हरिशंकर व्यास हिंदी पत्रकारिता के जाने पहचाने चेहरे हैं. जनसत्ता के पहले सम्पादक समाचार थे. जनसत्ता का सर्वाधिक लोकप्रिय कालम गपशप उन्ही का शुरु किया हुआ था. वह पांचजन्य और धर्मयुग में भी रहे हैं. पिछ्ले करीब दस साल से ईटीवी पर सेंट्र्ल हाल कार्यक्रम चलाते हैं. वह नया इंडिया अखबार के सम्पादक हैं, उन का लिखा यह लेख पत्रकारिता के वर्तमान युग का आंखे खोल देने वाला दृश्य है. लेख जस का तस आप सब के लिए.....आप अपनी प्रतिक्रिया भी देंगे तो अच्छा लगेगा.
आपने नहीं जाना? तो नोट करें तथ्य- पिछले चार महीनों में कोई दो हजार अखबारों को केंद्र सरकार के डीएवीपी ने विज्ञापन के लिए अमान्य किया है। संसद में बिना पीआरबी एक्ट बदले, उसमें बिना संशोधन लाए सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने अखबारों को ऐसे नए नियमों-कायदों-फंदो में फांसा है कि वे घुट कर अपने आप दम तोड़ेंगे। भारत सरकार ने याकि मोदी के पीएमओ ने जून से लेकर इस दिसंबर तक चुपचाप कार्रवाई का जो खांका बनाया है उसमें इस साल का इरादा 8 हजार अखबारों में से 4 हजार अखबारों को अमान्य बनाना है। साथ ही अखबार मालिकों पर फर्जीवाड़े की, हर साल दस तरह के चक्कर लगवाने की तलवार लटका दी है। अखबार मालिकों को रजिस्ट्रार, न्यूजपेपर के यहा सर्क्युलेकशन का प्रमाणीकरण कराने को मजबूर किया है। मतलब सरकारी दफ्तर और ‘गांधीजी’! देश के हर प्रकाशक-संपादक को हर महीने सरकारी दफ्तर में टोकन ले कर अखबार की फाईल सबमिट करनी पड़ रही है। यदि वह वहां पटा कर चला या रिश्वत दी तो ठीक नहीं तो भारत सरकार के दिल्ली के डीएवीपी दफ्तर में रिपोर्ट पहुंचेगी कि पिछले महीने अखबार पूरे नहीं थे या सही नहीं छपे। इस रिपोर्ट से फिर तय होगा कि इस अखबार को आगे विज्ञापन देना है या नहीं! रिपोर्ट यदि नहीं भेजी, या यदि यह लिख कर आया कि अखबार ठीक नहीं है तो विज्ञापन मिलना बंद। इसमें यों नियमितता की कसौटी बहाना है। मगर आश्चर्य नहीं कि जैसे पिछले छह महीनों में चुपचाप एक के बाद एक सिकंजा कसा है वैसे आगे अखबार को ले कर यह रिपोर्ट बनने लगे कि नरेंद्र मोदी और राष्ट्रहित की खबरों में अखबार से कोई चूक तो नहीं है? अखबार सरकार विरोधी है या पक्ष का?
यह काम चुपचाप होगा। इसलिए कि सरकारी दफ्तर में बनी, या वहां से भेजी गई मासिक रिपोर्ट की जानकारी प्रकाशक को देने के लिए सरकार या पीआईबी बाध्य नहीं है। अखबार मालिक लगातार परेशानी में रहेगा। पता नहीं क्या रिपोर्ट गई, अफसर ने अखबार को कैसे जांचा? आगे विज्ञापन मिलता है या नहीं?
क्या ऐसा इमरजेंसी में हुआ? क्या यह अखबार-प्रकाशक, संपादक, पत्रकार और मीडिया का गला घोटना नहीं है? अखबार प्रकाशक, संपादक को विज्ञापन के लिए, अपने अस्तित्व के लिए ऐसे लाईन हाजिर रखने का बंदोबस्त तो इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने भी नहीं किया था? विद्याचरण शुक्ल ने भी सूचना मंत्री रहते पीआईबी, डीएवीपी से डंडा चलाने का ऐसा खौफ पैदा नहीं किया जैसा आज नरेंद्र मोदी, उनके दफ्तर और उनके पूर्व सूचना मंत्री अरुण जेटली ने करवा कर दम लिया है!
इमरजेंसी में खबर पर रोक थी। मगर अखबार बंद कराने, प्रेस और पत्रकारों को अमान्य कराने, मीडिया को ही खत्म करने के संस्थागत काम नहीं हुए थे लेकिन नरेंद्र मोदी, उनके प्रधानमंत्री दफ्तर में बैठे जगदीश ठक्कर और गुजरात से आए मीडिया प्रबंधकों ने अरुण जेटली की सहमति से जून-जुलाई में अखबारों को, प्रेस को खत्म करने का जो चाक चौबंद बंदोबस्त किया है यदि उसका प्रतिकार नहीं हुआ, तो लिख कर रखें कि 2019 के आते-आते देश में डीएवीपी के 8 हजार में से 7000-7500 हजार अखबार बंद होंगे और जो 500 बचेंगे वे वैसे बड़े अखबार होंगे जिनकी खुद की प्रिंटिग प्रेस है और जिनके मालिकों को प्रधानमंत्री निवास बुलाकर हड़काया जा सकता है।
पर उस सिनेरिया पर बाद में। फिलहाल सरकार की बनाई व्यवस्था पर गौर करें। इसमें हर अखबार, हर प्रकाशक-संपादक को सरकार के आगे नाक रगड़ना है। जान लें कि दुनिया के किसी भी लौकतंत्र में सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह हर महीने अखबार का रिकार्ड तलब करें। सरकार, सरकारी विभाग से सर्क्युलेशन चैक कराए। हर महीने अधिकारी अखबार को जांच करके रिपोर्ट भेजे कि अखबार छपा या नहीं, सही है या नहीं! दुनिया के किसी लौकतंत्र में ( अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी की बात तो दूर पाकिस्तान में भी) यह खोजने पर मालूम नहीं हुआ कि सरकार ने विज्ञापन के बहाने, अखबार के प्रसार को जंचवाने, उसकी नियमितता पर नजर रखने के लिए सरकारी बाबूओं की दुकानदारी लगवा रखी है। विकसित लौकतंत्र में सबकुछ प्रोफेशनल बॉडीज काम करती है।
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में अफसर सेंसर अधिकारी बन कर खबर पर निगरानी रखते थे। अखबार में खबर रोकते थे मगर अखबार को बंद कराने, खत्म करने के जतन नहीं थे। मगर नरेंद्र मोदी और उनका सेटअप क्योंकि गुजराती धंधे की तासीर लिए हुए है इसलिए उसने इमरजेंसी से भी अधिक प्रभावी तरीका, नुस्खा पेट पर लात मारने का अपनाया है। इस नुस्खे के तीन उद्देश्य है- 1- छोटे और मध्यम श्रेणी के अखबारों की भीड़ खत्म हो। 2- इनको खत्म करके इनके हिस्से के बचे सरकारी विज्ञापनों को 50-60 बड़े अखबारों में बांटे। जब संख्या कम होगी, तो पैसे का बंटवारा ज्यादा होगा और मालिकों को मैनेज करना भी आसान। 3- फिर अखबारों की भीड़ से आज शहर-गांव, राजधानी में पत्रकारों की जो मान्यता प्राप्त भीड़ है उसे मिटाना तीसरा मकसद है।
अभी यदि 2 हजार अखबार डीएवीपी ने विज्ञापन देने की लिस्ट से बाहर निकाले हैं और मार्च तक हजार-दो हजार और अमान्य होंगे तो आगे ये राज्यों में भी अमान्य होंगे। फिर उससे संपादकों-पत्रकारों की मान्यता भी रद्द होगी। भारत सरकार के पीआईबी और राज्यों के डीपीआरओ में मान्यताप्राप्त पत्रकारों की आज जो हजारों की संख्या है वह सैकड़ों में सिमटेगी।
इन तीन उद्देश्यों पर पीएमओ ने सूचना-प्रसारण मंत्रालय से 7 जून 2016 को आदेश संख्या एम-24013/90/2015-एमयूसी के जरिए नई विज्ञापन नीति घोषित कराई। हिसाब से यदि नई नीति बननी थी तो सभी स्टेकहोल्डर से बात करनी थी। ड्राफ्ट पर सार्वजनिक बहस करानी थी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। सीधे आदेश हुआ और अखबारों को नई नीति के अनुसार अपनी मान्यता, अपना विज्ञापन बचाने के लिए दौड़ा दिया।
ध्यान रहे भारत के अखबार संसद से पास पीआरबी एक्ट से नियंत्रित है। इस एक्ट और उसके बाद बने नियम में जो लिखा है वही कानून है। लेकिन इस सरकार ने बिना संसद में संशोधन या दुबारा कानून बनाए ही अखबार मालिको, प्रेस पर ऐसे नए नियम थौपे हंै जो सौ फीसद गैर-कानूनी बनते हैं। जैसे प्रिंटिग प्रेस को लेकर अखबार के लिए नियम है कि वह अपनी प्रेस का घोषणापत्र डीएम के आगे एक बार दे। उसका फिर अखबार के घोषणापत्र में जिक्र और प्रूफ हो। ऐसे ही प्रकाशक को सामान्य डाक से अखबार की छपी प्रति आरएनआई को भेजने का नियम है। फिर साल में एक बार अखबार के प्रसार का सालाना रिटर्न भरना होता है। इस कानून, नियम व्यवस्था के संचालन की संस्था का नाम है आरएनआई।
इस एक्ट व कायदे में अंग्रेजों के वक्त से ले कर इस पंद्रह अगस्त तक भारत के अखबार फले-फूले हुए थे। मगर मोदी सरकार ने बिना कानून बदले डीएवीपी (जिसका पीआरबी एक्ट से मतलब नहीं है) की नई विज्ञापन नीति बनवा कर प्रकाशक को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वह अखबार की पूरी फाइल ले कर अखबार की नियमितत्ता, क्वालिटी, देश हित में होने या न होने की जांच कराने के लिए राज्य राजधानी या दिल्ली जा कर खुद सबमिट करें। और वह भी हर महीने। दूसरा यह कि वह प्रिंटिग प्रेस का तकनिकी ब्यौरा देते हुए प्रिंटर से उसकी तरफ से एफिडेविट दिलवाए कि वह उस अखबार की प्रतिदिन कितनी कॉपियां छाप रहा है तभी अखबार विज्ञापन के लिए रिन्यू होगा।
घ्यान रहे पीआरबी एक्ट में प्रेस क्या, कैसा, किस-किस अखबार को वह छापता है, किसकी कितनी प्रतियां छापने की जानकारी देने का कहीं कोई उल्लेख-नियम नहीं है। अंग्रेजों के वक्त भी व्यवस्था सिर्फ यह थी कि जिसे अखबार छापना है वह उसकी और प्रिंटिग प्रेस होने की दो घोषणाएं डीएम के सामने एक बार कर दे। तब गणेशशंकर विद्यार्थी अपने छोटे अखबार के फर्रे को प्रमाणित करने के लिए, सबमिट करने के लिए अंग्रेज डीएम के आगे हर महीने चक्कर नहीं लगाते थे। इसलिए कि अंग्रेज ब्रिटेन के लौकतंत्र को फोलो करते थे और जान ले ब्रिटेन में आज भी अखबार और उसकी विज्ञापन नीति में एक भी वह बात नहीं है जिसे मोदी के पीएमओ ने पिछले छह महीनों में बिना कानून संशोधन और बहस के बनवा दिया है।
क्यों? क्योंकि मोदी और उनके पीएमओ में गुजरात से आया स्टॉफ बारह साल यह भुगतता रहा कि अखबारों ने उन्हंे बहुत तंग किया। ये सोचते हंै कि अखबार के नाम पर सब ब्लेकमेलर हैं। फर्जी पत्रकार और उनका फर्जीवाड़ा है। कुकुरमुत्तों की तरह अखबार और पत्रकार उग आए हंै। यह ऐसी कांग्रेसी घास है जिसे जड़ से उखाड़ फेंकना है। तभी आज सचमुच गणेश शंकर विद्यार्थी की विरासत के छोटे फर्रे अखबारों के पेट पर लात मार कर, उनके गले में फंदे डाल उन्हे बंद करने का रोडमैप है। इससे अंग्रेजों के वक्त में भी सत्ता के प्यारे रहे टाईम्स आफ इंडिया जैसे हाथी अखबारों के एकाधिकार की कमाई को चार चांद लगेंगे। सरकार का मीडिया मेनेजमेंट आसान बनेगा। आखिर टाइम्स जैसे 30-40 अखबारों के विनित जैनों को पीएम हाउस बुलाकर मैनेज करना आसान है। पदम भूषण दे कर, विज्ञापन दे कर इन मालिकों को गुलाम बनाना चुटकी का काम है। मतलब भारत की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार को गणेश शंकर विद्यार्थी नहीं टाइम्स समूह के विनित जैन चाहिए। तभी अगले ढाई साल में असंख्य छोटे, मध्यम अखबार और मान्यता प्राप्त पत्रकार सिसकते हुए मरेंगे।
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