सरकार से खफा देश की तीन सर्वोच्च शक्तियां

Publsihed: 22.Jul.2006, 20:35

आजादी के इतिहास में यह पहला मौका आया है जब देश की तीन सर्वोच्च शक्तियां मौजूदा परिस्थितियों से बेहद खफा हैं। राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम इस वजह से बेहद खफा बताए जाते हैं कि जब उन्होंने लाभ के पद संबंधी 36 सांसदों की छानबीन का काम चुनाव आयोग को भेज दिया था, तो न्याय प्रक्रिया में बाधा डालते हुए यूपीए सरकार ने सोनिया गांधी और सोमनाथ चटर्जी समेत उन 36 सांसदों की सदस्यता बचाने के लिए कानून में फेरबदल करने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और बाकी जज भी इस बात के लिए खफा हैं कि अदालत जो भी अच्छा फैसला करती है उसे मौजूदा यूपीए सरकार या तो लागू नहीं करती या फैसले को नेस्तनाबूद करने के लिए कानून में संशोधन कर देती है।

हाल ही में दिल्ली के अवैध निर्माण गिराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एमसीडी को जो हुकम दिया था, उस हुकम को यूपीए सरकार ने संसद से कानून बनवा कर रोक दिया। अब यूपीए सरकार की सच्चर कमेटी ने जजों की सांप्रदायिक आधार पर गिनती करवाने का आदेश देकर न्यायपालिका को बेहद खफा कर लिया है। तीनों सेनाओं के प्रमुख यूपीए सरकार के इसी तरह के कदम की पहले ही खुलकर मुखालफत कर चुके हैं। आजादी के बाद पिछले 59 सालों में शायद ऐसा मौका कभी नहीं आया जब किसी सरकार से देश के तीनों सर्वोच्च संस्थान खफा हों। ऐसा लगता है कि आने वाले दो महीने टकराव को और बढ़ाने वाले साबित होंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकेत दे दिया है कि राष्ट्रपति की आपतियों के बावजूद यूपीए सरकार लाभ के पद संबंधी बिल से पीछे नहीं हटेगी। अलबता ऐसा लगता है कि सरकार उन आपतियों पर गौर करने को भी तैयार नहीं है जिन्हें महामहिम राष्ट्रपति ने राज्यसभा को वापस भेजे गए बिल में उठाया है। कांग्रेस से संकेत मिल रहे हैं कि बिल को उसी शक्ल में दुबारा संसद से पास करवाया जाएगा। राष्ट्रपति से टकराव की भूमिका 20 जुलाई को बन गई जब एक तरफ केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस मुद्दे पर कोई विचार ही नहीं किया और दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल सरकार ने चुनाव आयोग को माकपा के आठ सांसदों के लाभ के पद पर मौजूद होने के बारे में मांगी गई सूचनाएं देने से इनकार कर दिया। वामपंथी दल संवैधानिक संस्था की ओर से मांगी गई सूचना नहीं देने पर क्या सफाई देंगे, यह कहना मुश्किल है। सूचना के हक की लड़ाई लड़ने का श्रेय लेने में वामपंथी संवैधानिक संस्था को ही मांगी गई सूचना देने को तैयार नहीं, वह सूचना भी आयोग ने राष्ट्रपति की हिदायत पर मांगी थी। वैसे वामपंथियों को तो चाहिए था कि वह उस सूचना को आयोग के सुपुर्द करने के साथ-साथ जनता को भी मुहैया करवा देते जिसमें बताया जाता कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का दम भरने वाले लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी कितने सालों से सांसद होने के बावजूद शांति निकेतन विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर भी मौजूद थे और उस नाते वह क्या-क्या सुविधाएं हासिल कर रहे थे। लेकिन हैरानी तब हुई जब न्यायपालिका से टकराव लेने वाले वामपंथियों की सरकार ने संवैधानिक संस्था को भी ठेंगा दिखा दिया। जब मैं कहता हूं कि आने वाले दो महीने अति महत्वपूर्ण होंगे, तो उसमें मैं कई आशंकाएं देख रहा हूं। पहली आशंका तो यह है कि यूपीए सरकार का सुप्रीम कोर्ट के साथ जुलाई-अगस्त महीने में टकराव बढ़ेगा। दूसरी आशंका मैं यह देखता हूं कि यूपीए सरकार मानसून सत्र में लाभ के बिल को दुबारा पास करवाएगी और राष्ट्रपति पर उस पर दस्तखत करने के लिए दबाव बनाएगी। वैसे भले ही संविधान विशेषज्ञों में कितनी मतभिन्नता हो, लेकिन मेरा मानना साफ है कि राष्ट्रपति संसद की ओर से दूसरी बार पास करके भेजे गए बिल पर दस्तखत करने के लिए बाध्य नहीं हैं। यह सब कांग्रेस टाइप कानूनविदों की राय है कि राष्ट्रपति किसी भी बिल को दूसरी बार लौटा नहीं सकते। इस बारे में भ्रम साफ हो जाना चाहिए कि राष्ट्रपति की दो भूमिकाएं हैं। एक भूमिका देश के प्रशासनिक मुखिया की है, और दूसरी संसद के हिस्सा होने की। संसद के तीन अंग हैं- लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति। संसद के मुखिया भी राष्ट्रपति हैं, इसलिए वह हर साल के पहले सत्र को संबोधित करते हैं। कोई भी बिल तब कानून बनता है, जब उसे लोकसभा और राज्यसभा पास करे और उस पर राष्ट्रपति भी दस्तखत करें। राष्ट्रपति क्योंकि संसद के तीसरे अंग हैं, इसलिए उन पर संसद के दोनों सदनों का फैसला बाध्यकारी नहीं। इसीलिए ज्ञानी जैल सिंह ने पोस्टल बिल पर दस्तखत नहीं करके राजीव गांधी सरकार को राष्ट्रपति पद की हैसियत बता दी थी। राष्ट्रपति को हर मामले में रबड़ स्टैंप मानना संविधान को समझने में नादानी होगा। सही बात तो यह है कि राष्ट्रपति किसी भी बिल को खत्म कर सकता है। जहां तक राष्ट्रपति की प्रशासनिक मुखिया के नाते जिम्मेदारी है, उसके तहत वह मंत्रिमंडल के फैसलों को लागू करने के लिए बाध्य है। उस नाते वह रबड़ स्टैंप ही हैं। वह सरकार को एक बार उसके फैसले की फाइल लौटाकर फिर से विचार करने के लिए मजबूर जरूर कर सकते हैं, लेकिन अगर केबिनेट दुबारा उसी फैसले को लागू करने पर अड़ जाए तो राष्ट्रपति उस पर प्रशासनिक मुखिया के नाते दस्तखत करने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। लेकिन सवाल पैदा होता है कि क्या राष्ट्रपति लाभ के पद संबंधी बिल को दुबारा पास करवा कर भेजे जाने पर वही रुख अपनाएंगे, जो ज्ञानी जैल सिंह ने अपनाया था। क्या वह खुद को उतना ही मजबूत साबित करेंगे, जितना 1999 में वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह ने खुद को मजबूत साबित किया था। मुलायम सिंह ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर अपनी असहमति दे दी थी और भानुमति का कुनबा बिखर गया था। बात तब भी सोनिया गांधी की थी और बात अब भी सोनिया गांधी की है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी के सांसद रहते हुए ही एनएसी के अध्यक्ष पद पर रहने के कारण ही लाभ के पद संबंधी बिल की मजबूरी पैदा हुई। यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मई 2004 में सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पद का न्योता लेने के लिए राष्ट्रपति भवन गई थी और वहां से लौटते हुए उन्होंने पद संभालने की अनिच्छा जाहिर कर दी थी। राजनीतिक हलकों में यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि राष्ट्रपति क्या बिल पर दस्तखत करने की बजाए कहीं इस्तीफा तो नहीं दे देंगे। अगर ऐसा हुआ, तो देश के सामने गंभीर स्थिति पैदा हो जाएगी और भैरोंसिंह शेखावत को राष्ट्रपति पद की शपथ लेकर इस बिल को कचरे के डिबे में फेंकना होगा, या सुप्रीम कोर्ट से राय मांगनी होगी, जो पहले से ही मौजूदा सरकार के संविधान को ठेंगा दिखाने के कदमों से बेहद खफा बैठी है।

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