एक साथ चुनाव की योजना क्यों सिरे नहीं चढी

Publsihed: 11.Oct.2018, 08:45

अजय सेतिया / 1952 से1967  तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे | 1967 में कुछ राज्यों में बनी गठबंधन सरकारें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले गिर ,गई जिस कारण मध्यवधि चुनावो की नौबत आ गई तब से एक साथ चुनावों का सिलसिला टूट गया | पहली एनडीए सरकार के समय भाजपा को लगता था कि अटल बिहारी वाजपेयी से बड़ा कोई नेता नहीं है इस लिए उन के व्यक्तित्व का लोकसभा के साथ साथ विधानसभाओं के चुनावों में भी फायदा उठाया जा सकता हैअब भी भाजपा को लगता था कि मोदी का करिश्माई नेतृत्व लोकसभा के साथ साथ राज्यों के चुनावों में भी भाजपा के लिए कारगर साबित हो सकता है, इसलिए दोनों ही बार एक साथ चुनाव की जोरदार मुहिम चलाई गई  |

अपनी मुहिम को सिरे चढाने और क्षेत्रीय दलों को राजी करने के लिए यहाँ तक कहा गया कि पांच साल नहीं तो ढाई-ढाई साल के अंतराल पर दो बार चुनाव हों | आधे राज्यों की विधानसभा का चुनाव अप्रेल 2019 में लोकसभा के साथ हो और बाकी राज्यों का इसके ढाई साल बाद अक्टूबर-नवम्बर 2021 में | अगर बीच में कहीं कोई राजनीतिक संकट पैदा हो और चुनाव की जरूरत पड़े तो वहां फिर अगला चुनाव ढाई साल के चक्र के साथ हो | पांच साल में दो बार चुनावों की अपनी मुहिम को सफल बनाने के लिए भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की अपनी सरकारों की एक साल पहले बलि देने को तैयार बताई जा रही थी | एक साथ चुनावों का फायदा बताने के लिए देश भर में दर्जनों सेमीनार कर के लाखों रूपए खर्च किए गए, लेकिन साल भर तक एक साथ चुनावों की जोरदार पैरवी के बाद हुआ कुछ भी नहीं |   

चुनाव आयोग ने छह अक्टूबर को पांच विधानसभाओं के चुनावों का एलान कर दिया | सवाल पैदा होता है कि साल भर की मुहिम का क्या हुआ , भाजपा समय पूर्व लोकसभा चुनावों का जोखिम उठाने को तैयार क्यों नहीं हुई | या फिर मोदी के करिश्माई नेतृत्व का लाभ उठाने के लिए अपनी तीन सरकारों की बलि देते हुए पांच महीने के लिए राष्ट्रपति राज लगा कर लोकसभा के साथ चुनाव करवाने को तैयार क्यों नहीं हुई | सच यह है कि कोई आदर्श की बातें चाहे जितनी करें , लेकिन राजनीति में कोई त्याग करने को तैयार नहीं होता | महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में एक साल की बलि देना तो दूर की बात भाजपा मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान में अपनी सरकारों का चार-पांच महीने का त्याग भी नहीं कर पाई और अप्रेल में मोदी के करिश्में का फायदा उठाने में चूक गई | 

कांग्रेस और अन्य छोटे बड़े दलों को लगता है कि मोदी अपनी पार्टी के फायदे के लिए एक साथ चुनाव की पैरवी कर रहे हैं | क्योंकि इस समय मोदी का नेतृत्व देशव्यापी है जब कि कोई अन्य राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल उन के समक्ष कहीं नहीं ठहरता | उन्हें यह भी लगता है एक साथ चुनाव से  राष्ट्र को भले ही फायदा हो , उन्हें राजनीतिक नुकसान हो जाएगा | भारत के सभी राजनीतिक दल सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचते हैं , कभी किसी बड़े मुद्दे पर राष्ट्र को सामने रख कर नहीं सोचा जाता | वाजपेयी सरकार के समय भी, और मोदी सरकार के समय भी राजनीतिक दलों में की बार बैठकें हुई , इन बैठकों में भी कभी एक साथ चुनाव के फायदों और नुकसान की समीक्षा के लिए विशेषज्ञों की राय नहीं ली गई |

इस का एक दूसरा पहलू भी है | वह यह कि एक साथ चुनाव के फायदे कम हैं और नुकसान ज्यादा हैं | छोटे-छोटे अंतराल पर किसी न किसी चुनाव का सामना करने के कारण कोई भी पार्टी या नेता चुनाव जीतने के बाद निरंकुश नहीं होता जबकि फिक्स समय पांच साल बाद ही चुनाव होने पर नेताओं और दलों की निरंकुशता बढ़ जाएगी | एक साथ चुनाव से भारतीय लोकतंत्र को दूसरा बड़ा नुकसान यह होगा कि क्षेत्रीय एजेंडे पर राष्ट्रीय एजेंडा हावी हो जाएगा ,जिस से क्षेत्रीय मुद्दे दरकिनार हो जाएंगे, राष्ट्रीय दलों को इस का लाभ हो सकता है, लेकिन क्षेत्रीय दलों का महत्व कम हो जाएगा ,जो लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा | तीसरा विचारणीय विषय यह है कि अगर 1996 की त्रिशंकू लोकसभा की तरह सरकार गिर जाती है तो क्या मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे , होंगे तो उस का कार्यकाल पांच साल होगा या बाकी का बचा कार्यकाल | इसी तरह 1967 की तरह त्रिशंकू विधानसभाओं में अस्थिर सरकार बनती है तो उस के गिरने पर क्या होगा | एक साथ चुनाव रोज रोज के चुनाव टालने का स्थाई विकल्प तो फिर भी नहीं बनेगा | चौथा विषय यह है कि अगर सदन का कार्यकाल फिक्स होगा तो राज्य निरंकुश हो जाएंगे , क्योंकि राज्यपालों की तो कोई भूमिका ही नहीं रहेगी |

 

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