अटार्नी जनरल के साथ दोनो गवर्नर भी जाने चाहिये

Publsihed: 13.Jul.2016, 21:30

उत्तराखंड के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल में भी दलबदल से कांग्रेस की सरकार गिराने को अवैध करार दे दिया है . स्वाभाविक है कि राज्यपाल की सिफरिश पर अटार्नी जनरल मुकुल रोह्तगी से सलाह ले कर ही सरकार ने राष्ट्रपति को सिफारिश भेजी होगी.अगर उन से सलाह नहीं ली गयी थी तो उन्हे कोर्ट में सरकार की पैरवी करने से पहले ही सरकार को बता देना चाहिये था कि केस कमजोर है और वह पैरवी नहीं कर पायेंगे.अगर सरकार फिर भी नहीं मानती तो उन्हे पहले ही इस्तीफा दे देना चाहिये था.क्योंकि रोहतगी ने कोर्ट में पैरवी की, इस से यही अर्थ निकलता है कि सरकार की ओर से उठाये गये कदम पर अटार्नी जनरल की सहमति थी. अब जबकि अटार्नी जनरल रोहतगी सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के फैसले की सफलता पूर्वक पैरवी करने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं. तो उन्हे खुद ही इस्तीफा दे देना चाहिये. अगर वह इस्तीफा नहीं देते तो ऐसे नाकारा अटार्नी जनरल को क्या मोदी सरकार ने कोर्ट में मुन्ह दिखाई के लिये रखा हुया है.

पर अटार्नी जनरल की बारी तो बाद में आती है, उसे तो केबिनेट के फैसले का कोर्ट में बचाव करना था, सवाल यह है कि क्या इन दोनो राज्यो के राज्यपालो की भूमिका पर इन दोनो से इस्तीफे नहीं लेने चाहिये. अरुणांचल के राज्यपाल ने जिस तरह स्पीकर की ओर से तय तारीख से पहले गेस्ट हाऊस में सदन की बैठक बुलवाई वह तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओ का उल्न्घन था.उत्तराखंड के राज्यपाल की संवैधानिक समझ भी अरुणांचल के राजयपाल से ज्यादा नहीं. उनको 35 विधायको ने ज्ञापन दे कर कहा कि वित्त विधेयक सलीके से पास नन्ही हुया. उन्होने मत विभाजन मांगा था, स्पीकर ने उसकी अनदेखी कर के बिना बहुमत के ही बिल को पास बता दिया. राज्यपाल ने स्पीकर से रिपोर्ट मांगने की बजाय मुख्यमंत्री को बहुमत साबित को कह दिया जो किसी भी लिहाज से उचित नहीं था. राज्यपाल को चाहिये था कि वह स्पीकर से रिपोर्ट मंगाते, उस से सहमत न होते तो सरकार को दुबारा वित्त विधेयक पास करने को कहते. लेकिन उन्होने सरकार को बहुमत सबित कर्ने को कह दिया. पहले उत्तरांचल के मामले ,में भद्द पिट्ने और अब अरुणांचल के मामले में मुन्ह की खाने के बाद मोदी को अटार्नी जनरल के साथ साथ दोनो अनाडी राज्यपालो को भी रुखसत कर देना चाहिये.

नये राज्यपाल भी किरण बेदी जैसे नियुक्त नहीं करने चाहिये, वरना वे भी भद्द पिटवायेंगे. किरण बेदी रिटायर्ड आईपीएस हैं, और उत्तराखंड के  राज्यपाल भी रिटायर्ड आईपीएस हैं. अरुणाचल के राज्यपाल बस एक कदम आगे आईएएस हैं. कांग्रेस की तरह अगर मोदी सरकार भी आईएएस और आईपीएस के भरोसे सरकार चलाना चाहती है, तो बदलाव क्या आया. जनता तो मई 2014 में इस उम्मींद से बदलाव लाई थी कि भाजपा ब्यूरोक्रेसी के चंगुल में नही फंसेगी और जभावनाओ के अनुरूप सरकार चलायेगी. भाजपा ने एक आईएएस और एक आईपीएस को राज्यपाल ही नहीं बनाया, अलबत्ता एक आईएएस के आईपीएस पति को राज्यपाल बनाये रखा, जबकि कई सुलझे हुये राजनीतिज्ञ राज्यपालो को हटा दिया. राजनीतिज्ञ राज्यपाल भले ही बूटा सिंह और रामलाल जैसे भी होते हैं , लेकिन इन इक्के दुक्को को छोड दे तो राजनीतिज्ञ राज्यपाल ही बेहतर होते हैं. राजनीतिक अनुभव प्रशासनिक अनुभव से ज्यादा महत्वपूर्ण और कारगर होता है.

अब बात सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लोकतांत्रिक पहलू की. उत्तराखंड के समय सुप्रीमकोर्ट ने सदन को उस दिन से बहाल नहीं किया था, जिस दिन स्दन की आखिरी बैठक हुयी थी. नतीजा यह निकला कि बहुमत का फैसला बागी विधायको को निकालने के बाद बचे सदन में हुया और उसमें हरीश रावत के पास बहुमत का दुबारा जुगाड हो चुका था. इस लिये इसे लोकतंत्र की जीत बताया गया. कोई नहीं कहेगा कि सुप्रीम कोर्ट ने खेल ( इसे राजनीतिक खेल के रूप में न समझा जाये ) शुरु होने के बाद नियम बदलने की इजाजत दी थी. लेकिन अरुणांचल का मामला अलग हो गया है, सुप्रीम कोर्ट ने उस सरकार को बहाल किया है जिस का सदन में अल्पमत साबित हो चुका है, उस की जगह पर सरकार गठित हो चुकी थी, जो सदन में बहुमत साबित कर चुकी है. और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उस दिन से सदन की बहाली की गयी है जब सारे सदस्य मौजूद थे. यानि सुप्रीमकोर्ट ने अल्पमत सरकार को बहाल किया है. यह सरकार सदन में बहुमत कैसे साबित करेगी, और अगर बहुमत साबित नहीं कर पायेगी तो सुप्रीमकोर्ट के फैसले की कया इज्जत रहेगी. ऐसा हुया तो सुप्रीम कोर्ट की ओर से बहाल सरकार फिर अपदस्त हो जायेगी और बहुमत वाली सरकार फिर बन जायेगी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एक ही अर्थ निकलता है कि राज्यपाल अनाडी नहीं होने चाहिये और अटार्नी जनरल नकारा नहीं होने चाहिये.

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