सर पर साफा और सम्पूर्ण खादी के वस्त्र, हवाई चप्पल मतलब पूरे गाँव वाले का हुलिया बनाये एक अधेड़ जिसे हम "देहाती"भी कह सकते हैं। भोर होते ही दरवाजे पर आ धमके और मैं आँखे मूंदे, कभी मिलमिलाते हुए, गोंणा (जानवर बाँधने की जगह ) से नीम की दातून तोड़ने के लिए जा रहा था, एक नजर हमने उनकी और गर्दन घुमा के देखा चलते चलते। सोचा कि होगा कोई पड़ोस गाँव का, पिता जी से मिलने या किसी काम से आया होगा। अब तक मैं नीम की टहनी पकड़ पूरा लटककर दातुन तोड़ लिए थे। मुंह में नीम की टहनी की दातुन करते करते मैं वापस हुआ तो दरवाजे की ओर देखा कि वह शख्स हमको बड़ा टकटकी लगाकर देख रहे थे। हमने पास पहुँच कर मुंह में दातुन दवाये हुए पूछा, काहे ताऊ का लेने आये हो, कौन गाँव से हो, इतना पूछते ही जनाव ने मेरी ओर थोड़ा आँखे टेड़ी-मेड़ी की और सर झुकाते हुए चश्मा नाक पर करके गौर से देखा और बोले पहचाना नहीं, हम हैं तुम्हारे गुरु जी सरस्वती शिशु मंदिर, हिंदी वाले, चम्पक लाल। इतना सुनते ही मेरे होश उड़ गए आज के करीब बारह साल पहले इनको आखिरी बार देखा था। मैंने झुकते हुए पैर छुए, कहा गुरु जी आप कैसे हैं? काफी दिनों बाद देखा है आपको और आपने तो अपना भेष ही बदल लिया है। मास्टर जी तपाक से बोले भेष कहां बदल लिया। हम तो पहले भी ऐसे ही थे और आज तो हिंदी दिवस है इसलिए लाल बहादुर शास्त्री भेष में हिन्दीमय हूँ, तब जाकर हमे भी ध्यान आया कि आज 14 सितंबर है यानि हिंदी दिवस। वही हिंदी जिसका "अ" बनाने के लिए हमारी माँ कहती थी पहले एक चूल्हा बनाओ फिर उसी में दुसरा चूल्हा जोड़ दो तब जाकर हमने कहीं हिंदी का पहला अक्षर "अ" सीखा था जिस हिंदी के माध्यम से पहले माँ-बाप, समाज, पढ़ाई, लिखाई, दुनिया देखी और यहां तक पहुंचा हूँ। आज उसी हिन्दी दिवस पर हमे हमारे गुरु जी आकर बताते हैं कि आज उसी हिंदी का हिंदी दिवस है। इतना सब कुछ सोच ही रहे थे कि मास्टर जी बोल पड़े और कैसे हो? सुनने में आया है कि अब दिल्ली ही रहोगे। मैं इस सब की सोच से अभी तक बाहर नहीं निकल पाया था। अचानक उनके सवाल से चौंक गया। हमने अनबने मन से "Yes Yes" का जबाव दे दिया मास्टर जी बोले अब तो मात् भाषा के बच्चे भी इंग्लिश मीडियम वाले होते जा रहे हैं। शायद मास्टर जी हमारे उत्तर से संतुष्ट नहीं थे। मैंने उनको चारपाई डालते हुए बैठने को कहा, मास्टर जी अपना थैला चारपाई के सिरहाने रखते हुए बैठ गए, हमे भी इशारा कर दिया बैठने को, तो मैं भी एक ओर बैठ गया। मास्टर जी बोले तुम तो सिर्फ पढ़ने के लिए दिल्ली गए थे लेकिन अब वहीँ के होना चाहते हो। अच्छा वहां तो अभी हिंदी ही बोली जाती होगी, या इंग्लिश वाली पीढ़ी आ गयी है। मैंने कहा मास्टर जी हिंदी ही बोली जाती। इतने में मास्टर जी बोल पड़े नई पीढ़ी तो इंग्लिश ही बोलता होगा। मैंने जबाव दिया, हाँ नई पीढ़ी इंग्लिश की ओर रुख ज्यादा करती है। इतना सुनकर मास्टर जी बोलने लगे अरे बेटा धीरे धीरे हिंदी मिटती जा रही है। वह तो परदेश है यहाँ अपने गाँव में हिंदी ढलान पर है, साथ ही मेरा उदहारण देते हुए कहा अब तो बच्चों को घर-घर जाकर बताना पड़ता है, की आज हिंदी दिवस है। मैंने उनकी बात पर बनावटी मुस्कान छोड़ते हुए कहा, अरे मास्टर जी ऐसा कुछ नहीं है। हिंदीं हमेशा हमारी मातृ भाषा रहेगी। दरअशल भाग दौड़ में भूल गया कि आज हिंदी दिवस है। मास्टर जी मेरा जबाव सुनकर बोले, अपना जन्मदिन भूले कभी, माँ बाप को भूले कभी, मैंने "न" में सिर हिला दिया। तो हिंदी को कैसे भूल सकते हो? वह भी हमारी माँ के समान है।
( माफ करें मैं हिंदी भाषी हूं, लेकिन मां- बाप ने मेरा नाम अंंग्रेजी रख दिया. हर मां बाप की तरह मेरे मां बाप की इच्छा भी मुझे ईंगलिश मीडियम वाला बनाने की थी...यह लेख 15 सितंबर 2014 को लिखा था हिंदी दिवस के एक दिन बाद। वाकई आज हमारे जैसा हाल बहुतों का है हम पर किसी एक भाषा ने अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया है, जिसके चलते हिंदी भाषा, मातृ भाषा से नाममात्र की भाषा रह गयी है। 14 सितंबर को हिंदी दिवस होता है और 14 फ़रवरी को वेलेनटाईनडे। अगर भारत के किसी बच्चे, युवा, बुजुर्ग से पूछा जाए कि हिंदी दिवस कब होता है तो शायद कम ही लोग बता पाएंगे लेकिन वेलेनटाईनडे की तारीख़ हर किसी को पता होती है। दूसरों का क्या कहूँ यह तो मेरी ही हालत है। हमारी नजऱंदाजियां आने वाली पीढ़ी हिंदी को और हमसे दूर कर देगी, अगर अभी भी हमने इस पर विचार न किया तो। )
एक पुराना लेख ड्रीम ठाकुर
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