अमर उजाला, 24 May 2015
किशोर न्याय अधिनियम, 2015 लोकसभा में पास हो गया है। राज्यसभा में पास होना अभी बाकी है। पंद्रह साल पहले बने कानून को झाड़-फूंककर साफ किया गया। कुछ गलतियां सुधारी गई हैं, तो कुछ नई गलतियां कर दी गई हैं। हम सोचते थे कि पंद्रह साल बाद कानून को नए सिरे से पेश करने की कवायद हो रही है, तो सारी गलतियां सुधार दी जाएंगी। इस बिल में अब भी कुछ ऐसी बातें सामने आई हैं, जिन्हें तुरंत बेहतर किया जा सकता था। बिल सिर्फ 16 और 18 साल की आयु में अटक कर रह गया। कांग्रेस की ओर से शशि थरूर ने बहस में हिस्सा लिया, उनका भाषण बहुत अच्छा था। चूंिक वह संयुक्त राष्ट्र में रहे हैं, इसलिए मुद्दे के महत्व को समझते हैं। अगर उन पर बिल का विरोध करने संबंधी पार्टी का दबाव न होता, तो वह बेहतरीन सुझाव दे सकते थे। कांग्रेस का मुख्य मुद्दा बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों से संबंधित अभियुक्त की आयु 18 से घटाकर 16 वर्ष करने का विरोध करने तक ही सीमित रहा।
बच्चों के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों का दृढ़ मत रहा है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकाल के अनुसार बच्चे की आयु 18 वर्ष ही रखी जानी चाहिए। इसीलिए निर्भया कांड के बाद भारी दबाव के बावजूद यूपीए सरकार ने किशोर न्याय अधिनियम में परिवर्तन नहीं किया था। पर अब बच्चे 14-15 वर्ष की आयु में परिपक्व हो रहे हैं। नए किशोर न्याय अधिनियम में बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के लिए बहुत ही सावधानी-से व्यवस्था तय की गई है। जैसे, अगर अपराधी 16 से 18 वर्ष का है, तो किशोर न्याय बोर्ड प्रारंभिक मूल्यांकन करेगा कि अपराध के समय बच्चे की मानसिक स्थिति क्या थी। मनोविज्ञानिक विशेषज्ञों की राय लेने के बाद ही बोर्ड फैसला करेगा कि केस सामान्य अदालत में भेजा जाना चाहिए या बोर्ड के अधिकार क्षेत्र के अनुसार। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि 18 वर्ष से पर उम्रकैद या फांसी नहीं होगी।
संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकॉल पर दस्तखत के बाद बने किशोर न्याय अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि हमने उपेक्षित बच्चों के सरकारी संरक्षण की जिम्मेदारी ली, और इसे पूरा करने के लिए समाज को सरकार के साथ जोड़कर सरकारी जिम्मेदारी दी गई। पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं पर आधारित बाल कल्याण समिति को प्रथम दर्जा मजिस्ट्रेट के अधिकार देकर बच्चों के संरक्षण में समाज की भागीदारी तय की गई,जो नौकरशाही को कभी रास नहीं आई, इसलिए ये समितियां न ताकतवर बन सकीं और न अदालत की तरह काम कर सकीं। नए बिल में यह खामी दूर की जानी चाहिए थी, पर इसके बजाय जिलाधीश को बाल कल्याण समिति के फैसले के खिलाफ सुनवाई करने और फैसला पलटने का अधिकार दे दिया गया है। यह अंग्रेजों के जमाने की पुरानी व्यवस्था की तरफ लौटना है। शुक्र है कि कड़े विरोध के बाद जिलाधीश को बाल कल्याण समिति का अध्यक्ष नहीं बनाया गया, अन्यथा प्रारूप में तो यही प्रावधान किया गया था।
नए बिल की सबसे खराब व्यवस्था बाल कल्याण समितियों के गठन की प्रक्रिया, उनके फैसलों पर जिलाधीश को सुनवाई का अधिकार और समितियों को जिला व राज्य प्रशासन के हाथ की कठपुतली बना देना है। एक बात अच्छी है कि जिला बाल कल्याण समिति को यह अधिकार दिया गया है कि वह बच्चों के सर्वोच्च हित में पुलिस को निर्देश दे सकती है। इससे पूर्व पुलिस और प्रशासन समिति को कुछ समझता ही नहीं था। नए बिल में राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोगों और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को भी कुछ अधिकारों और जिम्मेदारियों में बांधा गया है। अब राज्य और राष्ट्रीय आयोग जिला बाल कल्याण समितियों और जिला किशोर न्याय बोर्डों के कामकाज की समीक्षा कर सकेंगे।
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