दादागिरी पर भारी पडी अण्णागिरी

Publsihed: 10.Apr.2011, 19:45

मनमोहन सिहं इतने भोले भी नही। आधुनिक गांधी अण्णा हजारे की बातें नहीं मानने की पूरी कोशिश की थी उनने। तीन दिन तक मनमोहन सिंह के नुमाइंदे कपिल सिब्बल संविधान की दुहाई देकर समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहे थे। अण्णा के नुमाइंदे अरविद केजरीवाल को बता रहे थे जो निवाचित नही हुए, वे कानून बनाने वाली कमेटी में कैसे आएंगे। आएंगे भी, तो सरकारी नोटिफिकेशन कैसे होगा। कपिल सिब्बल के मन में धुकधुकी भी थी, किसी ने सोनिया गांधी की रहनुमाई वाली एनएसी पर सवाल उठाया तो क्या होगा। एनएसी मैंबर कौन से चुनकर आए हैं, सारे सरकारी बिलों की हरी झंडी पहले उन्हीं से लेती है सरकार। उनके नामों की नोटिफिकेशन कैसे की थी सरकार ने।

नोटिफिकेशन कोई पवित्र गाय नहीं। कपिल सिब्बल इस तरह के कुतर्क देने के आदी रहे हैं। वाजपेयी सरकार ने जब राजीव गांधी को बोफोर्स दलाली में चार्जशीट किया, तो इन्ही कपिल सिब्बल ने प्रैस काफैस की थी। कहा था- जो आज तक नही हुआ, वह कर रही है सरकार। दलील थी कि मृतक व्यक्ति को कभी चार्जशीट नही किया गया। विद्वान वकील यह भी भूल गए कि इंदिरा गांधी के मौके पर मारे गए हत्यारे भी हत्याकांड में चार्जशीट हुए थे। उस तरह वह एनएसी भी भूल गए थे। अपने इन्हीं कुतर्कों पर वह मनमोहन सिंह की वाहवाही भी लूट रहे थे। इतने भोले भी नहीं हैं मनमोहन सिंह। बोफोर्स घोटाले को दफन करने का काम उन्हीं की रहनुमाई में हुआ है। क्वात्रोची के सील खाते उन्हीं ने खुलवाए हैं। लालू, मुलायम, मायावती की आमदनी ज्यादा संपत्ति का केस क्यों अटका रखा है सीबीआई ने। सब कुछ जानते समझते हुए भी क्यों ए.राजा को मंत्री बनाया हुआ था अपनी सरकार में। पूछो तो कहते हैं, मैं मजबूर हूं - लाचार हूं। संविधान और देश की रक्षा की शपथ ली है मनमोहन सिंह ने। फिर वह मधु कौडा और ए. राजा को लूट- खसूट की छूट क्यों दे रहे थे। इतने भोले भी नहीं हैं मनमोहन सिंह।

मनमोहन सिंह चार दिन तक चुप बैठे रहे। जब देश भर में विद्रोह की चिंगारी भडकती दिखने लगी, तब जा कर अण्णा हजारे की शर्तें मानी। तब चौथे दिन बयान आया - सरकार भरष्टाचार के खिलाफ गंभीर है। सरकार गंभीर होती तो अदालत में यह ना कहती कि कोर्ट को 2-जी मामले में सरकारी नीति में दखल का हक नहीं। ए.राजा को मंत्री पद से हटाने के बाद भी मनमोहन सरकार अदालत में उनका बचाव कर रही थी कि नहीं। मनमोहन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लालू, मुलायम, मायावती का बचाव किया कि नहीं। मनमोहन और सोनिया को बिलकुल भरोसा नहीं था कि विरप्पा मोइली उन्हें इस संकट से उबार सकते हैं। हंसराज भारद्वाज की कई बार याद आती होगी। भारद्वाज पहली बार मिशन कर्नाटक में फेल हुए। पर कोई चारा नहीं था। भारद्वाज आ नहीं सकते थे, मोइली किसी काम के नहीं थे। इस लिए कानून मंत्री की बजाए बातचीत की जिम्मेदारी सिब्बल को सौंपी गई। जन आंदोलन को फ्यूज सिब्बल भी नहीं कर पाए। सरकार का इरादा भष्टाचार के खिलाफ लडने का होता तो आंदोलन को फ्यूज करने की ऐसी कुत्सित कोशिशें न होतीं, जैसी तीन दिन होती रहीं।

ऐसे जन आंदोलन की आशंका सरकार और विपक्ष को भले नहीं थी। जन आंदोलनों से जुडे रहे कार्यकताओं की तैयारी तब से थी, जब से मिसर, यमन, सिरिया, लिबिया में तख्तापल्ट आंदोलन शुरू हुए थे। पिछले तीन महीनों में ईटीवी के लिए इंटरव्यू करते हुए मैने यह सवाल बार उठाया था। मार्च में ही राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली से इंटरव्यू में मैने पूछा था, क्या उन्हें नहीं लगता कि यमन, सिरिया, लिबिया जैसा विद्रोह भडक सकता है। वह इससे सहमत नहीं थे, पर इस बात से सहमत थे कि विपक्ष जनता के गुस्से को मैच नहीं कर पा रहा। जनता का गुस्सा विपक्ष के संसद में दिखाए गए तेवरों से कंही ज्यादा था। जनता किसी जयप्रकाश नारायण की बाट जोह रही थी, जो अण्णा हजारे ने पूरी कर दी, तो सारा देश सडकों पर आ गया।

यही सवाल मैंने शरद यादव और सुषमा स्वराज से भी पूछा था। मैने पूछा था कि जनता के सबर का प्याला भर रहा है, सरकार कतई गंभीर नहीं दिखती, क्या वह फिर इमरजेंसी लगाएगी। इमरजैंसी जैसी आशंका किसी ने नही जताई। जेतली ने कहा था- 1975 दोहराया गया तो 1977 भी दोहराया जाएगा। अण्णा हजारे को भी सरकार इतनी जलदी झुकने की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने 13 अप्रैल से जेल भरो की रणभेरी बजाई थी, तो इमरजेंसी की याद ताजा हो गई थी। लोग उसी तरह सडकों पर आ चुके थे जैसे इमरजैंसी के बाद जेलों से छूटे अपने नेताओं को देखने के लिए आधी - आधी रात तक भीड उमडती थी। सरकार भष्टाचार के खिलाफ गंभीर नहीं थी, वह तो जनता का गुस्सा देखकर डर गई। सरकार की प्राथमिकता तो पांच राज्यों के चुनाव हैं। मनमोहन सिंह के नुमाइंदे ने पहले दिन कहा था, सरकार के पास 13 अप्रेल तक तो वक्त ही नहीं, सरकार चुनावों में व्यस्त है। वैसे मंत्री का यह बयान ही हमारी सड-गल चुकी व्यवस्था का सबूत है। सरकार की चुनावों में भूमिका ही संविधान विरोधी है। ऐसे कमजोर-लाचार संविधान पर कोई अनुपम खेर सवाल उठाता है, तो विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का मामला बन जाता है। मामला भी वही लोग बनाते हैं, जो खुद कांच के घरों में बैठे हैं।

सरकार कोई इतनी शरीफ भी नहीं है, जो चौथे दिन आसानी से मान गई। पांच राज्यों के चुनावों मे जनाक्रोश का डर न होता और जन आंदोलन से यमन, सिरिया, मिसर जैसे हालात की आशंका न होती तो सरकार मानती नहीं। सरकार ने उस लचर से लोकपाल बिल को भी संसंद में पेश करने की जहमत नहीं उठाई , जो भष्टाचार को रोकने में कतई कारगर नहीं। गंभीरता सिर्फ इस सरकार में नहीं, पिछली सरकारों में भी नहीं थी। वरना 1968 से बिल लटका न रहता। कांगेस सरकारें तो इसी बात पर अडीं रहतीं थीं कि प्रधानमंत्री को किसी हालत में लोकपाल के दायरे में नहीं लाने देंगे। पर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री को दायरे में लाने के हिमायती थे। उनके सलाहकारों ने तैयार पडा बिल पास करवाने की बजाए शायनिंग इंडिया के रथ पर सवार हो कर चुनाव करवा दिया था। भाजपा हो या कांगेस जनता की प्राथमिकता कोई नही समझता। चुने जाने के बाद सब अपना स्वार्थ देखते हैं। नरसिंह राव ने तो सांसद निधी बना कर सबका स्वार्थ सिध्द कर दिया था। सोनिया गांधी ने कांगेस के बुराडी अधिवेशन में विशेषाधिकार खत्म करने की बात की थी। मनमोहन सिंह ने सभी सांसदों का विशेषाधिकार दो करोड से बडा कर पांच करोड कर दिया।  बाबा अण्णा हजारे ऐसी सरकार की नियत पर शक कर के कुछ गलत नहीं कर रहे। कभी भी मक्कारी कर सकती है सरकार। इसलिए 15 अगस्त की समय सीमा तय करके वह कोई गलती नहीं कर रहे। सरकार कदम-कदम पर रोडे अटकाएगी, मंत्रिमंडल भी अटकाएगा, संसद भी अटकाएगी, ब्यूरोक्रेसी भी अटकाएगी , इसलिए बाबा अण्णा हजारे ने 15 अगस्त को लालकिले पर झंडा फहराने की धमकी दे कर ठीक ही किया है। यह चुनी हुई सरकार के खिलाफ बगावत है, तो बगावत ही सही। जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करतीं। इसलिए अण्णा ने चुने हुए नुमाइंदों को वापिस बुलाने के हक का अगला एजंडा तय कर दिया है।

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