बाबरी ढांचा टूटने के साढ़े सोलह साल बाद जस्टिस एमएस लिब्राहन ने तीस जून को अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। जबकि आयोग के अध्यक्ष के नाते उनकी नियुक्ति ढांचा टूटने के दसवें दिन सोलह दिसंबर 1992 को हो गई थी। तीन-तीन महीने करके उन्होंने 48 बार अपना कार्यकाल बढ़वाया। भारतीय संसद के इतिहास में किसी भी आयोग ने इतना लंबा समय नहीं लिया। ढांचा टूटने और आयोग के गठन की घटना कांग्रेस शासन में हुई थी और रिपोर्ट भी कांग्रेस शासन में ही आई। सरकार किसी भी आयोग की रिपोर्ट ज्यादा से ज्यादा छह महीने अपने पास रख सकती है। छह महीने में उसे आयोग की रिपोर्ट संसद पटल पर रखनी ही होगी। मनमोहन सिंह सरकार फूंक-फूंककर कदम रखना चाहती है क्योंकि वह पहले भांप लेना चाहती है कि इससे राजनीतिक फायदा और नुकसान क्या होगा।
डेढ़ महीना पहले ही कांग्रेस सोलह साल बाद इस स्थिति में आई है कि केन्द्र में बिना ज्यादा दबाव के सरकार बनाने में कामयाब हुई। इन सोलह सालों में मुसलमान कांग्रेस से बेहद नाराज था, जिस कारण वह 1996 से ही सत्ता से बाहर थी। पांच साल पहले 2004 के लोकसभा चुनाव में वह दर्जनभर राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल करके सरकार बनाने में कामयाब जरूर हुई थी। लेकिन 2009 के चुनावों में पहली बार मुसलमान कांग्रेस की तरफ लौटते हुए दिखाई दिए। सरकार लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को पढ़ने के बाद यह देखेगी कि वह इसकी किन-किन सिफारिशों पर कार्रवाई कर सकती है और किन-किन सिफारिशों पर कार्रवाई नहीं कर सकती।
आयोग की रिपोर्ट अपनी जगह पर है, लेकिन ऐसा मानने वालों की कमी नहीं कि तत्कालीन नरसिंह राव सरकार भी ढांचा टूटने के लिए कम कसूरवार नहीं थी। नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री पद से अपने और कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिए जाने के बाद 2006 में लिखी अपनी किताब 'अयोध्या : छह दिसंबर 1992' में अपने कांग्रेसी सहयोगियों के बारे में लिखा है- 'मैंने अपने सहयोगियों को यह सब समझाने की कोशिश की, लेकिन उनके दिमाग पर राजनीति और वोट हासिल करने का सवाल ही सवार था। उन्होंने इस दुर्घटना के लिए एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराने का अपना मन बना लिया था। अगर सफलता मिल जाती (जैसा कि शुरू के महीनों में दिखाई दे रहा था) तो वह इसका श्रेय खुद भी लेने से नहीं हिचकिचाते। इसलिए उनकी निगाह सिर्फ जीत पर थी या विफलता की स्थिति में वे बलि का बकरा ढूंढ रहे थे। यह उनकी सही रणनीति होगी। वे बाद में ऊंची आवाज में दावा करने लगे कि बाबरी मस्जिद टूटने के कारण मेरी वजह से कांग्रेस को मुस्लिम वोट नहीं मिले।' नरसिंह राव के इस कथन से साफ है कि वह मोटे तौर पर इस धारणा से सहमत थे कि सोलहवीं सदी में बाबर ने रामजन्म भूमि मंदिर तुड़वाकर वह मुस्जिदनुमा ढांचा खड़ा किया था। बाबरी ढांचा टूटने के बाद उन्होंने राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश और दिल्ली की भाजपा सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। इन सभी राज्यों में बाद में कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी। इसलिए नरसिंह राव ने अपनी किताब में लिखा है कि शुरू के महीनों में जब उन्हें सफलता मिल रही थी तो कांग्रेसी इतने नाराज नहीं थे। हालांकि नरसिंह राव ने अपनी पार्टी में फैले असंतोष को भांपते हुए सात दिसंबर 1992 को पार्लियामेंट में कहा था- 'बाबरी मस्जिद का टूटना बहुत ही बर्बर घटना हुई है और सरकार देखेगी कि यह कैसे दुबारा बने।' नरसिंह राव का यह बयान बाबरी ढांचा टूटने और उसकी जगह पर छोटा सा अस्थाई मंदिर बन जाने के कुछ घंटे बाद ही आया था।
सवाल यह है कि बाबरी ढांचा टूटने की जांच करने वाले लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट संसद पटल पर रखे जाने और रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई किए जाने से समस्या का हल कैसे होगा। यह अलग बात है कि रिपोर्ट में क्या सिफारिश की गई है। लालकृष्ण आडवाणी यह दावा करते रहे हैं कि उन्होंने लोगों को ढांचे के ऊपर चढ़ने से रोकने की कोशिश की थी, लेकिन भीड़ ने उनकी एक नहीं सुनी। जबकि दूसरी तरफ यह दावा किया जाता रहा है कि लालकृष्ण आडवाणी ने कार सेवकों के हौंसला अफजाई की थी। वह अपनी किताब 'माई कंट्री माई लाइफ' में लिखते हैं- 'नेताओं के भाषण शुरू होने से पहले ही करीब दस बजे किसी ने आकर हमें बताया कि कार सेवकों का एक छोटा ग्रुप ढांचे के ऊपर चढ़ गया। यह रामपुर से दिखाई भी दे रहा था। मंच पर बैठे नेताओं ने ऊपर चढ़े कार सेवकों को नीचे आने की अपील की। लेकिन किसी ने एक नहीं सुनी। अलबत्ता गुबंद पर और ज्यादा लोग दिखाई देने लगे। मुझे मंच से दिखाई दे रहा था कि वे गुबंद पर हथौड़े चलाने लगे। मैं व्यथित हो गया, मेरी तरह मंच पर बैठे दूसरे लोग भी व्यथित थे। हमने महसूस किया कि कुछ गड़बड़ हो रहा है। हमने बार-बार अपील की और अनुशासन बनाए रखने के लिए कहा। आरएसएस नेता हो. वे. शेषाद्री कई भाषाएं जानते थे और उन्होंने सब भाषाओं में अपील की। राजमाता सिंधिया आंदोलन की अगुवा थी। उन्होंने अपील करते हुए कहा- मैं आप सबकी मां की तरह आपसे अपील करती हूं कि जो कुछ आप कर रहे हैं, उसे न करें। इन सब अपीलों से यह स्पष्ट है कि वहां जो कुछ हो रहा था वह रामजन्म भूमि आंदोलन के सिध्दांतों और लक्ष्यों के विपरीत था।' उन्होंने उमा भारती और प्रमोद महाजन को वहां भेजने और विफल होकर लौटकर आने का जिक्र भी किया है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि आयोग लालकृष्ण आडवाणी को इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराता है या नहीं। वैसे आयोग की रपट का अदालत में चल रहे मुकदमे पर कोई असर नहीं होगा। क्योंकि अदालत अपने सामने प्रस्तुत गवाहों और दस्तावेजी सबूतों के आधार पर फैसला करती है। जहां तक बाबरी ढांचा टूटने की साजिश रचने का आरोप है, तो अदालत उसे खारिज कर चुकी है। इसलिए अगर आयोग किसी साजिश रचे जाने की तरफ इशारा भी करेगा, तो उसका कानूनी मतलब कुछ नहीं होगा। साजिश के मामले में अदालतें कई बार आरोपियों को बरी कर चुकी हैं। अदालत में भी जनवरी 1993 से केस लड़ा जा रहा है। असल में यह केस उसी समय कमजोर हो गया था जब केन्द्र की सिफारिश पर दूसरी एफआईआर दाखिल की गई थी। ढांचा टूटने के बाद पहली एफआईआर 41 लोगों के खिलाफ थी, उनमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डालमिया, परमहंस और साध्वी ऋतम्भरा के नाम नहीं थे। इनके खिलाफ उसी दिन दूसरी एफआईआर लिखी गई। इस समय इन सभी के खिलाफ धारा-149 (दंगे के लिए उकसाने) और धारा-505 (एक)- भड़काऊ भाषण देने का मुकदमा लंबित है। उन्नीस सितम्बर 2003 को रायबरेली की अदालत ने लालकृष्ण आडवाणी को इस मुकदमे से भी बरी कर दिया था लेकिन मुरली मनोहर जोशी और अन्यों पर मुकदमा जारी था। बाद में हाईकोर्ट ने सीबीआई अदालत के आडवाणी को बरी करने के फैसले को अनुचित ठहरा दिया था।
अब सबकी निगाह लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर इसलिए है क्योंकि इसके राजनीतिक मायने हैं। आयोग की रिपोर्ट लोकसभा चुनाव में हार के बाद ठंडी पड़ी भाजपा में नए सिरे से जान भी फूंक सकती है। संभवत: सरकार को इसी का अंदेशा है, इसलिए वह फूंक-फूंककर कदम रखना चाहती है। अभी तो चुनाव में हार के कारण लालकृष्ण आडवाणी निराशा का शिकार हैं, लेकिन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर उनके खिलाफ नए सिरे से एफआईआर दर्ज की गई या कोई अन्य कार्रवाई की गई तो वह लोकसभा से इस्तीफा देकर नए जोश के साथ मैदान में कूद सकते हैं। बाबरी ढांचा टूटने की घटना को अपनी जिंदगी का सबसे निराश दिन बताने वाले लालकृष्ण आडवाणी यह भी कहने से नहीं चूकते कि छह दिसंबर को अयोध्या में जो कुछ हुआ वह इतिहास बदलने की असामान्य घटना थी। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है- 'चार सौ साल से यह ढांचा हिंदुओं के पवित्र शहर में खड़ा था। हिंदू इसे भगवान राम का जन्मस्थल मानते हैं, हिंदुओं ने इस जमीन को हासिल करने के लिए लंबी लडाई लड़ी और अंतत: गुस्से से भरी भीड़ ने इसे तोड़ दिया।' लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के भीतर विचारधारा का द्वंद चल रहा था। आडवाणी के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों का भी मानना था कि पार्टी का आधार बढ़ाने के लिए रामजन्म भूमि मंदिर जैसे मुद्दों से किनारा कर लेना चाहिए। लेकिन लिब्राहन आायेग की रिपोर्ट आने से सिर्फ दो दिन पहले अपनी कार्यकारिणी में भाजपा ने हिंदुत्व और तीनों विवादास्पद मुद्दों पर टिके रहने का फैसला किया है, इसलिए लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट भाजपा के लिए प्राणवायु का काम भी कर सकती है। हालांकि दूसरे दलों को साथ लेकर चलने का उसका सपना पूरी तरह धराशाही हो जाएगा और यह पहले से बुलंद हौंसले वाली कांग्रेस के लिए मुनाफे का सौदा होगा।
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