित किया जाए। इस बिल के खिलाफ बहुत सारे तर्क हो सकते हैं, जैसे राज्य सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों, खासकर चुनाव जीत सकने वाले राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ढ़ेर सारे मुकदमे दायर कर सकती है और राज्य की पुलिस मशीनरी चुनावों से पहले अदालत में चार्जशीट दाखिल कर सकती है। हालांकि इस बिल के ड्राफ्ट में यह प्रावधान रखा गया था कि कम से कम तीन मुकदमों पर कोर्ट की ओर से संज्ञान लिया हुआ होना चाहिए। भले ही राज्य सरकारें अपनी पुलिस मशीनरी से फर्जी मुकदमे दायर करवाने में सक्षम हो, लेकिन यह मान लेना कि अदालतें भी राज्य सरकारों के इशारे पर किसी राजनीतिक खेल में शामिल हो जाएंगी, अपने आप में पूरी व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाना होगा। लेकिन अफसोस कि अपने आप में पुख्ता बिल पर भी सर्वदलीय बैठक में सवालिया निशान लग गया। मुझे वह दिन याद है जब संसद भवन के हॉल नंबर 53 में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मुद्दे पर आम राय बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई थी और बिल का ड्राफ्ट राजनीतिक दलों के सामने रखा था। समाजवादी पार्टी, वामपंथी पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने इस बिल का विरोध किया। उनके तर्क वही थे, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है, बिल का विरोध करते हुए इन तीनों राजनीतिक दलों ने राज्यों की पुलिस व्यवस्था पर ही नहीं, बल्कि न्यायिक व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लगा दिया। एक मायने में देखा जाए तो इन राजनीतिक दलों ने बिल का विरोध करके न्यायिक व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर कर दिया। कैसी है यह न्यायिक व्यवस्था जो सरकार चलाने वाले और कानून बनाने वाले राजनीतिक दलों की नजर में कोई मायने नहीं रखती। ऐसी कानून व्यवस्था जिसे खरीदा जा सकता है। आज संसद की यह हालत हो गई है कि एक हफ्ते में ही दो-दो सांसद हत्या के मामले में आरोपी साबित हो जाते हैं, तो क्या देश की संसदीय प्रणाली पर सवालिया निशान नहीं है। जो राजनीतिक दल राजनीति के अपराधीकरण रोकने के बिल का विरोध कर रहे थे, क्या वे अब शर्मिंदगी महसूस नहीं कर रहे। अगर वे शर्मिंदगी महसूस कर रहे हैं तो अब समय आ गया है कि रद्दी की टोकरी में फेंके गए उस बिल को बिना कोई कांट-छांट किए संसद में पास किया जाए, ताकि संसदीय प्रणाली की गिरती हुई साख को बचाया जा सके। आज हालत यह हो गई है कि मौजूदा संसद में डेढ़ सौ से ज्यादा ऐसे सांसद बैठे हुए हैं, जिन पर गंभीर अपराधों के मुकदमें चल रहे हैं। माना कि राजनीतिक आंदोलनों के कारण राजनेताओं पर मुकदमे दायर होते हैं, लेकिन कानून बनाते समय यह बात तय की जा सकती है कि वे चार्जशीट किन मामलों के होंगी। किसी राजनीतिक आंदोलन के कारण दायर हुई एफआईआर को इस दायरे से खारिज किया जा सकता है। यह तय करने का अधिकार चुनाव आयोग को दिया जा सकता है, इसमें हर्ज क्या होगा। अगर अब भी राजनीतिक दल नहीं जागे, तो अगली लोकसभा में ऐसे लोगों की तादाद और बढ़ेगी, जो आपराधिक मामलों में लिप्त होंगे। अगर इसे अभी नहीं रोका गया तो देश की जनता का विश्वास राजनीतिक नेताओं नहीं, अलबत्ता संसदीय व्यवस्था से ही उठ जाएगा। क्रांति के संकेत नेपाल से लिए जा सकते हैं, अगर नेपाल से सबक नहीं लेना हो तो हाल ही में भारत में ही कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो सबक के लिए काफी हैं। बलात्कार और हत्या के मामलों में पुलिस प्रशासन की अपराधियों से सांठगांठ के कारण देश में कई जगह पर जनता सड़कों पर उतरकर शासकों को सबक सिखा चुकी है। यह जनता के आक्रोश का एक संकेत मात्र है, जिसे बड़े परिदृश्य में नहीं देखना अदूरदर्शिता ही होगी। इसलिए अभी भी समय है कि लोकसभा को अपराधसभा बनाने से रोकने के कदम उठा लिए जाएं, वरना बहुत देर हो जाएगी।

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