एटमी करार का मकसद?

Publsihed: 29.Jul.2006, 20:35

परमाणु ऊर्जा के बिना भी देश चल रहा था। अमेरिका ने इंदिरा गांधी के जमाने में परमाणु परीक्षण के बाद तारापुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र को ईंधन की सप्लाई बंद करवा दी, तब भी देश चल रहा था। वाजपेयी ने इन प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए देश को पूरी तरह परमाणु संपन्न देश बनाने के लिए आखिरी परमाणु परीक्षण कर डाला। लेकिन यूपीए सरकार आने के बाद परमाणु ऊर्जा की इतनी जरूरत क्यों आन पड़ी जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिना वैज्ञानिकों की सलाह लिए अमेरिका की ऐसी-ऐसी शर्तें मान लीं, जो नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी ने भी कभी नहीं मानी थी।

माना- भारत को ऊर्जा की बहुत जरूरत है, पर इसके लिए अमेरिका के आगे गिड़गिड़ाना क्यों। वाजपेयी सरकार के समय कई बार ऐसा लगता था कि सरकार अमेरिका समर्थक नीतियां अपना रही है। जसवंत सिंह के अमेरिका समर्थक बयानों पर मैंने हमेशा एतराज किया। लेकिन अब कहना पड़ेगा कि यूपीए के मुकाबले राजग सरकार कहीं बेहतर थी। जिसने अमेरिका को अंधेरे में रखकर परमाणु विस्फोट किया और भारत को परमाणु शक्ति बना दिया था। वाजपेयी ने अमेरिका के हर तरह के आर्थिक और तकनीक संबंधी प्रतिबंध मंजूर किए, प्रतिबंधों का सामना किया, लेकिन अमेरिका के सामने तकनीक के लिए गिड़गिड़ाए नहीं। यह वाजपेयी का आत्मविश्वास ही था कि उन्होंने देश को आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाया और प्रतिबंधों के बावजूद देश को प्रगति पथ पर ले गए। भले ही उनका 'फील गुड' का नारा नहीं चला, लेकिन उस समय भारत का हर नागरिक आत्म सम्मान के मामले में 'गुड फील' कर रहा था, जो आज बुश-मनमोहन समझौते के बाद डगमगा गया है। उस समय भी जसवंत सिंह और स्ट्रा टालबोट में भारत-अमेरिका संबंधों को लेकर बातचीत के कई दौर चले। तब कई बार लगा था कि जसवंत सिंह भारत के घुटने टिकवा कर ही रहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, पता नहीं अटल बिहारी वाजपेयी के कारण ऐसा नहीं हुआ या खुद जसवंत सिंह जैसा दिखते थे, अंदर से वैसे थे नहीं। उस समय आम लोगों की धारणा थी कि जसवंत सिंह भारत को अमेरिका के काकस में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अब जब बुश-मनमोहन का परमाणु समझौता हुआ है, तो यह बात भी जाहिर हो गई है कि जसवंत सिंह की टालबोट से जो बात हो रही थी, उसमें ऐसी भारत विरोधी शर्तें नहीं थीं, जो मौजूदा समझौते में एक-एक कर शामिल हो रही हैं। अमेरिकी के हाउस आफ रिप्रजेंटेटिव ने पिछले हफ्ते भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन और उससे संबंधित तकनीक और मेटेरियल देने के लिए अपने कानून में फेरबदल का जो बिल पास किया है, उसमें ऐसी शर्तें लग गई हैं, जिससे भारत का परमाणु कार्यक्रम ही रुक जाएगा। भारत ने अपनी आन, बान, शान के लिए सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं किए, एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी आखिर तक इसको भेदभावपूर्ण बताकर विरोध करते रहे, अटल बिहारी वाजपेयी चाहते- तो परमाणु हथियार बनाने के बाद दस्तखत कर देते। वह भारत को परमाणु संपन्न देश बना चुके थे और वह मौजूदा प्रधानमंत्री से कहीं ज्यादा ताकतवर थे, फिर भी उन्होंने ऐसा नहीं किया। वाजपेयी ने देश को परमाणु हथियार संपन्न घोषित करने के बाद भविष्य में न सिर्फ परीक्षण पर स्वयंस्फूर्त प्रतिबंध का एलान किया अलबता पहले परमाणु बम के इस्तेमाल न करने का एलान करके भारत की शांति के प्रति प्रतिबध्दता को दोहराया, फिर भी एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए। मनमोहन ने बुश के साथ 18 जुलाई 2005 को साझा बयान जारी किया, तो वाजपेयी ने कड़ा एतराज और आशंकाएं जाहिर की थी। तब बहुतेरे लोगों को लगा था कि वह विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना था कि इस समझौते का बीज वाजपेयी ने खुद रोपा था। उस समय मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी ने वाजपेयी के सब आरोपों को खारिज किया था, लेकिन अब वही आशंकाएं सही साबित हो रही है। मनमोहन सिंह ने कहा था- 'भारत के सामरिक हितों से समझौता नहीं होगा।' पर अमेरिकी कांग्रेस में पास हुए प्रस्ताव का लबोलुबाब है- 'मनमोहन के साथ हुआ समझौता एनपीटी पर दस्तखत जैसा ही है। अगर परमाणु ऊर्जा के बदले अमेरिका को इस्लामिक कट्टरवाद के खिलाफ भारत का समर्थन मिले, तो यह किसी भी हालत में उसके लिए घाटे का सौदा नहीं होगा। अमेरिका का मकसद इस समय ईरान के खिलाफ भारत का समर्थन हासिल करना है। बुश-मनमोहन साझा बयान के समय यह शर्त थी, या नहीं इसे साफ-साफ नहीं कहा जा सकता, यह रहस्य भी कभी न कभी विस्फोटक रूप में उभरेगा। लेकिन हालात बताते हैं कि आईएईए की बैठक में ईरान के खिलाफ भारत के वोट का बीजारोपण 18 जुलाई 2005 के साझा बयान में ही हो गया था। अगर यही सच है, तो अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या भारत की स्वतंत्र विदेश नीति जिंदा रह पाएगी। अगर ईरान के खिलाफ आईएईए का यही मतदान वाजपेयी सरकार के समय हुआ होता, तो मौजूदा यूपीए और वामपंथी दल अविश्वास प्रस्ताव लेकर आते। लेकिन ईरान के खिलाफ भारत का मतदान यूपीए सरकार के समय हुआ, इसलिए वामपंथियों ने भी दिखावे का विरोध करके चुप्पी साध ली। इस घटना के बाद धीरे-धीरे अब यह बात साफ होने लगी है और आशंका बढ़ने लगी है कि भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन किन शर्तों पर दिया जाएगा। आशंका तो यहां तक पैदा हो गई है कि कहीं यूपीए सरकार भारत को अमेरिका का दुमछल्ला ही न बना दे। बुश के साथ साझा बयान के बाद प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था- 'अमेरिका परमाणु ऊर्जा ईंधन ही नहीं, अलबता तकनीक में भी सहयोग देगा।' लेकिन अमेरिकी सीनेट का प्रस्ताव मनमोहन सिंह के दावे के बिलकुल विपरीत है। यह प्रस्ताव कहता है- 'यूरेनियम संवर्धन, परमाणु ईंधन के पुन: इस्तेमाल या भारी पानी के उतपादन की तकनीक, उपकरण या मेटेरियल का निर्यात नहीं हो सकता।' यानी समझौते के बावजूद भारत पर तकनीक आयात के प्रतिबंध जारी रहेंगे। मनमोहन सिंह ने भरी संसद में कहा था- 'हम परमाणु ऊर्जा संयंत्रों और परमाणु बम बनाने वाले संयंत्रों को अलग-अलग करेंगे और इसके बदले अमेरिका अपने कानून में बदलाव करेगा, जिससे भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन और तकनीक मिलने का रास्ता खुलेगा। हम आईएईए को निगरानी का हक तब देंगे। जब भारत से सारे प्रतिबंध हटेंगे।' पर अमेरिकी कांग्रेस के ताजा बिल में कहा गया है 'भारत को हर साल सर्टिफिकेट देना होगा। जिसमें बताना होगा कि भारत ने परमाणु संवर्धन नहीं किया।' यानी भारत के परमाणु बम बनाने पर प्रतिबंध होगा, लेकिन मनमोहन सिंह ने तो सदन में कहा था- 'ऐसा नहीं होगा।' मनमोहन ने कहा था- 'जब परमाणु ऊर्जा ईंधन भारत को देने का अमेरिकी कानून बन जाएगा, तो भारत आईएईए से समझौते की बातचीत करेगा।' पर अब खबर आई है कि पहले भारत आईएईए से बातचीत शुरू करे तब अमेरिकी प्रस्ताव पास होगा। पिछले हफ्ते मनमोहन सिंह को इन सब बातों के लिए संसद के कटघरे में खड़ा किया गया, तो उन्होंने देश को एक बार फिर आश्वासन दिया है कि वह अमेरिका को 18 जुलाई 2005 के साझा बयान से इधर-उधर नहीं होने देंगे। हालांकि 18 जुलाई 2005 का साझा बयान ही कोई कम मारक नहीं है। अमेरिका का असली चेहरा धीरे-धीरे सामने आ रहा है, मनमोहन सिंह उस समय साझा बयान से काफी उतसाहित थे और उन्होंने संसद में कहा था- 'भारत न एनपीटी देशों में होगा, न गैर एनपीटी देशों में। उसके लिए अलग प्रोटोकाल बनेगा।' पर अब यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि भारत उन कुछ देशों में होगा, जिन पर अतिरिक्त प्रोटोकाल पहले से लागू है। इस अतिरिक्त प्रोटोकाल के मुताबिक भारत परमाणु हथियार रहित देश होगा। यानी मनमोहन सिंह ने वाजपेयी के किए-कराए पर पानी फेर दिया है, आईएईए जब भारत को परमाणु देश ही नहीं मानेगा तो भारत का परमाणु कार्यक्रम आगे चलेगा कैसे। क्या ऐसा करना नेहरू, इंदिरा के सपने तोड़ना नहीं होगा। यह तो एनपीटी पर दस्तखत करने की हालत से भी बुरा होगा। मनमोहन सिंह ने सात मार्च को संसद में वादा किया था- 'हम गैर सैन्य परमाणु संयंत्रों पर निगरानी का हक देंगे। तो बदले में अमेरिका परमाणु ऊर्जा ईंधन सप्लाई की गारंटी देगा। अगर अमेरिका इस गारंटी से मुकरा। तो अमेरिका एनएसजी के बाकी देशों से ईंधन दिलाएगा।' पर बुश ने मनमोहन के इस सपने को भी तोड़ दिया है, इसी 29 जून को अमेरिकी सीनेट में एक बिल पास हुआ है जिसकी धारा 102 (6) में लिखा है- 'भारत को ईंधन दिलाने के लिए न तो अमेरिका किसी अन्य देश को कहेगा, न बीच में पड़ेगा। अलबता ऐसा करना अमेरिकी कानून का उल्लंघन होगा। अगर किसी कारण बाद में भारत को ईंधन रोका गया। तो अमेरिकी राष्ट्रपति एनएसजी देशों से बात करेगा ताकि वे भी भारत को संयंत्र, मेटेरियल और तकनीक का निर्यात रोकें।' अब बताओ- कहां निभा रहा है अमेरिका अपना वादा। अगर अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा। अमेरिका का मकसद साफ है- भारत अपने पैरों पर खड़ा न हो सके। भारत परमाणु ऊर्जा की तरफ ध्यान देने की बजाए अगर थोरियम के विकास पर जोर देता। तो भारत की स्थिति दुनिया में सबसे बेहतर हो सकती थी और जैसे ही अमेरिका को इस बात का पता चला कि भारत थोरियम के विकास के बारे में सोच रहा है, उसने भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन का लालच देकर गलत रास्ते पर डाल दिया है।

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