भाजपा राजस्थान और उत्तराखंड में पार्टी की गुटबाजी के कारण हारी। मध्यप्रदेश में घमंड पर सवार होकर हारी। हरियाणा में गलत गठबंधन के कारण हारी। इन चारों राज्यों में भाजपा को 30 सीटों से हाथ धोना पड़ा। ये सभी तीस सीटें कांग्रेस को मिली हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने शिवराज सिंह चौहान को नरेंद्र मोदी की तरह पार्टी के भावी नेता के रूप में देखना शुरू कर दिया था। यह छोटी सी जीत पर शायनिंग मध्यप्रदेश दिखाई देने जैसी हालत ही थी। राजस्थान में भाजपा की हार का सिलसिला पांच महीने पहले विधानसभा चुनावों में शुरू हो गया था। जहां भाजपा भारी गुटबाजी के चलते हारी थी और यह गुटबाजी पार्टी की केंद्रीय गुटबाजी का ही नतीजा था। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भी चुनाव के दौरान अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करके भाजपा को नुकसान पहुंचाया।
कांग्रेस ने शेखावत की नाराजगी का फायदा उठाते हुए भाजपा के परंपरागत राजपूत वोट बैंक में सेंध लगा दी। चार राजपूत राज परिवारों को टिकट देकर कांग्रेस ने प्रदेश के राजपूतों को अपने पाले में लाने में सफलता हासिल की, जिसका असर सभी सीटों पर पड़ा। वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनाव जीतने के लिए आधे से ज्यादा सांसदों को चुनाव मैदान में उतार दिया था। किरण महेश्वरी को छोड़कर सभी सांसद चुनाव हार गए, इसके बावजूद भाजपा ने हारे हुए उम्मीदवारों को लोकसभा चुनाव लड़वा दिया। राजस्थान में पार्टी की गुटबाजी अभी खत्म नहीं हुई है। राजस्थान भी दिल्ली प्रदेश की राह पर चलता दिखाई दे रहा है। दिल्ली में भी भाजपा वक्त के मुताबिक चलने में नाकामयाब रहने के कारण लगातार हार रही है। भाजपा दिल्ली को पंजाबियों और बनियों का ही मानकर चल रही है, जबकि पिछले तीन दशक में दिल्ली का चरित्र पूरी तरह बदल चुका है।
उत्तराखंड की हालत भी कमोवेश राजस्थान जैसी ही थी, जहां मुख्यमंत्री खंडूरी को लालकृष्ण आडवाणी का आशीर्वाद हासिल था। जबकि उनको उखाड़ फेंकने के लिए मुहिम चलाने वाले भगत सिंह कोश्यारी के सिर पर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का हाथ बना हुआ था। उत्तराखंड में अपनी सरकार होने के बावजूद भाजपा सभी सीटें हार गई। यह बात सही है कि तीन सीटों पर भाजपा की हार की वजह बहुजन समाजपार्टी बनी। इन तीनों सीटों पर बसपा को मिले वोट भाजपा की हार के अंतर से बहुत ज्यादा थे। हरियाणा में भाजपा की एक सीट थी, ओमप्रकाश चौटाला से समझौता करके भाजपा वह भी हार गई। जबकि भजनलाल के साथ समझौता करके भाजपा कम से कम चार सीटें जीत सकती थी। हरियाणा के जाट चौटाला की बजाए अब भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को अहमियत देते हैं। इसलिए जाट वोट चौटाला के हाथ से खिसक चुका है। भाजपा को जाट वोटों की बजाए पंजाबी, विश्नोई और शहरी मानसिकता वाले वोटरों का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए था। भाजपा और भजनलाल का वोट बैंक एक जैसा है, इसलिए इन दोनों का गठबंधन भी कारगर साबित होता। अरुण जेटली चाहते थे कि भजन लाल से समझौता किया जाए। लेकिन सुधांशु मित्तल ने राजनाथ सिंह के जरिए ओम प्रकाश चौटाला से गठबंधन करवा दिया। राजनाथ सिंह और अरुण जेटली का टकराव वहीं से शुरू हुआ था। अब नतीजा सबके सामने।
कांग्रेस को उत्तराखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में यूपीए को अपने विरोधियों के वोट बंटने का लाभ मिला है। उत्तराखंड की हरिद्वार, नैनीताल और टिहरी सीटें बसपा के उम्मीदवारों को अच्छे वोट मिलने के कारण कांग्रेस की झोली में गई। इसी तरह महाराष्ट्र की नागपुर और नांदेड़ बसपा के कारण और भिवाड़ी, दक्षिण मुंबई, उत्तरी मुंबई, उत्तरी पूर्वी मुंबई, उत्तरी पश्चिमी मुंबई, दक्षिण-केन्द्रीय मुंबई, पुणे और ठाणे राज ठाकरे की महाराष्ट्र निर्माण सेना के उम्मीदवारों के कारण कांग्रेस की झोली में गई। बसपा और महाराष्ट्र निर्माण सेना वोट कटुआ पार्टियां न होती, तो महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की 29 सीटें होती। जबकि कांग्रेस- राष्ट्रवादी कांग्रेस को पंद्रह पर संतोष करना पड़ता। इसी तरह आंध्र प्रदेश में चिरंजीवी की प्रजाराज्यम पार्टी ने कांग्रेस को चौदह सीटें दिलाने में सफलता हासिल की। चिरंजीवी तेलुगूदेशम के लिए भयंकर वोट कटुआ साबित हुए। तमिलनाडु में विजयकांत ने जयललिता को नौ सीटें हरवाकर कांग्रेस की झोली में डाली। विजयकांत के वोट कटुआ उम्मीदवारों के कारण धरणी, धर्मपुरी, डिंडीगुल, कांचीपुरम, श्रीपेरुम्बदूर, तेनकाशी, थिरुवलूर, थिरुनवेली, विरुध्द नगर में अन्नाद्रमुक को मुंह की खानी पड़ी।
कांग्रेस की जीत के इन तकनीकी कारणों के अलावा भी एक बड़ा करण है- राहुल गांधी का चेहरा। कर्नाटक, उड़ीसा, गुजरात, हिमाचल का उदाहरण देकर भारतीय जनता पार्टी यह कबूल करने को तैयार नहीं है कि राहुल गांधी के करिश्मे ने कांग्रेस को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि उसने 81 साल के लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले कांग्रेस ने 77 साल के मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उतारा था। फिर भी देश के सामने युवा नेतृत्व के तौर पर राहुल को पेश करके कांग्रेस ने 35 साल से कम उम्र के 65 फीसदी मतदाताओं को लुभाने की रणनीति अपनाई। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के पास आडवाणी के साथ युवा नेतृत्व के तौर पर पेश करने के लिए कोई चेहरा नहीं था। ले देकर वरुण गांधी अपने एक विवादित भाषण के कारण सुर्खियों में आकर भाजपा के प्रखर हिंदुवादी वोटरों को लुभाने वाला चेहरा बना। लेकिन उनका उभरना भाजपा की रणनीति का हिस्सा नहीं था। देश के युवा उन्हें राहुल गांधी के विकल्प के तौर पर देख रहे थे, लेकिन उन्होंने भाजपा के कट्टरपंथी नेताओं का विकल्प बनने का रास्ता चुना। उनका मुकाबला राहुल गांधी से नहीं अलबत्ता नरेंद्र मोदी से किया जाने लगा है।
नब्बे के दशक में मुरली मनोहर जोशी से टकराव के बाद लालकृष्ण आडवाणी भाजपा में ऐसे पितृ पुरुष के तौर पर उभर चुके थे, जिन्हें पार्टी के भीतर से कोई चुनौती नहीं दे सकता था। वह भाजपा में वही स्थान रखते थे, जो कांग्रेस में सोनिया गांधी का है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जिन्ना प्रकरण के बाद अध्यक्ष पद से हटने पर मजबूर करके उनकी अथारिटी को कमजोर कर दिया। फिर उनकी इच्छा के खिलाफ राजनाथ सिंह को भाजपा अध्यक्ष बनाकर पार्टी में गुटबाजी को नए पंख दे दिए। पिछले तीन वर्षों में संगठनात्मक स्तर पर भाजपा में नए-नए प्रयोग हुए। एक तरफ संघ से आए संगठनमंत्रियों का वर्चस्व बढ़ गया तो दूसरी ओर महामंत्रियों की हैसियत घटाकर अपरिपक्व नेताओं को प्रभारी बनाकर प्रदेशों की बागडोर सौंप दी गई। अब देश के तीस राज्यों में भाजपा के 45 प्रभारी हैं और संगठन पूरी तरह जंगलराज में तब्दील हो चुका है। इसकी झलक चुनावों में देखने को मिली। आडवाणी गुट अपने ढंग से अलग चुनाव लड़ रहा था और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह अपने ढंग से अलग चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव प्रभारियों में किसी तरह का कोई तालमेल नहीं था, चुनाव फंड के इस्तेमाल का कोई बजट या खाका तैयार नहीं किया गया था। नतीजा यह निकला कि जिसके हाथ जो आया उसने उसे अपने ढंग से खर्च कर लिया। आखिरी दिनों में हालत यह हो गई थी कि पार्टी के पास विज्ञापनों तक के लिए पैसा नहीं था, इसलिए अखबारों में विज्ञापन दिखाई नहीं दिए। शुरू में तैयारी अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तर्ज पर प्रचार की हुई थी। लेकिन यह वैसी ही गलती थी, जैसी 2004 में शायनिंग इंडिया का प्रचार कर की गई थी। बाराक ओबामा की तरह आडवाणी को पेश करके इंटरनेट पर चुनाव लड़ने की रणनीति भाजपा की नहीं थी। यह रणनीति 2004 में प्रमोद महाजन की इंडिया शायनिंग रणनीतिक टीम के सदस्य सुधींद्र कुलकर्णी की थी। बाद में प्रमोद महाजन ने हार की जिम्मेदारी ली थी। सुधींद्र कुलकर्णी भाजपा की विचारधारा में रचे बसे नहीं होने के कारण लालकृष्ण आडवाणी को जिन्ना प्रकरण में फंसा चुके थे। पार्टी नेतृत्व के दबाव में कुलकर्णी को सचिव पद से हटा दिया गया था, लेकिन एटमी करार पर वामपंथियों के समर्थन वापसी के बाद वह अचानक फिर आडवाणी के घर में दिखाई देने लगे। कुलकर्णी ने संसदीय जांच समिति के सामने कबूल किया है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन उन्होंने ही रचा था। समिति की सिफारिश पर उनके खिलाफ एफआईआर दाखिल हो चुकी है। इंडिया शायनिंग की तर्ज पर इंटरनेट से चुनाव लड़ने की रणनीति सुधींद्र कुलकर्णी की ही थी, जिसने भाजपा को प्रचार के मोर्चे पर बुरी तरह पछाड़ दिया। मुंबई, दिल्ली, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, चंडीगढ़, लुधियाना, जयपुर, भुवनेश्वर, नैनीताल जैसे शहरों में भी इंटरनेट युवकों को प्रभावित नहीं कर पाया। ये सभी शहरी सीटें भी भाजपा हार गई। पार्टी में कोई पद या जिम्मेदारी नहीं होने के बावजूद टीवी चैनलों पर वह भाजपा का चेहरा बनकर उभर आए और पार्टी संगठन लाचार दिखाई दिया। पार्टी के परंपरागत चेहरे अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मुख्तार अव्वास नकवी, यशवंत सिंह, अनंत कुमार आदि प्रचार के मोर्चे से गायब थे। यह पार्टी के चुनाव प्रबंधन की विफलता के सबूत हैं।
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