कारगर अधिनियम पर एक अवांछित संशोधन

Publsihed: 24.Jun.2014, 09:30

अमर उजाला, 24 जुन 2014

दिल्ली के निर्भया कांड के बाद महिला संगठनों ने किशोर न्याय अधिनियम को बदलने के लिए आंदोलन किया था। उस मामले का एक अभियुक्त 18 वर्ष से कम आयु का था, जिस कारण उसे अधिकतम तीन वर्ष की कैद हुई। केंद्र सरकार अधिनियम को बदलने से परहेज करती रही, पर भीतर ही भीतर महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास विभाग नए बाल कानून की पटकथा लिखता रहा। करीब डेढ़ वर्ष के बाद महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास विभाग नए बाल कानून का प्रारूप लेकर सामने आ गया है। विभाग ने संसद के अगले सत्र में मौजूदा किशोर न्याय अधिनियम को रद्द कर यूपीए काल में बने इस प्रारूप को किशोर न्याय अधिनियम, 2014 के तौर पर पेश करने का इरादा जताया है।

यह संयोग ही है कि पहला किशोर न्याय अधिनियम एनडीए शासन में आया था और दूसरा भी 14 वर्ष बाद एनडीए शासन काल में प्रस्तावित है। नए प्रावधान के मुताबिक, 16 वर्ष की आयु पार कर चुका बालक यदि बलात्कार और हत्या के आरोप में फंसता है, तो एक महीने में शुरुआती जांच के बाद किशोर न्याय बोर्ड मामले को सामान्य अदालत को हस्तांतरित कर सकेगा। भारत में बच्चों की शारीरिक परिपक्वता की आयु जिस तरह घटी है, उसे देखते हुए इन दो तरह के अपराधों में सामान्य अदालत में और सामान्य कानूनों में सजा देने का प्रावधान करना अनुचित नहीं होगा। लेकिन उसमें सजा-ए-मौत या आजीवन कारावास का प्रावधान नहीं किया जाना उचित ही है।

अलबत्ता प्रस्तावित अधिनियम में एक अवांछित संशोधन देखकर आश्चर्य होता है। वाजपेयी सरकार ने परित्यक्त और जरूरतमंद बच्चों के संरक्षण के लिए प्रत्येक जिले में पांच सदस्यीय बाल कल्याण समिति बनाई थी। कई जगह उसका क्रांतिकारी असर भी देखने को मिला, पर कुछ जिलों में नौकरशाही के अड़ंगे के कारण ये समितियां कार्य नहीं कर पाईं। प्रस्तावित प्रारूप में वर्तमान बाल कल्याण समितियों को समाप्त करने का प्रावधान है। नए प्रावधान के अनुरूप, इन समितियों का अध्यक्ष सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि संबंधित जिले का जिलाधीश होगा। यह 2000 में किए गए क्रांतिकारी बदलाव से पीछे हटने की कवायद है।

बाल कल्याण समितियां सप्ताह में तीन दिन पूर्णकालिक कार्य कर रही हैं, जिनमें बच्चों को तीव्र गति से न्याय मिल रहा है। समितियों के सदस्य बाल मनोविज्ञान को समझने वाले कार्यकर्ता होते हैं, इसलिए सहज ही समस्या की जड़ तक पहुंच जाते हैं। जिलाधीश की अध्यक्षता में ये समितियां महीने में एक बार भी बैठक नहीं कर पाएंगी। जरूरतमंद बच्चे को जिलाधीश के पास पहुंचाना भी आसान नहीं होगा। अगर जिलाधीश अपने जिले में भिक्षावृत्ति और बाल मजदूरी रोक पाते, सड़कों पर सो रहे बच्चों का पुनर्वास करने में सक्षम होते, तो 2000 में किशोर न्याय अधिनियम में बाल कल्याण समितियों की व्यवस्था रखने की जरूरत ही न पड़ती। बेशक नए अधिनियम का प्रारूप कई मामलों में पहले से बेहतर और कारगर है, पर बाल कल्याण समितियों का स्वरूप बदलना उचित नहीं होगा।

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