अमर उजाला, 12 अक्टूबर 2014
भारत में जन्मे पहले भारतीय को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलना झूमने वाली बात है। खुशियां मनाने का अवसर है। इसलिए हमारी सरकार भी खुशियां मना रही है। सभी राजनीतिक दल झूम रहे हैं। लेकिन यहां ये सब भूल गए हैं कि कैलाश सत्यार्थी को यह पुरस्कार मिला क्यों? इसी राजनीतिक जमात और प्रशासन के खिलाफ तीस वर्षों के संघर्ष का नतीजा है यह। राजनीतिक जमात और प्रशासन ने तो कभी उन्हें पद्मश्री के काबिल भी नहीं समझा था। जरा सोचिए, कैलाश सत्यार्थी जिन मुद्दों के लिए लड़ रहे हैं, क्या उन पर सरकार की सहमति है? प्रशासन की सहमति है? क्या भारतीय समाज की सहमति है? अगर सरकारों, राजनीतिक दलों, प्रशासन और समाज की सहमति होती, तो क्या उन मुद्दों का हल नहीं निकल गया होता? कौन से हैं वे मुद्दे, जिन्हें लेकर कैलाश सत्यार्थी संघर्ष कर रहे हैं और जिनका महत्व भारत के साथ-साथ दुनिया ने भी नहीं समझा? वह मुद्दा है दासता से मुक्ति का, जो ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बावजूद सबको हासिल नहीं हुई है।
पीढ़ी दर पीढ़ी दासता का कुचक्र आज भी देश के कई इलाकों में चल रहा है। अपने बाप-दादाओं का कर्ज चुकाने के लिए बच्चों को गिरवी रखने की खबरें अब भी निकल कर बाहर आती रहती हैं। इसे बंधुआ बाल मजदूरी कहते हैं। अब भी प्रत्येक वर्ष बंधुआ बाल मजदूरी के सैकड़ों मुकदमे दर्ज होते हैं। बाल मजदूरी का आलम तो यह है कि 2011 की जनगणना में ही करोड़ों बाल मजदूरों का खुलासा हुआ है। ऐसा मानने वालों की देश में आज भी कमी नही है कि गरीब का बच्चा कमाएगा नहीं, तो परिवार का पेट कैसे भरेगा। यह मानने वालों की भी कमी नहीं है कि भारत में बाल मजदूरी के खिलाफ आंदोलन यूरोप की साजिश है। ऐसा सोचने वाले यह भी जरूर मान रहे होंगे कि यूरोप ने इसी साजिश के तहत कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया है।
लेकिन हमें अपना चेहरा भी आईने में देखना होगा। कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार देकर यूरोप ने हमें अपना चेहरा आईने मे देखने का अवसर दिया है। खुशियां मनाने वाले जरा इन मुद्दों पर गौर करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह अवसर है। वह देश की बेरोजगारी खत्म करना चाहते हैं । देश में साढ़े छह करोड़ बाल मजदूर हैं। करीब छह करोड़ लोग बेरोजगार हैं। बाल मजदूरी पर रोक रोजगार के नए अवसर पैदा करेगी। विशेषकर अटल बिहारी वाजपेयी के अधूरे कार्य पूरे करने का भी यह अवसर है। यह अच्छी बात है कि वाजपेयी की तरह नरेंद्र मोदी को भी गरीब बच्चों की चिंता है । वह खुद 2007 में कैलाश सत्यार्थी के उस बाल आश्रम में गए थे, जहां बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए बच्चों को रखा जाता है।
शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने की खुशियां मनाने का हक तो सरकार को तभी होगा, जब वह बाल मजदूरी का मौजूदा कानून बदलेगी। इसलिए नरेंद्र मोदी के साथ-साथ सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी बढ़ गई है। खुद मोदी भी पुराने कानूनों को रद्द करने का बीड़ा उठा चुके हैं। इसलिए संसद के अगले सत्र के पहले दिन जब कैलाश सत्यार्थी को बधाई दी जाएगी, उसी समय प्रधानमंत्री को 1986 का बाल मजदूरी अधिनियम रद्दी की टोकरी में फेंकने का ऐलान करना होगा। यह कानून बाल मजदूरी रोकता नहीं, उल्टे बाल मजदूरी की इजाजत देता है।
संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकारों संबंधी प्रोटोकॉल पर 1992 में किए गए दस्तखत के अनुसार, 18 वर्ष की आयु तक बाल मजदूरी पर रोक का नया विधेयक पेश किया जाए, मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा को बारहवीं कक्षा तक किया जाए, गरीब बच्चों के लिए देश के प्रत्येक ब्लॉक में आवासीय विद्यालय बनाए जाएं और लावारिस बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी निभाने के लिए प्रत्येक जिले में सौ प्रतिशत केंद्रीय अनुदान से बाल गृह बनाए जाएं। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो वर्ष 2000 के किशोर न्याय अधिनियम में प्रत्येक जिले में चार बाल गृहों का वायदा किया था। लेकिन पिछले एक दशक से इस दिशा में कुछ काम ही नहीं हुआ है। शांति के नोबेल पुरस्कार का जश्न मनाने के लिए कम से कम इतना तो जरूरी है। इस नोबेल ने बच्चों के प्रति हम सब की जिम्मेदारी बढ़ा दी है।
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