प्रवीण बागी/ पटना निवासी लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा अब नहीं रहे। आज दिल्ली में उनका निधन हो गया। वे 92 वर्ष के थे। उन्होंने एक सार्थक और मूल्य आधारित जीवन जीया। वे युद्ध नीति और इतिहास के गहरे जानकर थे। उन्हें अपने जीवन में कई बार अन्याय का सामना करना पड़ा ,लेकिन उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वे 1943 में सेना में शामिल हुए थे। 1947 में कश्मीर पर कब्जे के लिए जब पाक कबाइलियों ने हमला किया था तो उसे रोकने के लिए भारतीय सेना की जो पहली टुकड़ी श्रीनगर पहुंची थी ,उसके लीडर एसके सिन्हा ही थे। आगे चलकर वे थल सेना के उप सेनाध्यक्ष बने। जेपी से संबंध होने के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उन्हें थल सेनाध्यक्ष नहीं बनाया। उनके जूनियर लेफ्टिनेंट जनरल ए एस वैद्ध को थलसेनाध्यक्ष बना दिया। इसके विरोध में उन्होंने सेना से इस्तीफा दे दिया।1984 के लोकसभा चुनाव में वे पटना से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। संपूर्ण विपक्ष का समर्थन उनको था। लेकिन कांग्रेस ने बेईमानी कर उन्हें हरा दिया। कांग्रेस के उम्मीदवार (वर्तमान बीजेपी नेता) डॉ सीपी ठाकुर चुनाव जीत गये। चुनाव के दिन बूथों से मतदाताओं को भगा दिया गया था। स्ट्रांग रूम में मतपेटी की सील टूटी पाई गई थी। जनरल सिन्हा के चुनाव चिन्ह पर मोहर लगे बैलेट पेपर बड़ी संख्या में इधर उधर फेके मिले थे। उस समय आर के सिंह (मौजूदा बीजेपी सांसद) पटना के डीएम थे। उस चुनाव में पटना में सरकार और प्रशासन ने मिलकर लोकतंत्र की हत्या की थी। ताकि जनरल सिन्हा चुनाव न जीत पायें। फिर भी वे नहीं झुके। बाद में उन्होंने पटना का नाम पाटलिपुत्र करने का अभियान चलाया। तर्क यह था कि इससे लोग पटना के गौरवशाली इतिहास से जुड़ेंगे।इस अभियान को व्यापक जनसमर्थन मिला। कांग्रेस छोड़ लगभग सभी पार्टियों के नेताओं ने भी इसका समर्थन किया। लेकिन जब वे नेता सत्ता में आये तो उन्होंने भी जनरल सिन्हा को निराश किया। आखिरकार पटना पाटलिपुत्र नहीं बन सका। मद्रास, बम्बई, कलकत्ता, पांडिचेरी का नाम बदल गया,लेकिन पटना आज भी अपने प्राचीन गौरव से नहीं जुड़ सका। जब नालंदा विश्वविद्यालय के सहारे गौरवशाली इतिहास से जुड़ा जा सकता है तो पटना का क्या कसूर है ? सिन्हा साहब तो चले गये क्या राज्य सरकार अब भी पटना का नाम पाटलिपुत्र करने की सदाशयता दिखायेगी ? यही उस वीर सेनानी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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