लक्ष्मी नारायण शीतल मंजे हुए पत्रकार हैं. उन्होने दिग्विजय सिंह को निशाना बना कर एक लेख लिखा.जिस का शीर्षक दिया था 'सियासी तवाइफखाने के भडुए'. मुझे शुरू में इस शब्द पर कडा एतराज था.आज भी है. हमें संसदीय भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. लेकिन उन के उस लेख को खासी तारीफ मिली.इस से बात जाहिर हुई कि समाज अब क्या सोच रहा है. शीतल जी ने सियासी वर्ग के लिए भडुए शब्द का इस्तेमाल किया. लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो सोशल मीडिया पर सरकार के समर्थकों को भक्त लिख रहा है.यह खुद को बुद्धिजीवी वर्ग कहलाता है और पिछली सरकार का समर्थक था.तब इन्हें भद्र लोगों ने कभी भक्त नहीं कहा. लेकिन इस सरकार के समर्थकों को भक्त कहलाना पसंद नहीं. इसी लिए पिछली सरकार के समर्थक इन्हें चिढाने के लिए ज्यादा ही भक्त भक्त चिल्ला रहे हैं. शीतल जी ने अपने शब्द को उचित ठहराने के लिए तर्क दिया है कि शब्द तिजौरी में रखने के लिए नहीं होते. काफी हद तक उचित तर्क है.फिर भी सियासी जमात के लिए यह शब्द इस्तेमाल होना चाहिए या नहीं, यह पाठक खुद तय करें. हां , जो पिछली जनता की ओर से पिछवाडे पर ठोकर मार कर भगाई गई सरकार के अब भी समर्थक हैं , शीतल जी ने सरकार के भक्तों को उन्हे भडुए लिखने का एक विकल्प जरूर दे दिया है.......
पढें शीतल जी की ताजा टिप्पणी और पुराना लेख.
‘सियासी तवाइफ़ख़ाने’ के भडुए!--शीर्षक से लिखी मेरी पोस्ट का ज़्यादातर मित्रों ने पुरज़ोर समर्थन किया है, लेकिन तीन-चार विद्वान मित्रों ने मेरी भाषा की 'अशालीनता' पर एतराज़ भी जताया है. खेद है कि मैं लाख चाहने के बावज़ूद उन मित्रों से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ.
मैं प्रख्यात वैज्ञानिक न्यूटन के इस सिद्धान्त में यक़ीन रखता हूँ कि 'For every action there is an equal and opposite re-action.' इस नियम की देसी व्याख्या यह है कि किसी 'बड़े' व्यक्ति का वक्तव्य या कृतित्व जितना बेहूदा होगा, उस पर प्रतिक्रिया भी उतने ही कड़े शब्दों में दी जायेगी. शब्द इस्तेमाल करने के लिए ही बने होते हैं, तिजोरी में रखने के लिए नहीं. जैसी धातु, वैसी चोट!! ये तीनों महानुभाव जो हरकतें करते रहे हैं, क्या वे शालीन हैं? चोरी करने वाले को चोर ही कहा जाता है न! या कुछ और!! जो जिस लायक़ होता है, उसके लिए वही भाषा उपयुक्त होती है.
दिग्विजय सिंह, सोनिया गान्धी, राहुल गान्धी और अरविन्द केजरीवाल की निगाह में वह हर मुठभेड़ फ़र्ज़ी ही होती है, और सदा फ़र्ज़ी ही रहेगी, जिसमें कोई 'मासूम मुस्लिम' मारा गया हो. भले ही वह 'मासूम' कितना ही बड़ा आतंकी क्यों न हो ! मैं इन महानुभावों जितना शिष्ट कभी नहीं हो सकता, जो सैकड़ों हत्याओं के दोषी दुर्दांत आतंकवादी सरग़नाओं को भी बेहद सम्मानजनक सम्बोधन देने में अपनी शान समझते हैं. हाँ, अगर मुठभेड़ में कोई ग़ैरमुस्लिम अपराधी या आतंकी मारा जाये, तो उन्हें उस मुठभेड़ से कोई मतलब नहीं.
मेरे एक 'मित्र' ने अज्ञानतावश इन सियासतदानों को राजनेता कह कर सम्मानित कर डाला है. वह समझ लें कि 'सियासी नेता' और 'राजनेता' में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है। अँगरेज़ी में सियासी नेता को 'Politician' और राजनेता को 'Statesman' कहते हैं।
हर व्यक्ति को किसी भी बात/विषय/व्यक्ति के बारे में अपनी राय बनाने और उसे व्यक्त करने का अधिकार है. दरअसल, तटस्थता या निरपेक्षता जैसा कुछ होता नहीं है. किसी भी मुद्दे पर, सोच-समझ से ताल्लुक रखने वालों की, कोई एक राय बनती ही है. मुझे तार्किक दृष्टि से जो अच्छा या बुरा लगता है, उसके बारे में अपनी बात रखने से कभी चूकता नहीं. इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. हाँ, जिसे मेरे 'सच' से 'कब्ज़' होती हो, वह मुझे ब्लॉक करके मुझसे 'मुक्ति' पा सकता है.
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‘सियासी तवाइफ़ख़ाने’ के भडुए!
‘बुज़ुर्ग’ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का एक सवाल मुझे लगातार परेशान कर रहा है. उतनी ही परेशान मुझे दिल्ली के महापौर-नुमा मुख्यमन्त्री ‘दानवीर’ अरविन्द केजरीवाल की फ़राग़दिली भी कर रही है. सोनिया जी के नूर-ए-चश्म शहज़ादे राहुल बाबा की चीख़-चिल्लाहट भी कोई कम परेशान नहीं कर रही है. वाक़या कोई भी हो, पर ये तीनों किरदार ‘सियासी तवाइफ़ख़ाने की भडुआगीरी’ करने से बाज़ नहीं आये कभी.
भोपाल सेण्ट्रल जेल से भागे आठ सिमी आतंकियों के मारे जाने पर ‘ग़मगीन’ दिग्विजय सिंह ने सवाल दाग़ा--‘जेल तोड़ कर मुसलमान ही क्यों भागते हैं?’ जिन्हें इस सवाल का जवाब देना था, या जो इस सवाल का माकूल जवाब दे सकते थे, वे वोट खोने की आशंका से डर कर सोनिया से केवल इतना ही पूछ पाये कि क्या दिग्गी का सवाल कांग्रेस का अधिकृत सवाल है. और, कांग्रेस ने इस सवाल को जवाब देने लायक़ तक नहीं समझा. डस्टबिन में फेंक दिया. अपनी सियासी ज़िन्दगी के आख़िरी दौर से गुज़र रहे दिग्विजय सिंह से मेरे तीन सवाल हैं. वह इन तीन सवालों का जवाब भले ही न दे पायें, लेकिन ये सवाल दिग्गी राजा को उनके उस एक सवाल का जवाब ज़रूर दे देंगे.
दिग्विजय सिंह जी, आमतौर पर मुस्लिम शासकों के तख़्त-ओ-ताज का फ़ैसला दावेदारों के बीच ख़ूनख़राबे से ही क्यों होता रहा? दूसरा सवाल यह कि देश में आतंकवाद या जासूसी की जितनी भी घटनाएँ हुई हैं, उनमें से ज़्यादातर में मुसलमान ही शामिल क्यों पाये जाते रहे हैं? जबकि वे देश की कुल आबादी का छठा हिस्सा हैं. आबादी और संलिप्तता का अनुपात इतना गड़बड़ क्यों है आखिर? और, दुनिया के उन्हीं हिस्सों में मज़हब के नाम पर सबसे ज़्यादा ख़ून-ख़राबा क्यों हो रहा है, जिनमें मुस्लिम आबादी का बोलबाला है. दिग्विजय सिंह जी, आपको क्यों समझ में नहीं आता कि इस तरह के बचकाने सवाल उछालने से न तो आपको और न ही आपकी पार्टी को कुछ हासिल होने वाला है. तरस आता है आपकी बेचारगी पर कि जिनकी ठोढ़ी सहलाने के लिए आप इतने आकुल-व्याकुल रहते हैं, वे भी तो आपको अपना ख़ैरख़्वाह नहीं मानते. और, मानें भी क्यों?
ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब कर्ण को भी पीछे छोड़ने पर आमादा ‘दानवीर’ केजरीवाल ने अपनी ‘बेचारगी’ इन लफ़्ज़ों में बयां की थी--‘मैं हूँ तो दिल्ली का मुख्य मन्त्री, लेकिन पीएम मोदी के पिट्ठू और दिल्ली के एलजी नजीब जंग ने अपने आक़ा के इशारे पर मेरी औक़ात पाँच रुपये का एक पेन तक ख़रीदने की नहीं छोड़ी है. दूसरी तरफ़, वही ‘यतीम’ केजरीवाल एक करोड़ रुपये की रक़म से कम की ख़ैरात बाँटने को अपनी शान के ख़िलाफ़ मानते हैं. वह उसे गाहे-ब-गाहे यों लुटाते हैं, मानो वह दिल्ली के तख़्त पर क़ाबिज़ मुग़ल बादशाह हों. भैया केजरी, अगर देश-भर में ख़ैरात बाँटने के लिए आपके हाथ इतने ही ज़्यादा खुजला रहे हैं, तो उस ‘खाज’ को अपने बाप-दादाओं की कमाई से दूर करो न! दिल्ली के बेचारे करदाताओं की पीठ पर लदे ‘वैताल-सवारी’ क्यों कर रहे हो?
राहुल बाबा की तो बात ही निराली है. ‘ओआरओपी’ में कथित ‘अन्याय’ के चलते एक पूर्व सैनिक ने आत्मघात क्या कर लिया कि राहुल बाबा के ख़ून में इतना उफ़ान आ गया कि वह पूर्व सैनिकों की पीठ पर सवार होकर दिल्ली के तख़्त पर क़ाबिज़ होने के दिवा-स्वप्न देखने लगे. जवान होने के बावज़ूद उनकी याद्दाश्त इतनी कमज़ोर हो गयी है, या फिर ‘अपनी सुविधा के मुताबिक़ भूल जाने’ की उनकी बीमारी इस क़दर बढ़ गयी है कि उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि दो साल पहले तक 10 साल उनकी अपनी ही सरकार थी. तब उसे पूर्व सैनिकों को ‘ओआरओपी’ देने से किसने रोका था? उन्हीं के रक्षा मन्त्री एके एंटनी ने कहा था कि 'ओआर ओपी' देना सम्भव नहीं है. राहुल बाबा ‘ताण्डव’ करने की बजाय सरकार पर इस बात के लिए दबाव डालते कि इस योजना के अमल में रह गयी तकनीकी ख़ामियों को जल्द से जल्द दूर किया जाये, तो बेहतर होता.
लब-ए-लुआब यह कि हे तीनो महानुभावो! बस इतना समझ लीजै कि मुसलमान, पूर्व सैनिक या फिर कोई अन्य समूह महज़ ‘वोट’ नहीं हैं. ऐसा समझने की गुस्ताख़ी करनेवाले, चाहे वे कोई भी क्यों न हों, देशभक्त तो हरगिज़ नहीं हो सकते. उन्हें ‘सियासी तवाइफ़ख़ाने’ के भड़ुए ही कहा जायेगा!
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