अब न्यायमूर्ति भी बन गए रवीश कुमार 

Publsihed: 06.Jun.2017, 06:25

कभी वे पत्रकार थे। रिपोर्टर थे, तो गांव-गांव घूम कर बेहतरीन रिपोर्टिंग करते दिखते थे। फिर उन्होंने चोला बदला, लेकिन अंदाज़ वही रहा अर्थात देहाती लहज़े वाला सूट-बूट धारी एंकर। फिर यकायक वे अपने मीडिया हाउस के कर्मचारी से 'गोदी कर्मचारी' में तब्दील हो गए, तो चर्चा में भी आ गए। उन्हें ख़ुद लम्बे-लम्बे ख़त लिखने का भारी शौक है, लेकिन कोई उनके पत्र का उत्तर दे दे, तो पेट में ऎसी मरोड़ उठती है कि वे उसे चम्पू और सत्ता का दलाल कहने लगते हैं। अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देशभर में सिर्फ़ उन्हें है। किसी अन्य को नहीं है। अब वे बिना जांच हुए, बिना मुक़दमा फ़ैसला भी सुनाने लगे हैं यानी अब वे न्यायमूर्ति भी बन गए हैं।    

मुझे उनके कई वीडियो याद आते हैं, जो यूट्यूब पर मैंने देखे। एक में वे कुछ स्टूडेंट्स से बात करते हुए यह बिलकुल भूल जाते हैं कि वे जर्नलिस्ट हैं और ठेठ ईर्ष्यालु नेता के अंदाज़ में टिप्पणी करते हैं - .... हां, सबको पता है कि ये जो हवाईजहाजों में उड़ते फिरते हैं, उसका पैसा कहां से आता है। इस टिप्पणी से साफ़ है कि वे पीएम की हवाईयात्राओं पर तंज़ कस रहे हैं।  

उनकी इस टिप्पणी से दो सवाल उठते हैं, पहला तो यह कि आप जर्नलिस्ट हैं। हवा में इस तरह तीर चलाना क्या जर्नलिज़्म है? और दूसरा यह कि अगर आप वाकई ईमानदार जर्नलिस्ट हैं और आपका चैनल ठीक वैसा है, जैसा वह दावा करता है, तो आपको जो जानकारी है, वह आपने कोई कार्यक्रम बना कर जनता के सामने कभी क्यों नहीं रखी। उसे गुप्त दाढ़ी की तरह पेट में क्यों छुपाए हुए हैं? क्या आपने ख़ुद यह तय कर लिया कि यह जानकारी तो पूरी तरह देश के बच्चे-बच्चे को है, तो उसे सामने लाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। 

सवाल तो और भी कई हैं। एक यह भी है कि अगर आपके चैनल ने आपके भाईसाहब के कारनामों पर एक लाइन की कोई ख़बर ही दिखाई होती, तो आप इस कदर आलोचना का शिकार क्यों हुए होते? लेकिन अभी इस पर क्यों जाएं।      

'एनडीटीवी' के मालिक प्रणय राय के निवास पर छापे के बाद यह उनका बयान है, पहले इसे पढ़िए -

'तो आप डराइये, धमकाइये, आयकर विभाग से लेकर सबको लगा दीजिये। ये लीजिये हम डर से थर थर काँप रहे हैं। सोशल मीडिया और चंपुओं को लगाकर बदनामी चालू कर दीजिये लेकिन इसी वक्त में जब सब 'गोदी मीडिया' बने हुए हैं , एक ऐसा भी है जो गोद में नहीं खेल रहा है। आपकी यही कामयाबी होगी कि लोग गीत गाया करेंगे- गोदी में खेलती हैं इंडिया की हज़ारों मीडिया। एनडीटीवी इतनी आसानी से नहीं बना है, ये वो भी जानते हैं। मिटाने की इतनी ही खुशी हैं तो हुजूर किसी दिन कुर्सी पर आमने सामने हो जाइयेगा। हम होंगे, आप होंगे और कैमरा लाइव होगा।' 

क्या यह स्पष्ट नहीं है कि किसी बुद्धिमान व्यक्ति, वह भी पत्रकार से ऐसे बयान की आशंका कोई नहीं कर सकता। यह तो एक उजड़ी हुई दुखी आत्मा का प्रलाप भर है। आप भारत के समूचे मीडिया पर कीचड़ उछाल कर शहीद बनना चाहते हैं। सिर्फ़ एक आप ईमानदार हैं और बाक़ी का मीडिया 'गोदी मीडिया' है। सिर्फ़ एक आप बयान बहादुर और राय बहादुर हैं, शेष सभी चम्पू हैं। जो आपके ख़िलाफ़ बोले अगर वह सरकार का चम्पू, तो जो आपके पक्ष में बोले वह किसका चम्पू? अगर आप वाकई जर्नलिस्ट हैं, तो आपको डेढ़ साल पहले ही तब अभियान चलाना था, जब बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने आपके संस्थान और मालिकों पर खुले-आम मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाया था और कार्रवाई के लिए पीएम को पत्र लिखा था। अगर वे आरोप ग़लत थे, तो आपके मालिक और उनका चैनल ख़ामोश क्यों रहा? वे ठीक उस तरह अदालत क्यों नहीं पहुंचे, जिस तरह एक दिन का सांकेतिक प्रतिबन्ध लगते ही दौड़ कर कोर्ट पहुंचे थे? 

मैं एक मित्र की टिप्पणी के ज़रिए उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक प्रवक्ता की वाल पर जा पहुंचा। देखा कि स्टेटस दर स्टेटस उन्होंने 'एनडीटीवी' की भक्ति में सर्फ़ किए हुए हैं। मन में आया कि उन्हें याद दिलाऊं - भाईजान, आज़ादी के तत्काल बाद से अपना इतिहास क्या आपको याद नहीं है? क्या आपातकाल आपको स्मरण नहीं है, जब अनेक अख़बारों के दफ़्तरों पर छापे मारे गए थे? जब कई अख़बारों की बिजली काट दी गई थी? जब बड़े-बड़े सम्पादकों को कलेक्ट्री के मामूली बाबुओं के हाथ जोड़ने को विवश किया गया था? और जब कई सम्पादकों को पुलिस उनके घर या दफ़्तर से घसीटते हुए उठा ले गई थी और सलाखों के पीछे डाल दिया था? इतना ज्यादा पीछे जाने की भी क्या जरूरत, जब सुप्रीम कोर्ट आपके कार्यकाल में सीबीआई को 'पिंजरे का तोता' कहने को विवश हुआ, यह प्रसंग सबको याद है।  

किन्तु मुझे पता है कि कोई फ़ायदा नहीं, कांग्रेसी बंधु अपनी सामूहिक आदत के अनुसार फ़ौरन कह देंगे - माना कि कुछ ग़लतियां हमसे हुई, लेकिन अब आप भी उनका सहारा लेकर वही ग़लतियां करेंगे, यह भला क्या बात हुई? तो उनसे नहीं, लेकिन रवीश जी से यह प्रश्न अवश्य बनता है कि - भाईजान, ज़रा यह बताएं कि ये आपके चम्पू हैं या आप इनके? क्या समझें हम?

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