भाषा का आंदोलन तो पंजाब और तमिलनाडु में भी चला था, लेकिन उन आंदोलनों का लक्ष्य संस्कृति और परंपराओं की हिफाजत थी। जबकि राज ठाकरे का मराठी प्रेम अपने भाई उध्दव ठाकरे पर भारी पड़ने के लिए वोट बैंक की सियासत का हिस्सा है।
बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने इस हफ्ते अमिताभ बच्चन परिवार को फिर निशाना बनाया। इस बार निशाने पर अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन थी। जया बच्चन मुलत: हिंदी भाषी या उत्तर भारतीय नहीं हैं। भले ही जया बच्चन के पिता तरुण भादुड़ी भोपाल में रहते थे, लेकिन वह थे मुलत: बंगाली। भोपाल में वह स्टेट्समैन के पत्रकार थे, बंगाली होने के बावजूद मध्यप्रदेश में इतना रच-बस गए कि अर्जुन सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में उन्हें पर्यटन विभाग में जिम्मेदार पद सौंप दिया था।
भोपाल में बचपन बीतने के कारण जया बच्चन बंगाली और हिंदी अच्छी तरह बोल लेती हैं और अपनी जिंदगी का जरिया मुंबई को बनाकर मराठी पर भी अच्छी खासी पकड़ बना ली है। जया भादुड़ी खुद को हिंदी में सहज बताकर क्या बोली राज ठाकरे को भाषाई सियासत का नया बहाना मिल गया। राज ठाकरे जब से अपने चाचा से अलग होकर राजनीति करने लगे हैं तब से उत्तर भारतीयों और हिंदी के पीछे लठ लेकर पड़े हैं। भाषा और क्षेत्रवाद की यह राजनीति राज ठाकरे को विरासत में मिली है। कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे जब पहली बार राजनीतिक अखाड़े में उतरे थे तो उन्होंने भी इन्हीं दो मुद्दों को अपनी सियासत का आधार बनाया था। उन दिनों दक्षिण भारतीय बाल ठाकरे के निशाने पर हुआ करते थे, उत्तर भारतीयों पर उनकी नजर बाद में पड़ी थी। अब मुंबई और बाकी महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की तादाद दक्षिण भारतीयों से ज्यादा है। इसलिए राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के खिलाफ मुद्दों की तलाश में रहते हैं, ताकि अपने चचेरे भाई उध्दव ठाकरे के मराठी वोट बैंक को अपने पाले में ला सकें। वोट बैंक की राजनीति कितनी गंदी, हिंसक और क्रूर होती है यह उसका ताजा उदाहरण है।
वैसे भाषा और क्षेत्रवाद की राजनीति देश में नई बीमारी नहीं है। अलबता जातिवाद की राजनीति ने बहुत बाद में पांव जमाए, भाषा और क्षेत्रवाद की राजनीति बहुत पहले शुरू हो गई थी। तमिलनाडु में हिंदी विरोध का आंदोलन और पंजाब में हिंदी के खिलाफ पंजाबी सूबे का आंदोलन करीब-करीब एक ही समय चरम पर था। शुरू-शुरू में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पंजाबी सूबे के खिलाफ कड़ा स्टैंड लिया था। उन्होंने यह कह कर सिखों को भड़का दिया था कि भले कोई भी नतीजा निकले वह पंजाबी सूबा नहीं बनने देंगे। आखिर उन्हें भारी जनक्रोश का सामना करना पड़ा। नेहरू का जब देहांत हुआ तो पंजाब के हिंदी-पंजाबी की भिड़ंत चल रही थी और तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन चल रहा था। अकाली नेताओं ने पंजाबी सूबे के लिए आंदोलन कर के जेलें भर दीं और भूख हड़तालें शुरू कर दी। मास्टर तारा सिंह उस समय 76 साल के थे। उन्होंने 48 दिन तक भूख हड़ताल की, लेकिन बीच-बचाव में 48वें दिन भूख हड़ताल खत्म की तो सिखों ने उन्हें अपना नेता मानने से इंनकार कर दिया था। पंजाब में जहां अकाली भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मांग कर रहे थे वहां हिंदू नेताओं ने हिंदुओं से अपील की कि उन्हें जनगणना में अपनी मातृभाषा पंजाबी की बजाए हिंदी लिखवानी चाहिए। इस तरह हिंदुओं और सिखों में भाषा को लेकर भारी तनाव पैदा हो गया था। इसी दौरान 1965 में जब भारत-पाक जंग हुई तो संत फतेह सिंह ने लाल बहादुर शास्त्री की आंदोलन बंद करने की अपील ठुकरा दी थी। शास्त्री के मांग मानने के आश्वासन के बाद ही फतेह सिंह ने आंदोलन खत्म किया। इंदिरा गांधी ने भाषा के आधार पर पंजाबी आधारित राज्य बनाने के लिए जनगणना करवाई, तो पंजाब के कई हिस्सों में हिंदुओं और सिखों में भाषा के नाम पर तनाव पैदा हो गया। जनसंघी हिंदू वोट बैंक पर कब्जे के लिए आर्य समाजियों के पीछे लगकर हिंदुओं को हिंदी लिखवाने के लिए अभियान चला रहे थे। ठीक उसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर ने हिंदुओं से कहा कि वे अपनी मातृभाषा वही लिखवाएं जो वे अपने घरों में बोलते हैं, जिस भाषा में उनके शादी-ब्याह के समय गीत गाए जाते हैं। सरसंघ चालक ने दोनों समुदायों में भाईचारे के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया था। लाल बहादुर शास्त्री के वायदे और इंदिरा गांधी की कोशिशों से भाषा के आधार पर खड़े हुए इस आंदोलन को राज्य का बंटवारा करके खत्म किया गया। नतीजतन 18 सितंबर 1966 को पंजाब पुर्नगठन करके पंजाबी भाषी पंजाब और हिंदी भाषी हरियाणा बनाया गया। इंदिरा गांधी के समय भाषा की राजनीति शिखर पर थी, लेकिन उनके शासन काल का अस्त होने से पहले खत्म भी हो गई थी।
तमिलनाडु में भाषा का झगड़ा वैसे तो आजादी से पहले ही शुरू हो चुका था, लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल में अपने उग्र रूप में आ गया। ब्रिटिश शासन के दौरान 1937 में जब मद्रास प्रेजीडेंसी में सी. राजगोपालाचार्य की रहनुमाई में पहली कांग्रेस सरकार बनी तो हिंदी को स्कूलों में लाजमी विषय के तौर पर लागू किया गया। तमिलनाडु के पहले गैर ब्राह्मण बैरिस्टर ए.टी. पेनिरसेलवम और पेरियार के नाम से मशहूर हुए ई.वी. रामास्वामी ने हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू कर दिया। बाद में खुद राजा जी कांग्रेस की हिंदी नीति के खिलाफ खड़े हो गए। हालांकि 1940 में हिंदी के लाजिमी विषय के तौर पर हटा दिया गया था, लेकिन आजादी के बाद हिंदी को राजभाषा बनाया गया तो चालीस, पच्चास और साठ के दशक में बार-बार, जगह-जगह हिंदी विरोधी आंदोलन चलते रहे। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री अन्नादुर्रई ने 1962 में संसद में अपने भाषण के दौरान कहा- 'देश के हर स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। अंग्रेजी हमारी जोड़ने वाली भाषा क्यों नहीं बन सकती। तमिलनाडु के लोगों को बाकी सारी दुनिया से बात करने के लिए अंग्रेजी और भारतीयों से बात करने के लिए हिंदी क्यों पढ़नी पड़ेगी। क्या बड़े कुत्ते के लिए बड़ा दरवाजा बनाना पड़ेगा और छोटे कुत्ते के लिए छोटा दरवाजा। छोटे कुत्ते को भी बड़े कुत्ते वाला दरवाजा इस्तेमाल करना चाहिए।'
तमिलनाडु में उस समय ही नहीं आज भी यह धारणा है कि अगर हिंदी उनके घरों में घुस गई तो उनकी सांस्कृतिक भाषा, प्राचीन संस्कृति और परंपराएं नष्ट हो जाएंगी। इस बारे में तमिल मुंबई का उदाहरण देते हैं, जहां मराठी संस्कृति पूरी तरह नष्ट हो गई है। इसी मराठी अस्मिता के नाम पर बाल ठाकरे राष्ट्रपति पद के चुनाव में हिंदी भाषी भैरों सिंह शेखावत के मुकाबले मराठी भाषी प्रतिभा पाटिल को समर्थन दे देते हैं। इसी मराठी अस्मिता के नाम पर राज ठाकरे मुंबई में गुजर-बसर करने वाले बिहारियों के छ्ठ का त्योहार मनाने को मराठी संस्कृति पर हमला बता देते हैं। इसी मराठी के नाम पर राज ठाकरे पहले दुकानों के हिंदी और अंग्रेजी भाषी बोर्डों को काले रंग से पुतवाते हैं और बाद में जया बच्चन के खिलाफ अभियान चला देते हैं। मराठी अस्मिता और मराठी भाषा की संस्कृति का दर्द कितना है यह सब जानते हैं। वोट बैंक की राजनीति मराठी अस्मिता से कहीं ज्यादा है और उससे भी ज्यादा है अपने चाचा बाल ठाकरे और चचेरे भाई उध्दव ठाकरे पर भारी पड़ने की जदोजहद।
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