होली पर्व के पौराणिक राज छुपे हैं पाकिस्तान में

Publsihed: 02.Mar.2018, 09:44

होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है, जो सामुदायिक बहुलता की समरस्ता से जुड़ा हुआ है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतरमन से उमड़ता है, वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। होली का त्योहार हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलित मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। वस्तुत: उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी |

चूंकि होली को बुराई पर अच्‍छाई की जीत के पर्व का पर्व माना जाता है इसलिए जब वह अपने भतीजे और विष्णु-भक्त प्रहलाद को विकृत और क्रूर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई, परंतु प्रहलाद बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि वह तो असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी।

पुरानों में कथा 

हिरण्यकशिपु एक असुर था जिसकी कथा पुराणों में आती है। उसका वध नृसिंहअवतारी विष्णु द्वारा किया गया। यह हिरण्यकरण वन नामक  स्थान का राजा था जोकि वर्तमान में भारत देश के राजस्थान राज्य मेे स्थित है जिसे हिण्डौन के नाम से जाना जाता है। हिरण्याक्ष उसका छोटा भाई था जिसका वध वाराह ने किया था ।

विष्णुपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा।

इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई।

अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला।

इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ।

दूसरी कथा- जन्म उत्तर प्रदेश, मृत्यू बिहार में  

हिरण्यकशिपु उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में हुआ था। हिरण्यकश्यपु हरदोई जिले का राजा था। उसके किले के कुछ अवशेष अभी भी है। हिरण्यकशिपु के नाम के विषय में मतभेद है। कुछ स्थानों पर उसे हिरण्यकश्यप कहा गया है  ऐसा माना जाता है कि संभवतः जन्म के समय उसका नाम हिरण्यकश्यप रखा गया किंतु सबको प्रताड़ित करने के कारण (संस्कृत में कषि का अर्थ है हानिकारक, अनिष्टकर, पीड़ाकारक) उसको बाद में हिरण्यकशिपु नाम से जाना गया।

नाम पर जो भी मतभेद हों, उसकी मौत बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के जानकीनगर के पास धरहरा में हुआ था। इसका प्रमाण अभी भी यहाँ है और प्रतिवर्ष लाखो लोग यहाँ होलिका दहन में भाग लेते हैं।

बुन्देलखण्ड की तीसरी कथा 

हिरण्यकश्यप के राज्य की राजधानी बुंदेलखंड के एरच कस्बे में है , कोई भी उसका ( हिरण्यकश्यप ) नाम नहीं लेता है, लेकिन उसके बेटे भक्त प्रहलाद की न केवल जय-जयकार होती है, बल्कि उसकी पूजा की जाती है. एरच कस्बे में ही हिरण्यकश्यप की बहन होलिका प्रहलाद को जलाने की कोशिश में स्वयं जल गयी थी, तभी से होली का यह त्योहार मनाया जाने लगा |

बुंदेलखंड के ऐतिहासिक नगर झांसी से लगभग 70 किलोमीटर दूर बसा है एरच कस्बा.बेतवा नदी के किनारे स्थित डीकांचल पर्वत पर एक समारोह का आयोजन किया गया | इसमें तय हआ कि होलिका नाचते-नाचते प्रहलाद को गोदी में लेकर आग में बैठ जायेगी, जिसमें प्रहलाद जल जायेगा, मगर प्रहलाद को जलाने की कोशिश में खुद होलिका जल गई और प्रहलाद बच गया |

बुंदेलखंड में प्रचलित लोक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप के वध के बाद भगवान विष्णु ने दानवों और देवताओं की एरच के पास डीकांचल पर्वत के करीब पंचायत करायी | इसमें विष्णु जी ने प्रहलाद को अपना बेटा स्वीकारा | उसे राजगद्दी सौंपी गयी | इस पंचायत के बाद सभी ने एक-दूसरे को गुलाल लगायी, तभी से होली मनायी जाने लगी | जिस दिन यह पंचायत थी उस दिन पंचमी थी |

एरच में खुदाई के दौरान एक ऐसी मूर्ति भी मिली है, जिसमें प्रहलाद को गोदी में लिए होलिका को दिखाया गया है. इसके अलावा हिरण्यकश्यप काल की शिलाएं भी मिलीं हैं | एरच में कई ऐसे मंदिर है जिनमें प्रहलाद की मूर्तियां स्थापित हैं और यहां के लोग उनकी पूजा करते हैं | यहां के लोग अपने बच्चों के नाम भी प्रहलाद रखते हैं, लेकिन हिरण्यकश्यप को कोई याद नहीं रखना चाहता \

मुल्तान की चौथी कथा 

होली के पौराणिक राज छुपे हैं पाकिस्तान में | ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्‍यों से यह पता चलता है कि होली की इस गाथा के उत्सर्जन के स्रोत पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं यानी अविभाजित भारत से। अभी वहां भक्त प्रहलाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंभा भी मौजूद है जिससे भक्त प्रहलाद को बांधा गया था।

कहा जाता है कि प्र्ह्लाद्पुरी का यह विष्णु मंदिर खुद हिरण्यकश्यप के बेटे प्रहलाद ने नरसिंह अवतार के सम्मान में और अपने पिता की याद में बनवाया था, जो कि मुल्तान का राजा था | मुल्तान पर जब मुसलमानों की हकूमत शुरू हुई तो वहा के मशहूर सूर्य मंदिर और प्रहलाद मंदिर को तोड़ कर नष्ट कर दिया गया | रिकार्ड के अनुसार 1810 में जब मुल्तान पर सिख शासकों का राज आया तो मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया | हालांकि 1831 में जब एल्क्जेंडर बर्न्स ने मुलतान की यात्रा की तो उस ने पाया कि मंदिर बुरी हालत में है और उस की छत टूटी हुई है | बाद में जब 1849 में अंग्रेजों ने मूल राज पर हमला किया तो मुल्तान का किला पूरी तरह ध्वस्त हो गया , जब कि प्रहलाद मंदिर बचा रहा | एल्क्जेंडर चुन्निन्घ्म ने कि उस ने 1853 में इस मंदिर का दौरा किया था और देखा कि मंदिर चौरस ईंटों से बना है और लकड़ी के नक्काशीदार खम्भों पर मंदिर की छत टिकी है |

1861 में मन्ह्न्त बाल राम दास ने 11000 रूपए की लागत से मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया | लेकिन 1881 में जब मंदिर की मुरम्मत हो रही थी तो मंदिर के शिखर की ऊंचाई को लेकर मुसलमानों और हिन्दुओं में विवाद खडा हो गया | मुसलमान चाहते थे मंदिर का शिखर बगल की मस्जिद की मीनार से ऊँचा न हो | जिस पर हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगे हो गए, इन दंगों में मुल्तान के 22 मंदिर और 2 मस्जिदें टूट गई | अंग्रेजों ने दंगों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की , प्र्ह्लाद्पुरी मंदिर तो पुरी तरह तोड़ कर तबाह कर दिया गया | लेकिन दंगे खत्म होने के बाद मुल्तान के हिन्दुओं ने प्थ्लाद्पुरी समेत सभी मंदिरों का पुनर्निर्माण किया | 

भारत पाक बंटवारे के बाद मुल्तान के करीब करीब सभी हिन्दू भारत में आ गए , मंदिर के महंत बाबा नारायण दास बत्रा मंदिर में रखी नरसिंह भगवान की मूर्ती ले कर भारत आ गए, वह मूर्ती अब हरिद्वार में स्थापित है | जो थोड़े बहुत हिन्दू मुल्तान में रह गए थे , उन्होंने मंदिर में पूजा पाठ जारी रखा | 1992 में बाबरी ढांचा टूटने के बाद मुल्तान में मुसलमानों की भीड़ ने बचे खुचे प्र्ह्लाद्पुरी मंदिर को ध्वस्त कर डाला | मगर इसके चंद अवशेष अब भी मुल्तान में मौजूद हैं और वहां के अल्पसंख्‍यक हिन्दू होली के उत्सव को मनाते हैं। 

Ruins of Prahladpuri Temple

मुल्तान का यह प्रहलाद मंदिर 1992 में बाबरी ढांचा टूटने के बाद मुस्लिम भीड़ ने तोड़ डाला था |

 

Hindu temples in Pakistan

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Sharda Peeth 3.jpg

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