ममता से मुकाबले के लिए माकपा ने खुद माओवादियों को बंगाल में बुलाया। अब माओवादी किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के जख्मों पर मरहम रख खोद रहे हैं वामपंथी जमीन।
अंग्रेज देश की राजधानी तो कोलकाता से दिल्ली ले आए थे। लेकिन आजादी के बाद पचास के दशक तक कोलकाता देश की आर्थिक राजधानी बनी हुई थी। देश के राजस्व का चालीस फीसदी कोलकाता से आता था। साठ के दशक में ज्योति बसु और प्रमोद दासगुप्त नाम के दो वामपंथियों ने खेत मजदूरों और कामगारों की एटक में भर्ती शुरू की। बड़े पैमाने पर मार्क्सवादी थ्योरी पर आधारित पुस्तकें और पैंम्फलेट तैयार करके पढ़े-लिखे लोगों को प्रभावित करने में सफलता हासिल की गई। जमीनी तौर पर मजबूत होते ही कम्युनिस्टों ने अपने काडर के अलावा बाकी सभी को बुर्जुआ, सामंती, अमेरिका का पिट्ठू और सीआईए का एजेंट कहना शुरू कर दिया। प्रशासनिक पदों पर तैनात अधिकारियों, व्यापारिक संस्थानों और औद्योगिक घरानों को जनविरोधी, गरीब विरोधी, किसान विरोधी और वर्कर विरोधी कहा गया।
उन्होंने कहा कि मार्क्सवादी विचारधारा किसानों, मजदूरों की रक्षा करने वाली है, जबकि बाकी सब शोषक हैं। मार्क्सवादी नेताओं और वर्करों की इस भाषा ने मजदूरों और किसानों मे जादू का काम किया। इसका नतीजा एक साल के भीतर ही 1962 के विधानसभा चुनाव में दिखाई देने लगा। जब उन्होंने 70 सीटें जीत ली। सत्तर सीटें जीतकर मार्क्सवादी उद्योगपतियों, व्यापारिक घरानों और सरकारी अफसरों के खिलाफ और हमलावर हो गए। अगले चुनाव यानी 1967 में कांग्रेस हतोत्साहित पार्टी बन चुकी थी। राममनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने देशभर में कांग्रेस के सामने सशक्त विकल्प खड़ा करने का बीड़ा उठा लिया था। कांग्रेस से नाराज चल रहे उत्तर प्रदेश के चौधरी चरण सिंह और बंगाल के गांधीवादी अजय मुखर्जी जैसे नेता पार्टी छोड़कर बाहर आ गए। नतीजा यह निकला कि 1967 के लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में कांग्रेस को पहली बार बड़े मुकाबले का सामना करना पड़ा। लोकसभा में कांग्रेस बहुत अल्प बहुमत में रह गई जबकि छह राज्यों में उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उत्तर प्रदेश में चरण सिंह और बंगाल में अजय मुखर्जी की रहनुमाई में सविंद सरकारें बनी। बंगाल में वामपंथी भी सरकार में शामिल थे, जिसमें ज्योति बसु को उप मुख्यमंत्री बनाया गया था।
बेहद सामान्य जीवन जीने वाले गांधीवादी अजय मुखर्जी को कम्युनिस्टों ने जल्द ही बुर्जुआ, जनविरोधी और गरीब विरोधी कहना शुरू कर दिया। कम्युनिस्टों को विकास और सुशासन से कोई मतलब नहीं था। उनका एक ही मकसद था कि उनका प्रभाव पूरे राज्य में कैसे फैले। कम्युनिस्टों के सरकार में शामिल होने से सरकारी दफ्तरों, औद्योगिक कारखानों, व्यापारिक संस्थानों में दहशत का वातावरण छाने लगा। धरने, प्रदर्शन, हड़तालें आम बात हो गई। कम्युनिस्ट काडर अपने संस्थान के मुखियाओं और इलाके के थानेदारों को धमकाने लगे। राज्य की आर्थिक गतिविधियां थम गई, स्थिति खराब हो गई, तो 1969 में राज्यपाल ने केन्द्र की सलाह से राष्ट्रपति राज की सिफारिश करते हुए विधानसभा भंग कर दी। राष्ट्रपति राज में कम्युनिस्टों ने कानून व्यवस्था को इतना तहस-नहस कर दिया कि कांग्रेसियों के हौंसले टूट गए। नतीजतन चुनाव में वामपंथी बाजी मार ले गए और सत्ता हासिल करने के बाद उन्होंने केन्द्र सरकार के साथ सीधा टकराव शुरू कर दिया। कानून व्यवस्था की हालत इतनी बदतर हो गई कि इंदिरा गांधी को एक बार फिर 1971 में राष्ट्रपति राज लगवाना पड़ा। राष्ट्रपति राज लगते ही कम्युनिस्टों ने खुली हिंसा शुरू कर दी। हालत यह हो गई कि चुनाव में कांग्रेस को उम्मीदवार मिलने मुश्किल हो गए। जिन्होंने पर्चे भरे, वे पर्चा भरने के बाद भूमिगत हो गए, लेकिन बंगाल की आम जनता वामपंथियों के हिंसक तरीकों से तंग आ चुकी थी। बिना प्रचार और उम्मीदवारों की गैर मौजूदगी में ही कांग्रेस 100 से ज्यादा सीटें जीत गई। इसके बावजूद सरकार ज्योति बसु की बनी, लेकिन चुनाव नतीजों से उत्साहित कांग्रेसी कार्यकर्ता वामपंथी कार्यकर्ताओं के सामने खड़े होने की हिम्मत जुटाने लगे। जगह-जगह राजनीतिक खूनी संघर्षों के दौर शुरू हो गए। इंदिरा गांधी ने बंगाल के कानून व्यवस्था को देखते हुए एक बार फिर 1973 में विधानसभा भंग कर दी। इस बार जनता ने कम्युनिस्टों को सबक सिखाते हुए उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। आखिरकार सिध्दार्थ शंकर राय की रहनुमाई में कांग्रेस की सरकार बनी।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ने 1977 में सारे देश के हालात बदल दिए, बंगाल में इसका सीधा फायदा वामपंथियों को हुआ और एक बार फिर वामपंथी सरकार बन गई। तब से सत्ता पर कब्जा बनाए रखने के लिए वामपंथियों ने हर गैर अलोकतांत्रिक तरीका इस्तेमाल किया। तीस साल के कम्युनिस्ट शासन ने बंगाल की लोकतांत्रिक व्यवस्था को खोखला कर दिया है। पुलिस थानों और जिला कलेक्ट्रेट पर स्थानीय इकाई के सीपीएम सचिव का हुकम चलने लगा। वामपंथियों ने जमीन के बंटवारे के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी जिसमें जमीन तो किसी और के नाम पर होती थी जबकि भूमिहीन मजदूरों को फसल का हिस्सा मिलने लगा। पश्चिम बंगाल के कानून के मुताबिक या सीपीएम की स्थानीय इकाई की ओर से अधिकृत सूचीबध्द और गैर सूचीबध्द फसल के हिस्सेदार भी बनाए गए। सिंगूर और नंदीग्राम में कृषि भूमि को उद्योग के लिए इस्तेमाल करने के सरकारी फैसले में बवाल इसी लिए पैदा हुआ, क्योंकि जमीन की आर्थिक भरपाई सिर्फ जमीन के मालिक को हो रही थी। जबकि फसल के बाकी हिस्सेदार और भूमिहीन किसानों को कोई फायदा नहीं हो रहा था, जो कि उसी भूमि पर निर्भर थे। नंदीग्राम और सिंगूर ने वामपंथी दलों के भूमिहीन किसानों को जमीन मुहैया करवाने और भू सुधार के दावे की पोल खोल दी। वामपंथी विचारधारा के बुध्दिजीवी पिछले तीन दशक से दुनियाभर में बंगाल के भू सुधार का ढिंढोरा पीट रहे थे। बंगाल में भूमिहीन किसानों की तादाद जमीन मालिकों से डेढ़ गुना ज्यादा है। जबकि देश के किसी भी अन्य प्रांत में ऐसा नहीं है।
तीस साल के कम्युनिस्ट राज के बाद बंगाल अब देश की आर्थिक राजधानी नहीं रही, अलबत्ता बेरोजगारी से हताश युवक सड़कों पर उतर आए हैं। बंगाल में भूमिहीन किसानों और मजदूरों की इतनी बड़ी तादाद पैदा करने के लिए सिर्फ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जिम्मेदार है। बंगाल में उन्होंने कृषि मजदूरों को फसल का हिस्सेदार बनाया, लेकिन उन्हें अपनी पार्टी का बंधक बना लिया। जमीन मालिक सिर्फ उन्हीं मजदूरों को फसल का हिस्सा देते हैं, जिन्हें माकपा की स्थानीय इकाई की ओर से अधिकृत किया जाए। वोट बैंक की राजनीति करते हुए 1981 में वामपंथी सरकार ने सभी सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों के अध्यापकों का वेतन सरकारी खजाने से देना शुरू कर दिया। मकसद था सारे स्कूल टीचरों को पार्टी का बंधक बनाना। जहां सारे देश में अनपढ़ता घट रही है वहां बंगाल के चालीस फीसदी गांवों के पांच किलोमीटर दायरे में मिडिल स्कूल नहीं हैं। जहां गांवों में कृषि अर्थव्यवस्था बर्बाद होने के कारण मजदूरों की तादाद जरूरत से ज्यादा हो चुकी है, वहां वे उद्योग-कारखानों में नौकरी पाने के अयोग्य हैं। क्योंकि सरकार ने उन्हें इस लायक बनाने की कोशिश ही नहीं की। कम्प्यूटर का विरोध करने वाले सीटू नेता कामरेड चित्तब्रत मजूमदार को माकपा ने राज्यसभा का सदस्य बनाया हुआ है, वह माकपा की पोलित ब्यूरो के भी सदस्य हैं।
नंदीग्राम और सिंगूर के बाद अब लालगढ़ कम्युनिस्टों के खिलाफ उबल पड़ा है। नंदीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ स्थानीय टकराव या इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं हैं। पिछले तीस साल से बंगाल में बंदूक के बल पर चल रही कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ अंदर ही अंदर उबल रहे लावे का विस्फोट है। जापान, चीन और रूस के कुछ क्षेत्रों में जिस तरह वालकेनो आते रहते हैं, कुछ-कुछ वही हालत कम्युनिस्टों के बंगाल की हो गई है। अब यह लावा कहीं न कहीं तब तक फूटता रहेगा, जब तक बंगाल में कम्युनिस्ट शासन का अंत नहीं हो जाता। सिंगूर और नंदीग्राम में ममता बनर्जी ने स्थानीय जनता को पुलिस और सशस्त्र वामपंथी काडर के मुकाबले खड़ा होना सीखा दिया है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पिछले दो साल से कह रहे हैं कि ममता बनर्जी की माओवादियों से सांठगांठ है। असल में 1998 में माओवादी बंगाल में घुसे तक नहीं थे, ममता बनर्जी ने भाजपा से हाथ मिलाकर केन्द्र में सत्ता हासिल कर ली तो माकपा ने माओवादियों से मदद हासिल की थी। माओवादियों से समर्थन हासिल करने की रणनीति माकपाई मंत्री सुशांत घोष ने बनाई थी। माओवादी रणनीतिकार कोटेश्वर राव ने हाल ही में एक इंटरव्यू में खुलासा किया है कि समझौते के तहत उन्होंने खुद माकपा दफ्तर से बंदूक और गोलियां हासिल की थी। माओवादियों ने पांव जमाने शुरू किए तो उन्होंने आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की हालत देखकर उन्हें एकजुट करना शुरू किया। इसकी भनक लगते ही वामपंथियों ने माओवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। साठ के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी ने जिन मजदूरों-किसानों को ढाल बनाकर एटक के माध्यम से उद्योग धंधों, व्यापारिक संस्थानों से लेकर सरकार और पुलिस थानों पर कब्जा करना शुरू किया था, अब उसी तरह माओवादियों ने भूमिहीन किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को ढाल बनाकर लालगढ़ के रास्ते से बंगाल में वामपंथी किला ढहाना शुरू कर दिया है। लोकसभा चुनाव में वामपंथियों की हार के बाद माकपा काडर हतोत्साहित है और माकपा काडर पर आधारित पुलिस थाने खाली होने लगे हैं।
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