नई दिल्ली ( अजय सेतिया ) | त्रिपुरा में कम्युनिस्टों की हार के बाद 25 वर्ष से उन के अत्याचारों से पीड़ित जनता ने रूस के क्रांतिकारी लेनिन की प्रतिमा को बुलडोजर से गिरा दिया | जिस पर सेक्यूलर जमात फिर बिफर उठी है और भाजपा पर असहिशयुन्ता का आरोप लगा रही, जिस ने कम्युनिस्टों का 25 साल पुराना शासन उखाड़ फैंका है |
प्रतीकों से कौन क्या प्रेरणा लेता है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है प्रतीक किस विचारधारा से प्रेरित है और क्या जनता एवं शासन उस विचारधारा को मनाने वाले हैं, अगर हैं तो प्रतीक सुरक्षित रहेंगे वर्ना प्रतीक मिटाने का वैश्विक इतिहास है ही। जनता को जब भी मौका मिलता है वह अत्याचारी शासक के प्रतीकों को उखाड़ फेंकने में परहेज़ नहीं करती। कम्युनिस्टों ने बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अपनी विरोधी विचारधारा के अनुयायियों पर कम अत्याचार नहीं किए। इन तीनों राज्यों में कम्यूनिस्ट पार्टी का इतिहास हत्या की राजनीति से भरा पड़ा है।
दरअसल मूर्तियों को तो़ड़ने का मक़सद पहले के दौर की सोच को मिटाना, उस दौर के प्रतीकों का ख़ात्मा करना होता है। इसीलिए कहा जाता है कि अगर आप किसी देश को समझना चाहते हैं, तो यह मत देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक लगाए हैं। यह देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक मिटाए हैं और क्यों मिटाए हैं ।
प्रतीक या मूर्तियां गिराने की सबसे पुरानी मिसाल सन् 1357 की है, जब इटली के टोस्काना सूबे के सिएना शहर में बीच चौराहे पर लगी वीनस की मूर्ति को लोगों ने हटा दिया था। वीनस रोम के लोगों की देवी थी। लोग उन्हें ख़ूबसूरती और सेक्स की देवी मानकर पूजते थे। वीनस का बेहद ख़ूबसूरत बुत सिएना में एक फव्वारे पर लगा था। स्थानीय लोग इसे बहुत पसंद करते थे लेकिन एक जंग में हारने के बाद उन्हें लगा कि इस नग्न मूर्ति के चलते ही भगवान उनसे नाराज़ हो गए और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद स्थानीय लोगों ने इस मूर्ति को हटा दिया।
माणिक सरकार ने यदि लेनिन जैसे धूर्त आक्रांता की बुतपरस्ती न कि होती तो शायद इनकी सरकार खदेड़ी न गई होती। समूची पृथ्वी पर शायद ही कोई देश ऐसा हो जहाँ इस पर थूका न गया हो।वामपंथी कितने ही आरोप लगाया करें कि यह कार्य भाजपा का हैं लेकिन उन्हें सच्चाई का सामना करना पडेगा | वामपंथी पार्टियों को सीख लेनी चाहिए कि ऐसी कट्टरवादी सोच ज्यादा दिन नहीं चलती है।
क्या यह वामपंथियों की कट्टरवादी सोच नहीं थी कि 25 साल जब वे त्रिपुरा में सत्ता में आए तो उन्होंने राजीव गाधी की प्रतिमा पर कालिख पोती थी और फिर रस्सियों से बाँध कर गिरा दिया था |जनता तब-तक ही चुपचाप सहती है जबतक कोई उसे विकल्प नहीं नजर आता है। महाराजा धृतराष्ट्र के लघु भ्राता नीति के महा पण्डित विदुर ने अपने नीति वाक्यों (विदुर-नीति) में बड़े जोरदार शब्दों में जैसे से तैसा बरतने की आज्ञा दी है। यथा-
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥
(महाभारत विदुर नीति)
अर्थात्- जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। जो तुम्हारे साथ हिंसा करता है, तुम भी उसके प्रतिकार में उसके साथ हिंसा करो! इसमें मैं कोई दोष नहीं मानता, क्योंकि शठ के साथ शठता ही करने में उपाय पक्ष का लाभ है।
उदाहरण आपके सामने है जब "उक्रेन देश" में वामपंथी दलों का शासन समाप्त हो गया तो वहां की जनता (भीड़) ने किस तरह लेनिन की मूर्तियां को एकजुट होकर हर चौराहे पर जा-जाकर गिरा कर जूतों से ठोकर मार-मार कर तोड़ा था। 1991 में रूस के मॉस्को के लुबिंका चौराहे पर लगी सोवियत संघ की ख़ुफिया पुलिस चेका के संस्थापक फेलिक्स जेरजिंस्की की मूर्ति गिरा दी गई थी क्योंकि वह उस ज़ुल्म के प्रतीक थे, जो सोवियत ख़ुफ़िया पुलिस ने आम लोगों पर ढाया था।
सन् 1776 में अमरीका ने अपनी आज़ादी का ऐलान किया था। उस दिन उत्साहित भीड़ ने न्यूयॉर्क शहर में लगी ब्रिटिश राजा जॉर्ज तृतीय की कांसे की मूर्ति को रस्सी से खींचकर गिरा दिया था।न्यूयॉर्क के बाउलिंग ग्रीन में स्थित जॉर्ज तृतीय का बुत गिराने की इस घटना को अमरीका की आज़ादी के ऐलान का सबसे बड़ा प्रतीक माना गया। इस पर उस दौर के मशहूर चित्रकारों ने पेंटिंग्स बनाई। ये पेंटिंग्स आज़ाद अमरीका की प्रतीक बन गईं। यानी करीब 242 साल पहले भी विरोधी विचारधारा को समाप्त करने के लिए अमेरिका में बुत को जमीदोंज किया गया।
दुनिया के इतिहास पर गौर करें तो सन 2000 के बाद प्रतीकों और मूर्तियों को गिराने पर बड़ी आलोचना अफगानिस्तान के बामियान से जुड़ी है। बामियान के बुद्ध की विशाल मूर्ति को तोड़ा गया जबकि बुद्ध अहिंसा और शान्ति के प्रतीक हैं। 2003 में इराक़ में लोगों ने सद्दाम हुसैन के विशालकाय बुत को रस्सियों से खींचकर गिरा दिया था। फिर साल 2011 में लीबिया के लोगों ने कर्नल गद्दाफ़ी के बुतों को ढहा दिया था। क्योंकि गद्दाफी जुल्म के प्रतीक थे।
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