दो दशकों में बदल गया मीडिया

Publsihed: 28.Oct.2006, 20:45

करीब एक साल पहले वीर सिंघवी ने हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख में दावा किया था कि सोनिया गांधी कभी भी देश की प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थी। उनका दावा था कि सोनिया गांधी ने 1999 में भी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद खुद प्रधानमंत्री बनने का दावा नहीं किया था। बाद में इसी अखबार में लीड के तौर पर इससे मिलती जुलती खबर छपी, जिसमें कहा गया कि 2004 चुनाव नतीजों के फौरन बाद सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला कर लिया था। इन दोनों ही खबरों की के आर नारायणन के जीवित रहते किसी ने पुष्टि नहीं की। हालांकि 2004 का इतिहास बहुत पुराना नहीं हुआ और मेरे जैसे दर्जनों पत्रकार उस पूरे घटनाक्रम के गवाह हैं कि सोनिया गांधी के घर हुई बैठक में उन्हें सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री की शपथ लेने के लिए नेता चुना गया था।

सोनिया गांधी खुद वहां मौजूद थी और उन्होंने इसकी मुखालफत नहीं की थी। इस खबर के बाद ही राष्ट्रपति भवन से राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम का बुलावा आया था। सोनिया गांधी अकेले राष्ट्रपति से मिलने गई थी और बाहर निकलते समय उनके चेहरे पर मायूसी थी। राष्ट्रपति भवन में खड़े पत्रकारों से उन्होंने कहा था कि वह जल्द ही राष्ट्रपति को कांग्रेस के फैसले से अवगत करवाएंगी। इसके बाद सोनिया गांधी ने पहली बार कहा कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती। सोनिया गांधी के राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद किए गए इस फैसले के बाद मनमोहन सिंह को बुलाकर उन्हें प्रधानमंत्री बनने का फैसला सुनाया गया था। जहां तक 1999 का सवाल है, तो 19 अप्रैल 1999 को ऑस्कर फर्नांडिज और पी जे कूरियन ने राष्ट्रपति से मुलाकात करके उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति और कांग्रेस संसदीय दल के उन प्रस्तावों की प्रतियां सौंपी थी, जिनमें सरकार बनाने की कार्यवाही करने के लिए सोनिया गांधी को अधिकृत किया गया था। इसके बाद ही राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल को सोनिया गांधी को अगले दिन बातचीत के लिए बुलाया, सोनिया गांधी 21 अप्रैल को अकेली राष्ट्रपति से मिलने गई थी और बाहर निकल कर उन्होंने 272 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था। लोकसभा भंग करने का आदेश जारी करते समय 26 अप्रैल 1999 को राष्ट्रपति भवन से जो बयोरा दिया गया, उसमें सोनिया गांधी के राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद पत्रकारों के सामने दिए गए बयान का हवाला दिया गया था। राष्ट्रपति से उनकी क्या बातचीत हुई, यह के आर नारायणन के जिंदा रहने तक न तो सोनिया गांधी ने किसी को कुछ बताया और न खुद के आर नारायणन ने। वीर सिंघवी ने जब अपने लेख में यह कहा कि सोनिया गांधी कभी प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहती थी, तो यह कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से राहत की बात थी, क्योंकि विपक्ष लगातार यह बातें कहता रहा कि 1999 में मुलायम सिंह ने विदेशी मूल के कारण सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया, इसीलिए लोकसभा भंग करने की नौबत आई और 2004 में सुब्रहमन्यम स्वामी की ओर से राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम को विदेशी मूल के मुद्दे पर पहले सुप्रीम कोर्ट की राय लिए जाने की याचिका लगाए जाने के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाई। सोनिया गांधी की राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम से क्या बातचीत हुई थी, यह कोई नहीं जानता। सिवा इसके कि सोनिया गांधी जब उन्हें मिलने गई थी, तो वह कांग्रेस, सहयोगी दलों और वामपंथी दलों की ओर से नेता चुनी जा चुकी थी और उसी हैसियत में राष्ट्रपति से मिलने गई थी। वहां से बाहर आने के बाद ही स्थितियां बदली और पहली बार मनमोहन सिंह का नाम सामने आया। वीर सिंघवी को दावा किए कई महीने हो चुके, लेकिन इसकी किसी भी ओर से पुख्ता पुष्टि नहीं की गई। अब जब खुद वीर सिंघवी को सोनिया गांधी से एनडीटीवी और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए इंटरव्यू करने का मौका मिला तो उन्होंने अपनी लिखी बात की पुष्टि करने के लिए उनसे पूछा-'क्या आप इस बात की पुष्टि करेंगी कि 1999 में वाजपेयी सरकार गिरने के बाद जब वह वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा कर रही थी, क्या उस समय भी मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते ?' क्या इस सवाल का कोई नकारात्मक जवाब की उम्मीद कर सकता है। सवाल पूछा ही अपनी खबर की पुष्टि के लिए किया था। राजनीति भी इस खबर की पुष्टि के लिए कहती है। इसलिए सोनिया गांधी ने वही जवाब दिया, जो उनसे मांगा गया था। लेकिन सब जानते हैं कि 1999 में वाजपेयी सरकार गिराने में अहम भूमिका सुब्रहमणयम स्वामी ने निभाई थी। अब उन्हीं सुब्रहमणयम स्वामी ने सोनिया गांधी के इस दावे का खंडन किया है कि उस समय वैकल्पिक सरकार इसलिए नहीं बन सकी, क्योंकि वह खुद प्रधानमंत्री बनना चाहती थी। पिछले कुछ अरसे से मीडिया में जानबूझ कर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने और अपने प्रिय नेताओं की बुराइयों को छुपाकर उन्हें त्यागी और मसीहा साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं। पत्रकार अपनी विचारधारा के आधार पर नेताओं को पसंद और नापसंद करने लगे हैं और उसी हिसाब से रिपोर्टिंग भी शुरू हो चुकी है। आज से बीस साल पहले पत्रकार मिशनरी के तौर पर इस धंधे में आते थे, लेकिन पिछले दो दशकों में सारी स्थिति बदल गई है। पिछले दो दशकों में दो तरह के पत्रकार पैदा हुए हैं, एक तो निष्पक्षता को छोड़कर अपनी विचारधारा का पोषण करने वाले और दूसरे पूरी तरह धंधेबाज, जो अपने हितों को पूरा करने के मौके की तलाश में रहते हैं। इनका काम सरकारों से कम कीमत पर प्लाट हासिल करना और नेताओं को खबरें छपवाने के लिए पत्रकारों को गिफ्ट देने की सलाह देना रह गया है। इन सब वजहों से आम जनता में मीडिया और पत्रकारों की छवि खराब होती जा रही है। एक समय था जब मीडिया किसी की किस्मत बना या बिगाड़ सकता था। इस मामले में भैरोंसिंह शेखावत अपना उदाहरण देते हैं। जब वह पहली बार 1952 में विधानसभा चुनाव लड़े, तो 'जयभूमि' नाम के एक साप्ताहिक अखबार में गुलाब चंद काला ने शेखावत की प्रशंसा में चार लाइनें लिख दी थीं और उसी ने हवा का रुख उनकी तरफ मोड़ दिया। तबसे शुरू हुआ राजनीतिक सफर उन्हें देश के दूसरे सबसे बड़े औहदे पर ले आया। लेकिन आज 80 फीसदी मीडिया नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान चलाकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका और गुजरात की जनता अभी भी उनके साथ है। यह है समाज में मीडिया की छवि। गुजरात के मामले में मीडिया खुद एक पार्टी बन गया और समाज की सोच को दरकिनार कर दिया। लालू यादव की ओर से साबरमती एक्सप्रेस में हुई घटना को तोड़मरोड़ कर पेश करने और उसे कानूनी जामा पहनाने की कोशिशों को मीडिया ने जिस तरह समर्थन दिया, उसका उदाहरण भी याद रखने लायक है। आतंकवादी इशरत जहां जब गुजरात में पुलिस से मुठभेड़ में मारी गई थी, तो मीडिया ने उसे बेगुनाह बताने का ऐसा सिलसिला शुरू किया कि सभी तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टियों ने उसे शहीद करार देकर सम्मानित करना शुरू कर दिया था। जबकि बाद में पाकिस्तान से लश्कर--तोइबा का बयान आया कि इशरत जहां उनके संगठन की सदस्य थी। राजनीतिक दलों ने मीडिया के बहकावे में आकर इशरत जहां को सम्मानित किया था, लेकिन इतनी बड़ी चूक पर किसी पत्रकार या निजी टीवी चैनल ने देश से माफी नहीं मांगी। नेता अगर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करते हैं तो पत्रकारों का काम उनके बयानों के साथ-साथ पाठकों और दर्शकों को इतिहास के सच को भी सामने रखने का होता है, लेकिन अब तो मीडिया खुद झूठ का स्क्रिप्ट लिख रहा है।

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