विदेशनीति में भटकाव

Publsihed: 26.Jul.2009, 20:39

मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में देश की विदेशनीति में भारी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। नीति का झुकाव अमेरिका की तरफ दिखाई दे रहा है और पाकिस्तान के मामले में कूटनीतिक विफलताएं सामने आ रही हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने पर आम धारणा थी कि विदेशनीति का झुकाव अमेरिका की तरफ हो जाएगा। जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक देश की विदेशनीति गुटनिरपेक्ष की बनी रही थी। हालांकि नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक कांग्रेस की हर सरकार का झुकाव दोनों में से एक गुट सोवियत संघ की तरफ बना रहा था। आम धारणा के विपरीत वाजपेयी सरकार की विदेशनीति अपेक्षाकृत ज्यादा गुटनिरपेक्ष साबित हुई।

एनडीए शासन में अमेरिका और इस्राइल से हथियारों की आपूर्ति हुई, तो रूस से भी कई महत्वपूर्ण रक्षा सौदे हुए। वाजपेयी किसी भी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री से ज्यादा लोकतांत्रिक थे, इसलिए अमेरिका ने जब इराक पर हमला किया तो उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाकर देश की नीति तय की। विदेश नीति पर यह पहली सर्वदलीय बैठक थी। इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने विदेशनीति पर बाकी राजनीतिक दलों को भरोसे में लेने की जहमत नहीं उठाई थी। हां जवाहर लाल नेहरू और नरसिंह राव विदेश नीति पर संसद में विपक्ष के नेता को भरोसे में जरूर लेते रहे थे। नरसिंह राव ने तो कश्मीर पर पाकिस्तान के तेवरों का जवाब देने के लिए संयुक्तराष्ट्र में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भारत के प्रतिनिधि के तौर पर भेजकर विदेशनीति पर देश की एक राय का नया उदाहरण पेश किया था।

2004 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश की विदेश नीति में एक तरफा बदलाव देखे जा रहे हैं। लेकिन विपक्ष के नेताओं को भरोसे में लेना तो दूर की बात, प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी को भरोसे में नहीं ले रहे हैं। विदेशनीति में सबसे पहला बदलाव 2005 में अमेरिका के साथ एटमी करार के समय देखने में आया। एटमी करार के समय देश के विदेश मंत्री रहे नटवर सिंह ने बाद में खुलासा किया था कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एटमी करार की कोई पूर्व जानकारी नहीं थी। एटमी करार वाले दिन ही अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से देश की विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों के बयान ने कांग्रेस को घोर संकट में खड़ा कर दिया था। एटमी करार के कुछ दिन बाद तक कांग्रेस की तरफ से करार के बचाव में कुछ भी कहने से परहेज किया गया। बाद में मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को राजी कर लिया। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष को कैसे राजी किया, वह अलग बात है, लेकिन यह सच है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से किया गया वादा नहीं निभा पाने पर उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की धमकी दी थी। एटमी करार से देश की स्वतंत्र विदेशनीति में बदलाव का पहला सबूत तब मिला जब भारत ने अमेरिकी  दबाव में आकर आईएईए बैठक में ईरान के खिलाफ वोट दिया। दूसरा बदलाव अमेरिकी दबाव में ईरान-पाक-भारत गैस पाईप लाइन को हमेशा हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डालने का हुआ है।

मनमोहन सरकार की दूसरी पारी ज्यादा भयावह साबित हो रही है। विदेशनीति में व्यापक बदलाव देखने को मिल रहे हैं, जिस पर तरह-तरह की आशंकाएं उठ रही हैं। एटमी करार के समय कांग्रेस में इतनी आशंका पैदा नहीं हुई थी, जैसी अब पैदा हो रही है। हालांकि अमेरिकी दबाव में भारत की पाकिस्तान संबंधी विदेशनीति में भी बदलाव के संकेत मिल गए थे। मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ साझा बयान में पाक को भी आतंकवाद का शिकार बताकर देश की विदेशनीति में व्यापक बदलाव का संकेत दिया था। परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के फौजी शासकों की उस परिपाटी के शासक थे जिनकी रणनीति भारत में आतंकवाद फैलाकर अंदर से खोखला करने की थी। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अंधेरे में रखकर पाकिस्तानी फौज की कारगिल में घुसपैठ करवाने वाले मुशर्रफ का अब भी यह कहना है कि वह उनकी कूटनीति का हिस्सा था ताकि कश्मीर को भारत-पाक वार्ता का केंद्र बिंदु बनाया जा सके। उनका दावा है कि इस लक्ष्य में सफलता हासिल करके उन्होंने एक तरह से विजय हासिल की थी। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर की 'कोर ईश्यू' बनाने के मुद्दे पर ही आगरा वार्ता तोड़ दी थी। यहां यह भी उल्लेखनीय होगा कि परवेज मुशर्रफ की ओर से भारतीय संपादकों के साथ नाश्ते पर बैठक में कश्मीर के आतंकवाद को जंग-ए-आजादी कहने पर वाजपेयी ने साझा बयान पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था, जिस पर उन्हें आगरा से बैरंग लौटना पड़ा था। जबकि देश के बंटवारे के समय से ही पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान में चल रही जंग-ए-आजादी को मनमोहन सिंह ने आतंकवाद कहकर साझा बयान जारी कर दिया है।

ब्लूचिस्तान की जंग-ए-आजादी के पीछे भारत का हाथ बताना पाकिस्तान का पुराना आरोप  रहा है, लेकिन किसी भी प्रधानमंत्री ने बेसिर-पैर के इस आरोप पर कभी तवज्जो नहीं दी। पाकिस्तान की सेना पिछले पचास साल से ब्लूचिस्तान के शासक रहे नवाब अकबर खान बुगती की रहनुमाई में चल रहे सशस्त्र आंदोलन से जूझती रही है। तीन साल पहले परवेज मुशर्रफ ने धोखे से उनकी हत्या करवा दी थी। ब्लूचिस्तान में भारत का हाथ होने के आरोप को नवाब बुगती के बेटे तलत बुगती ने पूरी तरह खारिज किया है। मनमोहन सिंह ने चार साल पहले पाक को भी आतंकवाद का शिकार बता दिया और अब ब्लूचिस्तान में चल रही जंग-ए-आजादी में अपनी टांग अड़ा ली है। भारत-पाक साझा बयान में ब्लूचिस्तान का जिक्र आना न तो अच्छी कूटनीति का सबूत है न अच्छी विदेशनीति का। मनमोहन सिंह सफाई दे रहे हैं कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने ब्लूचिस्तान में आतंकवादी वारदातों पर चिंता जाहिर की थी, जिस पर उन्होंने कहा था कि भारत का उससे कुछ लेना देना नहीं, फिर भी पाक चाहे तो जो पूछना चाहे, पूछ सकता है। यह कोई अच्छी कूटनीति का सबूत नहीं है, प्रधानमंत्री अगर कूटनीति नहीं जानते तो उन्हें कूटनीतिज्ञ विशेषज्ञों को अपने साथ रखना चाहिए। उन्होंने अपना विदेश मंत्री भी ऐसा बना लिया है, जो कूटनीति में अनजान है। साझा बयान तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले विदेश सचिव शिवशंकर मेनन अपनी सेवानिवृत्ति के पायदान पर हैं, उन्होंने ऐसी गलती क्यों की। वह कह रहे हैं कि साझा बयान की भाषा खराब हो सकती है, लेकिन भावना खराब नहीं है। रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़े विदेश सचिव मेनन यह भी नहीं जानते कि विदेशनीति में राष्ट्र सर्वोपरि होता है, भावनाएं नहीं। राष्ट्र भी अपना सर्वोपरि होता है, सामने वाले का नहीं।

कूटनीति में अनाड़ी प्रधानमंत्री की सारी टीम अनाड़ियों की साबित हो रही है। मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में कूटनीतिक विफलताओं के चार सबूत हमारे सामने हैं। पाकिस्तान के साथ साझा बयान में आतंकवाद को बाकी मुद्दों से अलग करना और ब्लूचिस्तान का जिक्र करने के अलावा वे तीन और घटनाएं उल्लेखनीय हैं। प्रधानमंत्री ने जी-8 में अमेरिका की ओर से ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में पर्यावरण की रक्षा के लिए 'ओमिशन' घराने की जिम्मेदारी ओढ़कर भारतीय हितों की अनदेखी की। जिसे उन्हीं के मंत्री जयराम रमेश ने भारत आई अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन के सामने एतराज जताकर दुरस्त किया है। संभवत: जयराम रमेश ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से बातचीत के बाद ही स्टैंड लिया। मनमोहन सिंह की दूसरी कूटनीतिक विफलता उनकी मौजूदगी में ही जी-8 का वह प्रस्ताव है जिसमें कहा गया है कि एनपीटी पर दस्तखत नहीं करने वाले देशों को एटमी संवर्धन एवं पुन: प्रसंस्करण तकनीक नहीं दी जाएगी। मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ किए एटमी करार में यह छूट भी हासिल की थी। सितंबर 2008 में करार पर दस्तखत हो जाने के बाद नवंबर 2008 में अमेरिका ने खुद एनएसजी के नियमों में बदलाव का ड्राफ्ट तैयार किया। अब जी-8 ने इसे मंजूरी दे दी है और 45 देशों के समूह एनएसजी में पारित होने के बाद भारत पर भी लागू हो जाएगा। इसके बाद भारत को या तो संवर्धन का काम अमेरिका में करवाना पड़ेगा जिससे उसे दोहरा मुनाफा होगा या भारत को एनपीटी पर दस्तखत करने पड़ेंगे। यह एनपीटी पर दस्तखत करने का दबाव ही है। हिलेरी क्लिंटन की ओर से दिल्ली में दिया गया यह आश्वासन पूरी तरह गुमराहपूर्ण है कि यह शर्त भारत पर लागू नहीं होगी। कूटनीतिक विफलता की तीसरी बड़ी गलती हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान किया गया एंड यूज एग्रीमेंट है, जिसके तहत अमेरिका अपनी ओर से बेचे गए सामान की इंस्पैक्शन करने का हकदार होगा। वह यह जांचना चाहेगा कि उसने जो वस्तु बेची थी उसका उस काम के लिए उपयोग हो रहा है या नहीं, जिस काम के लिए बेची गई थी। एटमी करार के समय मनमोहन सिंह ने संसद से वायदा किया था कि एटमी रिएक्टरों का अमेरिकी इंस्पैक्टर नहीं, अलबत्ता आईएईए के इंस्पैक्टर निरीक्षण करेंगे। एंड यूज एग्रीमेंट से एटमी करार का वह हिस्सा बेकार हो गया है कि आईएईए के इंस्पैक्टर ही निरीक्षण करेंगे। एनएसजी की एनरिचमेंट एण्ड रीप्रोसेसिंग (इएनआर) नीति के बाद करार का दूसरा हिस्सा भी बेकार हो जाएगा जिसमें हमें संवर्धन और पुन: प्रसंस्करण का अधिकार दिया गया था।

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