अजय सेतिया / क्या युद्ध टल सकता था | आप ने सुना होगा कि रूस ने कुछ शर्तें रखीं थी , अगर वे शर्तें मान ली गई होतीं , तो युद्ध टल सकता था | राष्ट्रपति पुतिन ने वायदा किया था कि अगर वे शर्तें मान ली जाएँगी , तो रूस हमला नहीं करेगा | अगर आप उन शर्तों को देखेंगे तो आप पाएंगे कि पुतिन ने अमेरिका और नाटो गठबंधन के सामने कुछ शर्तें रखीं थी , न कि यूक्रेन के सामने | फिर ऐसा क्या कारण है कि यूक्रेन पर हमला हुआ | यूक्रेन दो बड़ी ताकतों रूस और अमेरिका के बीच चल रहे युद्ध का मोहरा बना है | 1991 तक यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था | 1991 में सोवियत संघ टूटा तो यूक्रेन में हुए जनमत संग्रह में 92 प्रतिशत लोगों ने रूस से अलग होने के पक्ष में वोट किया था | यूक्रेन जब सोवियत संघ से अलग हुआ , तो रूस और अमेरिका के बाद वह परमाणू हथियारों वाला दुनिया का तीसरा बड़ा देश था | अमेरिका, रूस , यूक्रेन , बेलारूस और कजाकिस्तान के 5 दिसंबर 1994 को बुडापेस्ट में हुए समझौते के तहत इन सभी देशों ने एन.पी.टी पर दस्तखत कर दिए | अमेरिका और रूस से सुरक्षा की गारंटी मिलने के बाद यूक्रेन अपने सभी 44 परमाणु बम रूस को दे दिए थे | आज अगर वे बम यूक्रेन के पास होते तो तस्वीर एक दम अलग होती | इस समय रूस के साथ खड़े बेलारूस ने खुद को गैर परमाणू देश के दर्जे से मुक्त कर दिया है , यानी रूस बेलारूस को अपना अड्डा बना कर वहां परमाणू हथियार तैनात करेगा | रूस के पास इस समय 5977 परमाणू हथियार है , जो अमेरिका से भी ज्यादा है | अब यूक्रेन के एक सांसद एलेक्सी गोंचारेंको ने एन.पी.टी पर दस्तखत के बाद रूस को परमाणू हथियार देने के फैसले को यूक्रेन की एतिहासिक गलती करार दिया है | लेकिन उस समय यूक्रेन का राष्ट्रपति लियोनिद कूचमा रूस समर्थक था |
भले यूक्रेन अलग देश बन गया था , लेकिन वह चलता हमेशा रूस के हिसाब से ही रहा , यूक्रेन के कई हिस्सों में रूसी भाषा ही बोली जाती है , यूक्रेन और रूस का कल्चर भी एक सा ही है | राष्ट्रपति पुतिन हमेशा से कहते आए हैं कि रूस और यूक्रेन अलग नहीं हैं , दोनों का इतिहास और कल्चर साझा है | यूक्रेन की 30 प्रतिशत आबादी रूसी है , जिनमें से ज्यादातर रूस से लगते ईस्टर्न यूक्रेन में रहते हैं , वे रूस का समर्थन करते हैं | लेकिन जैसे जैसे आप यूक्रेन के वेस्टर्न हिस्से की तरफ जाते हैं , रूस समर्थक आबादी कम होती जाती है | यूक्रेन के मूल निवासी यूरोपियन यूनियन में शामिल होना चाहते हैं , जबकि रूसी मूल के 30 प्रतिशत लोग रूस के साथ बने रहना चाहते हैं | 2005 से पहले तक यूक्रेन और रूस के संबंध बहुत अच्छे थे , इस का कारण यह था कि उस समय तक यूक्रेन में जो सरकार थी , वह एक तरह से रूस की कठपुतली सरकार थी और रूस के हिसाब से ही चलती थी , सारी नीतियाँ रूस के हिसाब से बनती थी | इस कारण यूक्रेन यूरोपियन यूनियन का हिस्सा नहीं बन सका , जबकि तीन तरफ से यूक्रेन की सीमाएं यूरोप से लगती हैं | 2005 में तीसरा राष्ट्रपति बनने के बाद विक्टर यूस्चेन्को ने जरुर रूस के चंगुल से बाहर निकाल कर यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन में शामिल करवाने की बात कही थी , 2008 में उन्होंने यूरोपियन यूनियन और नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन भी दिया |
इस बीच 2010 में फिर से रूस समर्थक विक्टर यानुकोविच राष्ट्रपति बन गए | विक्टर यानुकोविच को नवंबर 2013 में यूरोपियन यूनियन की एक बैठक में बुलाया गया , जहां उन्हें यूरोपियन फ्री ट्रेड एगीमेंट की पेशकश की गई , लेकिन प्रो-रूस विक्टर ने यह पेशकश ठुकरा दी , इस के बाद उनके खिलाफ यूक्रेन में जबर्दस्त आन्दोलन शुरू हो गया , प्रदर्शन इतने उग्र हो गए कि राष्ट्रपति विक्टर को अपनी जान बचा कर रूस भागना पड़ा | इस के बाद यूक्रेन के जितने भी राष्ट्रपति बने , उन्होंने प्रो-रूस लाईन लेना बंद कर दिया , क्योंकि वे विक्टर का हश्र देख चुके थे | यूक्रेन में इतना बदलाव आ चुका था कि उसे तय करना था कि पहले की तरह रूस के साथ चलता रहे , या यूरोपियन यूनियन में शामिल हो कर रूस से एकदम अलग हो जाए | यूक्रेन के लोगों का झुकाव यूरोपियन यूनियन की तरफ ज्यादा होने लगा था , स्वाभाविक है कि रूस को अपनी दहलीज पर यूरोपियन यूनियन और नाटो के आने का खतरा मंडराने लगा | गंभीर स्थिति तब पैदा हुई , जब यूक्रेन ने नाटो देशों का हिस्सा बनने के लिए गंभीर प्रयास शुरू कर दिए | नाटो दूसरे विश्वयुद्ध के 1949 में सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए बनाया गया था , नाटो संधि के अनुसार अगर कोई भी देश नाटो के सदस्य देश पर हमला करता है तो नाटो के सभी देशों की फौजें उस के बचाव में पहुंचती हैं | जब तक नाटो वेस्ट यूरोप में अपने सदस्य बढा रहा था , तब तक रूस को कोई प्रोब्लम नहीं थी | लेकिन जैसे ही अमेरिका ने एक रणनीति के तहत ईस्टर्न यूरोप के देशों को अपना सदस्य बनाना शुरू किया रूस की दिक्कत बढने लगी |
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध खत्म हो गया था , इस लिए नाटो को भंग किया जाना चाहिए था , लेकिन अमेरिका और यूरोपियन देशों ने ऐसा नहीं किया अलबत्ता नाटो का जबर्दस्त विस्तार शुरू कर दिया गया | पोलैंड , हंगरी , चेक गणराज्य और अल्बानिया को तो 1999 में नाटो में शामिल किया गया | इस के बाद एस्टोनिया , लिथुआनिया ,लातविया और स्लोवेनिया भी नाटो में शामिल हो गए | यूरोप की एकता बढने लगी | रूस के बार्डर तक अमेरिकी मिसाईल और मिलट्री पहुंचने लगी थी | इस बीच अगर यूक्रेन भी नाटो का सदस्य बन जाता , तो अमेरिका एक-मिनट के भीतर रूस पर हमला करने की स्थिति में आ सकता था | मान लो कभी रूस और अमेरिका में युद्ध हो जाए , तो रूस जब तक अमेरिका पर एक मिसाईल दागेगा , अमेरिका तब तक रूस पर सौ मिजईल दाग चुका होगा , क्योंकि वह नाटो के जरिए रूस के बार्डर पर आ कर खड़ा हो गया है | इस लिए रूस इस बात का विरोध कर रहा है कि अमेरिका क्यों रूस के मित्र देशों को नाटो में शामिल कर रहा है | यूक्रेन अपनी सुरक्षा के लिए नाटो का सदस्य बनना चाहता है , वह 2008 से सदस्य बनने का इन्तजार कर रहा है , हालांकि अमेरिका ने उस की पैरवी की थी , लेकिन फ्रांस और जर्मनी ने रास्ता रोक रखा था | हालांकि नाटो गठबंधन के लिए इस से बढिया मौक़ा नहीं हो सकता था कि वह यूकेन को शामिल कर के रूस-यूक्रेन के 2295 किलोमीटर लंबे बार्डर पर पहुंच जाए |
रूस ने यूक्रेन के रास्ते अमेरिकी खतरे को 2014 में ही भांपना शुरू कर दिया था | इसलिए उस ने सब से पहले अमेरिका का समुद्री रास्ता रोकने के लिए यूक्रेन के क्रीमिया प्रांत में अलगाववादी आन्दोलन शुरू करवा दिया और क्रीमिया पर कब्जा किया | कब्जे के बाद वहां जनमत संग्रह करवाया , वहां आबादी रूस समर्थक थी ही , इसलिए जनमत संग्रह में रूस से विलय का समर्थन हुआ | अब वह रूस का हिस्सा बन चुका है | इसी बीच यूक्रेन के दो प्रान्तों लुहांस और डोंस में भी क्रीमिया की तरह अलगाववादी आन्दोलन चल रहा था | यूक्रेन के ये दोनों राज्य क्रीमिया के साथ लगते और रूस के बार्डर पर ही है , क्रीमिया की तरह ये दोनों प्रांत भी रूसी आबादी वाले हैं | इस लिए युद्ध से एक दिन पहले रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने इन्हें डोनाबास नाम से अलग देश की मान्यता दे दी | इन दोनों प्रान्तों को मिला कर डोनाबास कहा जाता है | अगले ही दिन रूसी सेना को डोनाबास में दाखिल करवा कर कह दिया कि ये शान्ति स्थापित करने के लिए भेजी गई हैं |
अब अपन वापिस चलते हैं , ऐसा क्यों हुआ , वह इस लिए कि रूस ने अमेरिका और नाटो गठबंधन से मांग की थी कि वह ईस्टर्न यूरोप से नाटो फौजों को हटाए और वायदा करे कि यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं किया जाएगा | तीसरी मांग अमेरिका से थी कि वह यूरोप से अपनी मिसाईलें हटाए | लेकिन अमेरिका और नाटो ने रूस की मांगें मानने से इनकार कर दिया | असलियत यह है यूक्रेन रूस और अमेरिका की दुश्मनी का शिकार हुआ है | अमेरिका कई महीनों से बोलता रहा कि यूक्रेन की मदद की जाएगी | लेकिन जब युद्ध हुआ तो अमेरिका और नाटो ने यूक्रेन को अकेला छोड़ दिया | राष्ट्रपति जेलेंस्की बार-बार नाटो में शामिल होने की बात करते रहे | नाटो देश भी खूब बोलते रहे कि वे यूक्रेन का साथ देंगे | लेकिन जब भी सदस्यता देने की बात आती, तो उसे टाल दिया जाता | रूस ने नाटो और अमेरिका से आश्वासन नहीं मिलने के बाद समय गवाना उचित नहीं समझा | युद्ध शुरू होने के बाद सभी ने रूस पर सिर्फ प्रतिबंध लगाए | अमेरिका ने अपनी सेना भेजने से इनकार कर दिया | नाटो ने क्षेत्र के दूसरे देशों में सैनिकों को तैनाती के लिए भेजा | यूक्रेन की सिर्फ आर्थिक और हथियारों से मदद करने की बात कही |
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