मुस्लिमों की ‘माया’: बसपा सोशल इंजीनियरिंग

Publsihed: 23.Jan.2017, 07:10

देवेंद्र शुक्ल /  भारत के सभी २९ राज्यों में से उत्तर प्रदेश, आबादी के लिहाज से सर्वाधिक मुस्लिम जनसँख्या वाला राज्य है (लगभग २० फीसदी) । जम्मू कश्मीर, देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ हिदुओं के मुकाबले मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है (६८ फीसदी) । राज्य की कुल आबादी में मुस्लिमों की जनसंख्या के घटते क्रम में लेने पर असम, पश्चिम बंगाल और  केरल के बाद उत्तर प्रदेश देश का चौथा ऐसा राज्य है जहाँ मुस्लिम आबादी पांचवे हिस्से के बराबर या उससे आधिक है। इस सन्दर्भ में यह बताना रोचक है कि उत्तर प्रदेश में कुल २० प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले जिलों की संख्या २१ है, इस आधार पर एक मोटे अनुमान से १०५ से ११० विधानसभाओं का भाग्य मुस्लिम मतदाता तय कर सकते हैं।

% of Muslim Population

State
Hindu %
Muslim %
Lakshadweep (UT)
2.8
96.58
Jammu & Kashmir
28.4
68.31
Assam
61.5
34.22
West Bengal
70.5
27.01
Kerala
54.7
26.56
Uttar Pradesh
79.7
19.26
Bihar
82.7
16.87
Jharkhand
67.8
14.53
India
79.8
14.23

२०१४ के लोकसभा चुनाव

२०१४ के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बना कर चुनाव अभियान चलाया। मई २०१४ में चुनाव के परिणाम भाजपा की उम्मीद से बहुत अधिक बेहतर आये और आजादी के बाद से देश में गैर-कांग्रेसी किसी भी एक दल ने पहली बार स्पष्ट बहुमत (२७२+) के आंकड़े को पार कर दिया। इस लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों ने उत्तर प्रदेश की ८० में से कुल ७३ सीटों पर जीत दर्ज की। बहुजन समाज पार्टी को इस चुनाव में सबसे भारी निराशा मिली जबकि वह पिछले ५ लोकसभा चुनावों में  पहली बार अपना खाता भी नहीं खोल सकी। सपा को ५ और कांग्रेस को महज दो परम्परागत सीटों– सोनिया गाँधी (रायबरेली)  और राहुल (अमेठी)- पर ही जीत मिल सकी।

उत्तर प्रदेश में लगभग १५ से २० लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें उम्मीदवार का चयन और जीत का समीकरण मुस्लिम वोटर को ध्यान में रख कर ही तय किया जाता है। उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में २०१४ ऐसा पहला चुनाव बन गया जिसमें एक भी मुस्लिम उम्मीदवार संसद पहुँचने में नाकाम रहा. बाबरी मस्जिद विवाद के समय चली राममन्दिर की प्रचंड लहर के बावजूद १९९१ में प्रदेश की (३) लोकसभा सीटों-  मुरादाबाद, सहारनपुर और फर्रुखाबाद- पर मुस्लिम उम्मीदवार विजयी रहे थे।

चुनावी विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश में लोकसभा २०१४ के चुनावों की भाजपा की एकतरफा जीत का एक बड़ा कारण मुस्लिम मतों का बिखराव बताया था। चुनाव पूर्व कांग्रेस के सपा या बसपा से गठबंधन न हो पाने से मुस्लिम मत ३ हिस्सों में बंट गए जिससे भाजपा ने बिना किसी ध्रुवीकरण के आसानी से उत्तर प्रदेश में अपने सांसदों की संख्या १० से ७१ कर ली।

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य बिहार में भी भाजपा और उसके सहयोगियों ने लगभग एकतरफा जीत दर्ज करते हुए  ४० में से ३१ सीटों पर कब्ज़ा किया जबकि सत्ताधारी जद (यु ) को दो , आरजेडी को ४ और कांग्रेस को महज १ सीट ही मिली. बिहार में भी भाजपा और उसके सहयोगियों के शानदार प्रदर्शन का एक बड़ा कारण चुनाव पूर्व अन्य दलों का गठबंधन न होने से मुस्लिम मतों में आया बिखराव भी था। 

बिहार में महागठबंधन और ‘माई’ (MY) 

२०१४ के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार से सबक ले कर बिहार में कांग्रेस की पहल और मध्यस्थता से सत्ताधारी जद (यु ) ने कभी अपने धुर विरोधी रहे लालू यादव के आरजेडी से चुनाव पूर्व महागठबंधन बनाया और २४३ सीटों वाली विधानसभा में १७८ सीटों पर बंपर जीत हासिल की। आरजेडी को ८० , जेडीयू को ७१ और महागठबंधन की तीसरी पार्टी कांग्रेस को २७ सीटें मिलीं। दूसरी ओर, भाजपा गठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा जिसे कुल ५८ सीटें हीं मिली। 

बिहार में महागठबंधन की बड़ी जीत का कारण ‘माई’ फेक्टर (MY:मुस्लिम+यादव) बना। महागठबंधन से मुस्लिम मतों का विभाजन रुका . चुनाव के दौरान विपक्षी दलों द्वारा असहिष्णुता को मुद्दा बना कर चलाये गये ‘पुरस्कार वापसी’ के प्रचार अभियान से और भाजपाई नेताओं के गो-रक्षा से जुड़े बयानों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को ले कर संवेदनशील मुस्लिमों को अधिक एकजुट करने का मौका दे दिया। 

इस सन्दर्भ में गौरतलब है कि लोकसभा के बड़े आकार के कारण विधानसभा चुनावों में क्षेत्र के लिहाज से मुस्लिम मतों का घनत्व अपेक्षाकृत बहुत अधिक होने के कारण इसका प्रभाव अधिक स्पष्ट और प्रभावी बन जाता है.बिहार और दिल्ली के विधानसभा-२०१५ और लोकसभा-२०१४ के चुनावों में मुस्लिम मतों की भूमिका का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।   

मुस्लिमों की टेक्टिकल वोटिंग 

उत्तर प्रदेश में पिछले २ विधानसभा चुनावों में प्रमुख दलों के मुस्लिम उम्मीदवारों की सफलता के आंकड़ों पर एक नजर डालने से कुछ बातें सरलता से समझ आ सकती हैं –

विधानसभा चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन

Party

Assembly Election-2012
Assembly Election-2007
Fielded
Won
Fielded
Won
BSP
85
15
61
29
SP
84
43
58
21
Congress
62
04
49
00
Others
NA
06
NA
06
Total
NA
68
NA
56

२००७ की तुलना में २०१२ के चुनावों में बसपा ने २४ अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था लेकिन जब परिणाम आये तो बसपा के मुस्लिम विधायकों की संख्या लगभग आधी रह गई. इसके ठीक उलट २००७ की तुलना में २०१२ में सपा ने २४ से भी अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और उसके मुस्लिम विधायकों की संख्या दोगुने से भी ज्यादा हो गई।

अब एक नजर बसपा के पिछले तीन विधानसभा चुनावों के मुस्लिम उम्मीदवारों की सफलता के आंकड़ों पर भी डालें –
विधानसभा चुनावों में बसपा के मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन

Assembly Election
Fielded
Muslim MLA Won
% Sucsess
Total MLA
% Sucsess of  Muslim MLA’s to Total BSP MLA’s
2002
86
14
16
98
14
2007
61
29
48
206
14
2012
85
15
18
80
19
2017
97
NA
NA
NA
NA

२००७ में बसपा ने ‘सर्वजन समाज’ का नारा देते हुए अपने कोर वोट बैंक दलित के साथ सवर्ण जातियों (Upper Caste Hindu)- ब्राह्मण, ठाकुर ,वैश्य- को जोड़ने की जो मुहिम चलाई वह उत्तर प्रदेश सहित देश की चुनावी राजनीति में नायाब थी, इसे ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का नाम दिया गया।
सवाल था कि  २००२ की तुलना में बसपा ने २००७ में क्यों कम मुस्लिम उम्मीदवार उतारे और क्यों ऐसा करने पर भी मुस्लिम विधयाकों की संख्या लगभग दुगनी हो गई ? साथ ही २००७ की तुलना में २०१२ में क्यों बसपा को अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारने पर भी नतीजों में पहले की तुलना में आधे ही मुस्लिम विधायक मिले ? 

केंद्र और उत्तर प्रदेश में गैर-भाजपाई सरकारों के २००४ से २०१४ के बीच के दौर में मुस्लिम मत का रुझान विधानसभा चनावों में उस दल की तरफ दिखा जिसकी प्रदेश में सरकार बननी थी। इसलिए मुस्लिम उम्मीदवारों की घटती-बढती दलीय संख्या के साथ मुस्लिम विधायकों की दलीय संख्या में सम्बन्ध, समानुपातिक न हो कर जटिल रहा। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चुनावो में मुस्लिम मतदाता टेक्टिकल वोटिंग का प्रयोग करते हैं।

बसपा का मुस्लिम कार्ड: सोशल इंजीयरिंग पार्ट-२

२०१७ के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा ने ४०३ सीटों कुल ९७ उम्मीदवार मुस्लिम घोषित किये।यानि कि बसपा का लगभग हर चौथा उम्मीदवार मुस्लिम है। उत्तर प्रदेश में कुल ८५ सीटें अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व हैं जिसका सीधा सा मतलब है कि ३१८ सामान्य सीटों पर ही वास्तव में ९७ मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे. उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में यह अब तक किसी भी चुनावी दल का मुस्लिमो पर लगाया गया सबसे बड़ा दांव है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि बसपा ने ‘राम मन्दिर आन्दोलन’ का केंद्र रहे अयोध्या पर भी पहली बार एक मुस्लिम उम्मीदवार घोषित कर दिया, जो की हार-जीत से परे अन्य दलों के लिए प्रतीकात्मक तौर पर एक बड़ी चुनौती होने के साथसाथ ही मुस्लिम समुदाय को अपने पाले में करने के लिए दिया गया एक गंभीर सन्देश है।

सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश कि आबादी में पांचवे हिस्से वाले मुस्लिम समुदाय से बसपा ने क्यों अपना हर चौथा उम्मीदवार मुस्लिम उतरा ?  इस सवाल का जवाब बसपा की सोशल इंजीनियरिंग पार्ट-१ के अच्छे और बुरे दिनों के विश्लेषण में खोजने की कोशिश की जा सकती है। 

सोशल इंजीनियरिंग के ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ दिन: एक दशक के उत्तर प्रदेश चुनाव (२००२ से २०१२ )

२००२ से २०१२ के बीच विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सामान्य (३१८) और अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व (८५) सीटों पर ४ प्रमुख दलों- बसपा, भाजपा, सपा और कांग्रेस के प्रदर्शन पर एक निगाह डालें–

उत्तर प्रदेश विधनासभा की (315) सामान्य सीटों पर २००२ से २०१२ के बीच चुनावों में 
दलगत प्रदर्शन

Party
Assembly Election
2012
Assembly Election
2007
Assembly Election
2002
Winner
Runner
Winner
Runner
Winner
Runner
BSP
65
150
145
91
74
83
BJP
44
45
44
56
71
75
SP
166
70
84
121
107
96
Congress
24
27
17
20
23
27

२००७ में बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले से सवर्ण-दलित गठजोड़ की बदौलत सामान्य सीटों की संख्या में २००२ की तुलना में शत-प्रतिशत इजाफा किया,इस लिहाज से २०१२ के चुनाव बसपा की सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के ‘अच्छे दिन’ थे. 

लेकिन २०१२ में बसपा के सवर्ण-दलित गठजोड़ में उभरी दरार से वह अपने २००२ के आंकड़े से भी लगभग १० कम हो गई. बसपा के सवर्ण-दलित गठजोड़ में दरार की शुरुआत २००९ के लोकसभा चुनावों में ही हो चुकी थी जबकि २ साल से उत्तर प्रदेश में सत्तासीन पार्टी को २००४ के १९ से सिर्फ एक ही सीट ज्यादा मिली थी. २००९ के लोकसभा चुनावों में विधानसभावार बढ़त का बसपा का आंकड़ा २००७ के २०६ से घटकर सिर्फ १०० पर पहुँच गया. फिर २०१२ में बसपा का ग्राफ और भी नीचे गया और वह विधानसभा में सिर्फ ८० सीटें ही जीत सकी .

इस तरह से सवर्ण-दलित गठजोड़ के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के ‘बुरे दिन’ की शुरुआत २००९ में ही बसपा के लिए हो गई थी , २०१४ के लोकसभा चुनाव में बसपा अपना खाता भी नही खोल सकी और विधानसभा क्षेत्रों में उसकी बढत सिर्फ ९ सीटों पर ही रह गई . बसपा की सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के ये सबसे ‘बुरे दिन’ थे .

उत्तर प्रदेश में २००७ से २०१४ के बीच हुए चुनावों में प्रमुख दलों का प्रदर्शन

Parliamentary
Election-2014

Assembly
Elections-2012

Parliamentary
 Election-2009

Assembly
Elections-2007
Party
Seats
Votes %
Seats
Votes %
Seats
Votes %
Seats
Votes %
BSP
0
19.8
80
25.9
20
27.4
206
30.4
SP
5
22.3
224
29.2
23
23.3
97
25.4
INC
2
7.5
28
11.6
21
18.3
22
8.6
BJP
71
42.6
47
15
10
17.5
51
17

मुस्लिम वोट बैंक पर बसपा की नजर

२००७ से २०१२ के बीच बसपा का वोट शेयर महज पांच फीसदी गिरा जिससे सीटों के लिहाज से वह अपने २००२ के आंकड़े (९८) से भी नीचे जा कर (८०) पर पहुँच गई । इसी प्रकार से २०१४ में लोकसभा में बसपा का वोट लगभग (१०) फीसदी वोट घटने से वह अपने २००९ के (१९) के आंकड़े से नीचे गिर कर शून्य पर सिमट गई, जो कि उसके १९८० में आस्तित्व में आने के ३ दशकों में किसी भी चुनाव में सबसे बदतर है।

२००७ से २०१४ तक बसपा के वोट बैंक में मोटे तौर पर १० प्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आई.
उत्तर प्रदेश के जातिगत आंकड़ों पर एक नजर डालने से पार्टियों के उम्मीदवारों के चयन का समीकरण समझने में मदद मिल सकती है -

जाति वर्ग
जनसंख्या में %
अनुसूचित जाति
21
सामान्य वर्ग (ब्राह्मण+ठाकुर+वैश्य)
21-23
अत्यंत पिछड़ा वर्ग
23-26
मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग
12-15
यादव
8-10
मुस्लिम
20

अनुसूचित जाति जहाँ बसपा का कोर वोट बैंक है वहीँ यादव सहित पिछड़ी जातियां सपा का। सवर्ण मतदाता मुख्य रूप से भाजपा और दूसरी पसंद के तौर पर कांग्रेस के साथ परम्परागत तौर पर जुड़ा माना जाता रहा है।

मुस्लिम मतदाता 90 के दशक के पूर्वार्ध तक प्रदेश में केंद्र और राज्य में एक साथ मजबूत कांग्रेस को ही वोट करते रहे थे , लेकिन राम मंदिर का ताला खुलने और 90 के दशक के उत्तरार्ध में मन्दिर निर्माण आंदोलन के बाद बाबरी मस्जिद टूटने से मुस्लिमों का कांग्रेस से भरोसा भी टूट गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की। 90 के ही दशक में  'कमंडल' के मुकाबले  'मण्डल' को उतारने से जातिगत राजनीति के उभार का माकूल अवसर मिला और सपा और बसपा के रूप में २ नए क्षेत्रीय दल  उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रमुखता से उभर आये।

राममंदिर आंदोलन के समय केंद्र में अस्थिर सरकारों का दौर था। इसी आंदोलन के समय कारसेवकों पर अयोध्या में गोली चलवाने का अवसर तत्कालीन सपाई मुख्यमंत्री मुलायम को मिला और मुस्लिमों को प्रदेश में कांग्रेस का विकल्प सपा में मिल गया था।

१९९९ में केंद्र में भाजपा सरकार और गुजरात में २००२ में कारसेवकों पर गोधरा में हुए हमले के बाद भड़के दंगों में मुस्लिम समुदाय को जानमाल का भारी नुकसान हुआ। गुजरात में उस समय भाजपा के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे , जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश के वाराणसी से लोकसभा का २०१४ का चुनाव जीत कर भाजपा की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री हैं। गुजरात दंगों को भाजपा और मोदी से जोड़, कांग्रेस सहित देश के सभी दल अपने अपने राज्यों में मुस्लिमों को अपने पाले में लाने के लिए राजनीति करते रहे हैं जिसे  २०१४ के बाद हुए बिहार , पश्चिम बंगाल, असम और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आसानी से लक्षित किया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के २०१७ के विधानसभा चुनाव में बसपा अपने २१ प्रतिशत कोर अनुसूचित जाति के वोटरों के साथ मुस्लिमों के २० प्रतिशत  जोड़ने के लिए ही सोशल इंजींनयरिंग पार्ट-२ के तौर पर ही प्रदेश की हर चौथी सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार दे रही है। इस विषय में यह गौर करने लायक है कि प्रदेश में २०२ के बहुमत के आंकड़े को २००७ और २०१२ के विधानसभा में उस पार्टी ने आसानी से पाया जिसके वोटों का प्रतिशत ३० के आसपास था। बसपा ने सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और सबसे कम बुंदेलखंड में उतारें है, क्योंकि बुंदेलखंड में मुस्लिम जनसंख्यां का प्रतिशत पुरे प्रदेश में सबसे कम है और वहां बसपा बिन मुस्लिमों के भी सभी दलों को पटखनी देने में सबसे ज्यादा सक्षम है। 

जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण में बसपा के पास अनुसूचित जाति के वोटरों का जिताऊ समीकरण काम कर सकता है। सपा के पास मुस्लिम वोटरों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के मुकाबले जिताऊ समीकरण बनाने के लिए दूसरा कोई भी जाति वर्ग खोजना मुमकिन नहीं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के कोर वोट जाट के भाजपा के साथ जाने के पुरे आसार हैं, फिर भी मुस्लिम वोटरों को ध्यान में रखकर ही बसपा और सपा ने रालोद से किसी भी गठबंधन से दुरी बनाना ही बेहतर समझा है।
 
२०१७ के विधानसभा चुनावों की घोषणा होने से लगभग २ वर्ष पूर्व ही यानि लोकसभा चुनाव -२०१४ के ठीक बाद से ही, बसपा ने छिटकते सवर्ण वोटरों के रिप्लेसमेंट वोट बैंक के तौर पर मुस्लिम समुदाय को साथ लेने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। २०१७ का उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव बसपा के साथ मुस्लिमों की माया के रूप में सोशल इंजीनियरिंग पार्ट-२ है ....... और संभव है कि यह अयोध्या में बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार देने से यह कम्युनल इंजीनियरिंग पार्ट-१ साबित हो।
(Written by Devendra Shukla,associated with Team CVOTER News Service. He is presently heading the Research Desk in DD News) 
DDnews ResearchTeam at 10:29 PM
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