अजय सेतिया / मुजफ्फरपुर और देवरिया के बाल गृहों में अनाथ बच्चों के यौन शोषण की घटनाओं ने साबित किया है ब्यूरोक्रेसी और जेजे एक्ट के अधीन बनी संस्थाएं सफेद हाथी बन गए हैं | दूसरी तरफ नफीस किस्म के स्नातकोत्तर सामाजिक कार्यकर्ता तैयार करने वाले टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंस ने एक बार फिर अपनी प्रतिबद्धता साबित की है | वाजपेयी सरकार के समय बने जेजे एक्ट में देश के प्रत्येक जिले में चार तरह के बाल गृह बनाने का प्रस्ताव था , केंद्र सरकार की इन्टेग्रेटिड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम ( आईसीपीएस ) में 75 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान भी रखा गया था | इस के बावजूद मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के शाषण में देश के किसी एक जिले में भी चार तरह के बाल गृह निर्मित नहीं किए | मुजफ्फरपुर और देवरिया के उदाहरणों से साबित है कि अनाथ बच्चों और बच्चियों की बिक्री और उन के देह व्यापार में स्थानीय प्रशाशन और राजनेता शामिल हैं , इसलिए राज्य सरकारों से केंद्र को सरकारी बाल गृह स्थापित करने के प्रस्ताव ही नहीं के बराबर आए | राज्य सरकारे अनाथ बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी से जानबूझ कर अनजान बनी रहीं | नतीजा हमारे सामने है कि बाल संरक्षण के नाम पर चल रही देह व्यापार की दुकाने फलफूल रही हैं |
मोदी सरकार के समय संशोधित जेजे एक्ट में तो सरकारी बाल गृह बनाने की योजना ही खत्म कर दी गई है | बाल गृह बनाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है | जबकि संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकाल पर दस्तखत कर के अनाथ और अपवंचित बच्चों के संरक्षण की जिम्मेदारी भारत सरकार ने ली थी | इसलिए होना यह चाहिए था कि अगर राज्य सरकारें आईसीपीएस का लाभ नहीं उठा रही थीं, तो केंद्र सरकार खुद राज्य सरकारों से जमीन ले कर देश के सभी 707 जिलों में 200-200 की क्षमता वाला बाल गृह स्थापित करती | लेकिन इस जिम्मेदारी से पीछे हट कर नए जेजे एक्ट के सातवे अध्याय में मुजफ्फरपुर और देवरिया जैसे निजी बाल गृहों को तरजीह दी गई है , यहाँ तक कि इस अध्याय में क़ानून का उलंघन करने वाले बच्चों को भी सरकारी सुधार गृह की बजाए निजी बाल गृहों को सौंपने का प्रावधान किया गया है | मुजफ्फरनगर और देवरिया तो सिर्फ एक झलक है , देश के प्रत्येक जिले में बाल गृहों के नाम पर बाल व्यापार केंद्र चल रहे हैं | जब मैं उत्तराखंड में बाल अधिकार संरक्षण आयोग का अध्यक्ष था , तो मैंने खुद छापा मार कर नरेंद्र नगर में इसी तरह का एक बाल गृह पकड़ा था , जबकि जिला बाल कल्याण अधिकारी वहां किसी अवैध बाल गृह होने से इनकार कर रहे थे | हरियाणा के रोहतक में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इसी तरह का एक बाल गृह पकड़ा था |
हैरानी यह है कि जेजे एक्ट में बनी चार तरह की निगरानी कमेटियां भी इन निजी, संस्थागत और सरकारी बाल गृहों की निगरानी नहीं कर पा रही हैं | जेजेएक्ट की धारा 54 में जिला और राज्य स्तर की कमेटियां बनाने का प्रावधान है | राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग और जिला बाल कल्याण समितियों को भी इन बाल गृहों की निगरानी की जिम्मेदारी है | मुजफ्फरपुर और देवरिया के दोनों मामलों में इन चारों संस्थाओं ने अपना काम नहीं किया | भारत सरकार को चाहिए कि टाटा इंस्टीच्यूट को पूरे देश के सभी बाल गृहों की सोशल आडिटिंग की जिम्मेदारी दे क्योंकि उन के पास सामाज कल्याण के स्नातकोत्तर छात्रों को इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है | आखिर पूरे देश में चाइल्ड हेल्प लाईन 1098 भी टाटा इंस्टीच्यूट ही चला रहा है | वैसे बिहार की सोशल आडिटिंग सम्बन्धी टिस की पूरी रिपोर्ट भी अभी जगजाहिर नहीं हुई | इस रिपोर्ट में सिर्फ मुज्फ्फरपुर नहीं ,बिहार के कम से कम 15 जिलों के बाल गृहों में बच्चियों के यौन शोषण का खुलासा है | बिहार सरकार उस रिपोर्ट पर अभी भी कुंडली मार कर बैठी है क्योंकि वह अपनी मंत्री को बचाने में सारा जोर लगाए हुए है | कहीं ऐसा न हो कि टाटा इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट मंत्री तो क्या , मुख्यमंत्री की कुर्सी ही न उड़ा ले जाए , इसी लिए नीतीश कुमार डरे हुए हैं |
मुजफ्फरपुर और देवरिया के किस्से एक जैसे हैं | बिहार के बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष डा. हरपाल कौर ने खुद पिछले साल नवम्बर में मुजफ्फरपुर के इस शैल्टर होम का निरिक्षण किया था | जेजे एक्ट की नियमावली की धारा 29 में शैल्टर होम की भौतिक संरचना का जिक्र है , जिसे यह शैल्टर होम पूरा नहीं करता था | डा. हरपाल कौर ने अपनी रिपोर्ट में उन सब कमियों का जिक्र करते ही जिलाधीश और समाज कल्याण विभाग को इस बाल गृह को तुरंत वहां से शिफ्ट करने की सिफारिश की थी | लेकिन ब्यूरोक्रेसी आयोग की रिपोर्ट पर आठ महीने तक कुंडली मार कर बैठी रही | सवाल यह है कि जब यह जेजे एक्ट के प्रावधानों को पूरा नहीं करता था तो समाज कल्याण विभाग ने इसे मान्यता कैसे दी | मान्यता तो छोडिए सरकारी अनुदान भी दिया जा रहा था, जो केंद्र सरकार से वसूला जाता है | इसी तरह का मामला देवरिया का है , जहां 5 अगस्त को एक बची ने खुद थाने में जा कर बाल आश्रम में हो रहे यौन शोषण का खुलासा किया | राज्य के महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने पिछले साल जुलाई में जिलाधीश को आदेश दिया था कि इस बाल आश्रम के बच्चे कहीं और शिफ्ट कर के बाल गृह को तुरंत बंद किया जाए, क्योंकि सीबीआई की जांच रिपोर्ट में पाया गया था कि इस बाल गृह में भारी घपलेबाजी है | लेकिन जिलाधीश मंत्रालय की रिपोर्ट को दबाए बैठे रहे | इन दोनों मामलों से अपनी यह धारणा एक बार फिर पुष्ट हुई है कि ब्यूरोक्रेसी किसी संस्था को काम नहीं करने देती | मुजफ्फरपुर के मामले में आयोग के अध्यक्ष की रिपोर्ट और देवरिया के मामले में मंत्रालय की सिफारिश पर दोनों जिलाधीशों ने ईमानदारी से काम नहीं किया |
(लेखक उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षणआयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं )
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