इस सम्मान का एक सांस्कृतिक मोल है

Publsihed: 24.Dec.2016, 13:52
नासिरा शर्मा को साहित्य अकादेमी सम्मान मिलने पर विशेष लेख

प्रियदर्शन / नासिरा शर्मा के जो सबसे रचनात्मक वर्ष थे, वे पुरस्कारविहीन निकल गए। वे तब दूसरों को साहित्य अकादेमी दिया करती थीं। जिस निर्णायक समिति ने करीब 16 साल पहले मंगलेश डबराल को सम्मान दिया था, उसकी एक सदस्य वे भी थीं। लेकिन खुद उन्हें अब जाकर यह सम्मान मिला है। यह सहज स्वाभाविक है कि वे और उनके प्रशंसक भी यह मानें कि उन्हें देर से यह सम्मान मिला। जिस उपन्यास ‘पारिजात’ को यह सम्मान मिला है, वह नासिरा शर्मा की दूसरी कृतियों के मुक़ाबले अल्पख्यात है- शायद इसलिए कि नया भी है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि अकादेमी कभी-कभी भूलों का प्रक्षालन करती है, इस बार भी उसने यह काम किया।

लेकिन साहित्य अकादेमी का यह निर्णय कई वजहों से उल्लेखनीय है। साहित्य अकादेमी के साठ साल से ऊपर के इतिहास में हिंदी में नासिरा शर्मा सिर्फ़ चौथी महिला हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है। इसके पहले कृष्णा सोबती, अलका सरावगी और मृदुला गर्ग यह सम्मान हासिल कर पाईं। मन्नू भंडारी, मृणाल पांडे, चित्रा मुदगल, मैत्रेयी पुष्पा, राजी सेठ या ऐसी कई दिग्गज लेखिकाओं को अब तक इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया। दूसरी बात यह कि नासिरा शर्मा पहली मुस्लिम लेखक हैं जिन्हें हिंदी का साहित्य अकादेमी सम्मान मिला है। यह बात कुछ और स्तब्ध करने वाली है। राही मासूम रज़ा, असगर वज़ाहत, अब्दुल बिस्मिल्ला, मंजूर एहतेशाम- सब छूट गए। असद ज़ैदी जैसा समर्थ कवि इससे वंचित है।
निस्संदेह नासिरा शर्मा को यह सम्मान उनके महिला या मुस्लिम होने की वजह से न मिला है और न मिलना चाहिए था। वे एक समर्थ लेखिका हैं। समकालीन हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के संसार में कुछ गिने-चुने लोग ही होंगे जिनके पास विषयों का इतना बडा वितान हो और एक साथ इतनी सारी भाषाओं की समझ हो। हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी और पश्तो पर अपने अधिकार के साथ उन्होंने जितना कुछ लिखा है, वह हिंदी साहित्य और समाज के लिए मूल्यवान है। वह भारत की ही नहीं, एशिया की सांस्कृतिक धरोहर है। ‘सात नदियां एक समंदर’, ‘शाल्मली’, ‘कुइयांजान’, ‘अक्षयवट’, ‘ज़ीरो रोड’ जैसे आधा दर्जन से ज्यादा उपन्यासों, ‘इब्ने मरियम’, ‘शामी कागज़’, ‘पत्थर गली’ और ‘ख़ुदा की वापसी’ जैसे कई कहानी संग्रहों, ‘अफ़गानिस्तान बुज़कशी का मैदान’, ‘मरजीना का देश इराक’, और ‘राष्ट्र और मुसलमान’ जैसी ढेर सारी कृतियों के माध्यम से उन्होंने सिर्फ़ स्त्री लेखन की ही नहीं, साहित्य लेखन की सरहदें भी तोड़ीं। जिस उपन्यास ‘पारिजात’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का सम्मान मिला है, वह भी संस्कृति और परंपरा की बा़ड़ेबंदियों के आरपार जाकर संबंधों के नए सूत्र खोजने की कोशिश के बीच बनता है। रोहित और रूही और कई अन्य किरदारों के बीच बनी यह कहानी नासिरा शर्मा की जानी-पहचानी सांस्कृतिक चिंताओं का सुराग देती है।
जाहिर है,  यह नासिरा शर्मा के स्त्री या मुस्लिम होने के नाते उनको मिला सम्मान नहीं है। पिछड़ी जातियों के प्रति अपनी वर्णगत घृणा को जो लोग आरक्षण के प्रति अपनी वैचारिक घृणा में बदलते हैं, वही नासिरा शर्मा के सम्मान के स्त्री या मुस्लिम पक्ष को आरक्षण की संकुचित दृष्टि से जोड़़कर देख सकते हैं। नासिरा शर्मा को मिला सम्मान बस यह बता रहा है कि हिंदी भाषा और साहित्य का दायरा अब पहले से बड़ा हुआ है। वहां धीरे-धीरे ही सही, मगर सवर्ण और पुरुष वर्चस्व टूट रहा है। इसका कुछ वास्ता शायद इस सच्चाई से भी है कि हिंदी की सवर्ण मध्यवर्गीय पट्टी अपने रोटी-रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी से जुड़ी है और हिंदी मूलतः उन दलितों-आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की भाषा रह गई है जिनके हाथ में पहली बार कागज-कलम आए हैं। हिंदी के इस बदलते वर्ग चरित्र का एक असर यह देखने को मिल सकता है कि आने वाले दिनों में हम पहली बार किसी लेखक को हिंदी में साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त करता देखें।
 
लेकिन फिलहाल नासिरा शर्मा पर लौटें। यह सच है कि अमूमन पूरा हिंदी साहित्य अपने चरित्र में यथास्थितिविरोधी भी है, बाज़ारविरोधी भी और सांस्कृतिक बहुलता के प्रति सदय-संवेदनशील भी, लेकिन नासिरा शर्मा के लेखन में उन सांस्कृतिक तंतुओं को कहीं ज्यादा सघनता से पहचाना जा सकता है जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, इसके पार की पश्चिम एशियाई पट्टी तक पसरे हुए हैं और जिनकी सभ्यतागत रगड़ के बीच यह पूरा समाज बना है। उनका सम्मान कर साहित्य अकादेमी ने एक ऋण चुकाया है जो वैसे हिंदी के बहुत सारे समर्थ लेखकों पर फिर भी बकाया है।

( प्रियदर्शन का लेख,गीताश्री की फेसबुक वाल से साभार) 

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