ओबामा की जीत से उत्साहित मायावती

Publsihed: 09.Nov.2008, 20:37

परिदृश्य- एक

अमेरिका का गठन होने के बाद वहां के नेताओं को लगता था कि दास्ता प्रथा धीरे-धीरे अपने आप खत्म हो जाएगी, जबकि ऐसा हुआ नहीं। जार्ज वाशिंगटन ने 1786 में फैसला किया कि दास्ता प्रथा को कदम दर कदम खत्म करने के लिए कार्य योजना बनाई जानी चाहिए। उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र ने 1787 में एक अध्यादेश जारी करके दास प्रथा खत्म कर दी। इक्कीस साल बाद जब 1808 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुलामों का व्यापार बंद किया गया, तब भी अमेरिका के कई दक्षिणी राज्यों में दास्ता प्रथा चालू थी।

आखिर 1820 में मिसौरी समझौता हुआ जिसके तहत दास्ता प्रथा वाले क्षेत्रों की सीमा तय कर दी गई। पच्चीस साल बाद तक ऐसा लगता था कि गुलाम प्रथा 1820 में तय क्षेत्रों तक सीमित रहेगी, लेकिन 1847 में जब अमेरिका ने मैक्सिको पर हमला करके उसे हरा दिया और डेढ़ करोड़ डालर में मैक्सिको के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रों और कैलीफोर्निया ले लिया। कैलीफोर्निया, न्यू मैक्सिको और उटाह में उस समय दास प्रथा जैसी कोई बात नहीं थी। अमेरिका ने जब इन तीनों राज्यों पर कब्जा किया, तो अमेरिका में बहस शुरू हुई कि वहां गुलाम प्रथा लागू की जाए या नहीं। दक्षिण के उग्रपंथी चाहते थे कि मैक्सिको से हासिल की गई जमीन गुलामों के मालिकों को सौंप दी जाए। जबकि उत्तरी अमेरिका के लोग चाहते थे कि नए क्षेत्रों को गुलामी मुक्त रखा जाए। नए क्षेत्रों पर कब्जा होने के बाद दक्षिणी अमेरीकियों में नए गुलाम हासिल करने की लालसा बढ़ गई थी। मैक्सिको से अलग हुए दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्रों और कैलीफोर्निया के लोग तीन साल तक गुलामी और आजादी के बीच झूलते रहे। लंबी बहस के बाद 1850 में एक समझौता हुआ जिसके तहत कैलीफोर्निया को गुलाम प्रथा से मुक्त राज्य माना गया और बाकी के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र को बिना गुलाम प्रथा का जिक्र किए न्यू मैक्सिको और उटाह में पुनर्गठित किया गया। दक्षिणी और उत्तरी राज्यों में यह समझौता बड़ी चालाकी से किया गया था जिसमें इन दोनों क्षेत्रों में गुलाम प्रथा फलती-फूलती रही। अमेरिका के इतिहास में 1850 को राजनीतिक लिहाज से विफल माना जा सकता है क्योंकि तब के नेता दास प्रथा को खत्म करने में नाकाम रहे।

परिदृश्य-दो

1860 में राष्ट्रपति बने इब्राहिम लिंकन दास प्रथा को पूरी तरह खत्म करना चाहते थे, लेकिन राष्ट्रपति पद पर दूसरी बार चुने जाने के बाद 14 अप्रेल 1864 को उनकी हत्या कर दी गई। इब्राहिम लिंकन की हत्या के बाद उनके उपराष्ट्रपति एंड्रयू जोनसन ने मार्च 1865 में दास्ता मुक्ति के लिए मुक्त ब्यूरो की स्थापना की जिसका काम गुलामों को मुक्ति में मदद करना था। अमेरिका के संविधान में तेरहवां संशोधन करके नागरिक अधिकार दे दिए गए और चौदहवें संशोधन में सभी अश्वेत लोगों को नागरिकता का हक दे दिया। दक्षिणी राज्यों ने संविधान संशोधन की पुष्टि करने से इनकार कर दिया, अलबत्ता दास्ता प्रथा को दुबारा से लागू करने का बिल पास कर दिया। दासों की खरीद-फरोख्त की इजाजत दे दी गई। अमेरिका ने कड़ा कदम उठाते हुए मार्च 1867 में दक्षिण क्षेत्र को पांच जिलों में विभाजित करके सैनिक शासन लागू कर दिया, तब जाकर चौदहवें संशोधन को मंजूरी मिली। इसके भी तीन साल बाद 1870 में बिना रंग भेद के सभी नागरिकों को वोट का हक मिला, लेकिन बराबरी का दर्जा फिर भी नहीं मिला। बराबरी का दर्जा 1872 में जाकर मिला, इसके बाद धीरे-धीरे डेमोक्रेट्स एक-एक करके दक्षिणी राज्यों में जीतते गए और रिपब्लिकन हारते गए। इसके बाद भी अश्वेतों को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा और उन्हें वास्तविक बराबरी का दर्जा कभी नहीं मिला। बीसवीं सदी के छठे दशक में अश्वेत विचारक मार्टिन लूथर किंग ने अश्वेत अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा। उनका आंदोलन श्वेतों के बराबर अधिकारों का था। मार्टिन लूथर किंग की ओर से चलाए गए आंदोलन के बाद अश्वेतों को हर जगह पर बराबरी का दर्जा तो मिलने लगा लेकिन व्हाइट हाऊस में पहुंचने का सपना फिर भी बना रहा। मार्टिन लूथर किंग के आंदोलन के 45 साल बाद जाकर पहली बार अमेरिका के व्हाइट हाऊस में बराक ओबामा नाम का अश्वेत राष्ट्रपति बैठेगा।

परिदृश्य-तीन

भारत में दलितों का दर्जा अमेरिका के अश्वेतों जैसा ही था। ऐसा माना जाता है कि आर्यो ने भारत में जाति प्रथा को लागू करते समय समाज को चार भागों में बांटा। ब्राह्मण- जिनका  काम पाठ-पूजा करना और समाज का नेतृत्व संभालना था। ब्राह्मणों को सबसे ऊंची जात माना गया, जबकि दूसरे नंबर पर क्षत्रीय रखे गए, जिनका काम युध्द करना और हासिल की गई जमीन और आवाम पर राज करना था। तीसरे नंबर पर वैश्य समाज को रखा गया, जिनमें किसान, व्यापारी और दस्तकारी करने वाले शामिल थे। चौथे नंबर पर शूद्र को रखा गया, जिनका काम ऊंची जातियों की सेवा करना और बाकी निम्न काम करना था। हिंदू समाज में इनका दर्जा वहीं था, जो अमेरिका और अफ्रीका में अश्वेतों का था। अश्वेतों की तरह शूद्र भी ऊंची जातियों के गुलाम थे। शूद्रों में सबसे निम्न जात को दलित कहा गया और उन्हें अछूत माना गया। हजारों साल से चली आ रही इस प्रथा में दलितों को तिरस्कार भरी नजर से देखा जाता था। हिंदू धर्म के मुताबिक माना गया कि ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य का जन्म दूसरी बार हुआ है और इन्हीं तीन जातियों को पवित्र धार्मिक ग्रंथ पढ़ने की इजाजत थी। जिन्हें अछूत माना गया, उनके लिए मृत्यु के बाद के क्रिया कर्म करना, मानव मल उठाकर ठिकाने लगाना जैसे काम सुरक्षित किए गए। भारत में मुगलों से लेकर अंग्रेजी शासन काल तक सदियों से चली आ रही जाति प्रथा बदस्तूर जारी रही।

परिदृश्य-चार

पंद्रह अगस्त 1947 को देश की आजादी के बाद संविधान सभा का गठन किया गया। संविधान को लिपिबध्द करने के लिए बनाई गई ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष भीमराव अम्बेडकर दलित थे। ढाई साल की मेहनत के बाद बने संविधान में अछूत प्रथा को खत्म कर दिया गया और दलितों को वोट का अधिकार देते हुए समाज में बराबरी का दर्जा दिया गया। लेकिन वास्तव में दलित अभी भी बाकी जातियों से निम्न माने जाते हैं। इस समय भारत में 26 करोड़ से ज्यादा दलित हैं जो कुल आबादी का 25 फीसदी हैं। केआर नारायणन भारत के पहले दलित राष्ट्रपति बने, हालांकि वह धर्म परिवर्तन करके ईसाई थे। आजाद भारत में दलित मंत्री और मुख्यमंत्री तो बने, लेकिन आजादी का चौथाई हिस्सा होने के बावजूद अब तक कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं बना। अमेरिका में पूर्व अछूत-गुलाम अश्वेत राष्ट्रपति बनने के बाद अब भारत में भी उस क्रांति को दोहराए जाने पर बहस होना स्वाभाविक है। सबकी निगाह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर टिक गई है। दलित की बेटी मायावती का इतिहास भी बराक ओबामा की तरह अभावों और तिरस्कारों से भरा है। लेकिन वह अपने बूते पर देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुई हैं। मार्टिन लूथर किंग ने बीसवीं सदी के साठ के दशक में अमेरिका के सर्वोच्च पद पर एक अश्वेत को देखने की कामना की थी। करीब-करीब उसी समय 70 और 80 के दशक में काशीराम भारत में दलितों को बराबरी का हक दिलाने का आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर एक दलित को देखने की कामना की थी।

मंथन

मार्टिन लूथर किंग का सपना साकार हो गया है, क्या अब काशीराम का सपना साकार होना चाहिए। क्या अमेरिका की तरह भारत सामाजिक क्रांति के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो चुका है। शुरूआती हिचक के बाद भारत के वामपंथी दलों ने मायावती को पंद्रहवीं लोकसभा में देश का प्रधानमंत्री बनाने का बीड़ा उठा लिया है। चौदहवीं लोकसभा में वामपंथियों ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का बीड़ा उठाया था। वे कामयाब भी हो गए थे, उन्होंने सोनिया गांधी को समर्थन भी कर दिया था, लेकिन राष्ट्रपति भवन में न जाने क्या हुआ कि वह नेता चुने जाने के बाद पीछे हट गईं और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। क्या पंद्रहवीं लोकसभा में सामाजिक क्रांति होने जा रही है, बराक ओबामा की जीत से मायावती बेहद उत्साहित हैं, क्या देश की जनता भी इसके लिए तैयार है।

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